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मथुरा के यदुवंशी (पुराणिक यादवा ) क्षत्रियों का ऐतिहासिक शोधात्मक अध्ययन ---महाराजा यदु--- यदु चंद्रवंशी महाराजा ययाति एवं उनकी रानी (देवयानी दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री) के पुत्र थे। पिता ने अपनी भोगलिप्सा की पूर्ति के लिए इनसे इनका नौवन मांगा लेकिन इन्होंने देने से इंकार कर दिया। इस पर पिता ने यदु को अपने अनुरूप पुत्र न मानकर शाप दिया कि तुम्हारे वंशजों को राज्य सुख नहीं मिलेगा। यदु, द्वारा शाप को खंडित करने का उपाय पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि स्वयं भगवान इस कुल में जन्म लेंगे और यह कुल पुनः पवित्र हो जाएगा। इसी यदुवंश में आगे चलकर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। यदुवंश----यदुवंश जिसमें परिपूर्णतम परब्रह्म परमात्मा ने भगवान श्रीकृष्ण ने सगुण रूप में अवतार लिया था। विद्वान इस वंश की महिमा का वर्णन करते रहते हैं। महाभारत, विष्णु पुराण, भविष्य पुराण, मत्स्य पुराण, गर्ग संहिता श्रीमद्भागवत, आदि ग्रंथों के आधार पर यदुवंश का वर्णन इस प्रकार है। (चंद्रमा से उत्पत्ति के कारण चंद्रवंश कहलाता है) आदि नारायण-ब्रह्मा (नाभिकमल से) अत्रि (मानस पुत्र) चंद्रमा (नेत्रों से) बुध (देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा से) पुरुरवा-आयु-नहुष-ययाति (इला द्वारा) 1. यदु 2. तुर्वसु (शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी द्वारा) 3. अनु 4. द्रयु 5. पुरू - वृषपर्वा दैत्यराज पुत्री शर्मिष्ठा द्वारा) ययाति के शाप के कारण यदु तथा पुरू दो वंशों की ही श्रृंखला चली अन्य तीनों के वंश इनमें ही समाहित हो गये। यदु का वंश यादव ( यदुवंशी) कहलाया जिसमें स्वयं भगवान कृष्ण ने अवतार लिया तथा पुरू का वंश पुरूवंश कहलाया जिसमें भविष्य में कुरुवंश चला जिसमें कौरव एवं पांडव हुए। यही यदुवंश भविष्य में कई अन्य शाखा नामों से भी चला जैसे क्रोष्टु वंश, सात्वत वंश, वृष्णि वंश, अंधक वंश, भोज वंश, हैहय वंश आदि। अब यदुवंश का वर्णन करते हैं। चदु (चार पुत्र) 1. सहस्त्रजित् (जिसमें हैहयवंशी सहस्त्रार्जुन हुआ जिसका वध परशुरामजी ने किया) 2. नल 3. रिपु (नहुष) 4. क्रोष्टु (इस वंश में श्रीकृष्ण का अवतार हुआ) ब्रजिनवान-श्वाहि-रूशेकु-चित्ररथ)-शशिबिंदु-पृथुश्रवा-धर्म-उशना-रूचक ) ज्यामध-विदर्भ (तीन पुत्र) 1. कुश 2. क्रथ 3. रोमपाद (इसके वंश में शिशुपाल हुआ) तथा कृथ का वंश आगे चला क्रथ - कुन्त्ति -ध्रष्टि -निवृति -दशार्ह - व्योम -जीमूत -विकृति- भीमरथ-नवरथ-दशरथ(दृढरथ) शकुनि- करभि-देवरात- देवक्षत्र- मधु (मधुवंश के कारण श्रीकृष्ण का माधव नाम आता है ) - कुरुवंश (कुमारवंश) अनु-पुरुहोत्र-आयु-सात्वत् (सात्वत् वंश कहलाता है) भीम (सात पुत्र जिनमें से केवल चार का वंश चला है) 1. भजमान 2. भजि 3. दिव्य 4. देवावृध (देवावृध के वंश में देवक, उग्रसेन हुए और यही वंश कुकर वंश कहलाया) देवक के चार पुत्र तथा देवकी आदि सात कन्याएं थीं जो वसुदेव को ब्याही थीं। (उग्रसेन के नौ पुत्र तथा पांच कन्याएं थीं जो वसुदेव के भाइयों के लिए ब्याह थीं) 5. महाभोज (इसके भोजवंशी यादव हुए) 6. अंधक (अंधक वंशी यादव हुए) 7. वृष्णि (वृष्णि वंश में जन्म लेने के कारण श्रीकृष्ण का वार्णेय नाम आता है) तीन पुत्र-सुमित्र-अनमित्र-निध्र- (दो पुत्र प्रसेन, सत्राजित)-भंगकार (सत्यभामा इसकी पुत्री थी) 2. युधाजित-अनमित्र-वृष्णि (पृश्नि) दो पुत्र (श्वफल्क-अक्रूर आदि बारह पुत्र) देवमीढ़-शूरसेन, चित्ररथ से विदूरथ-शूर-भजमान-शिनि-स्वयंभोज- हृदीक-तीन पुत्र देववाहु, शतधन्वा, कृतवर्मा) 3 वसुदेव आदि दस पुत्र तथा पृथा (कुंती) आदि पांच पुत्री (वसुदेवजी के चौबीस पत्नियां थीं सभी की संतानें थीं। मत्स्य पुराण के अनुसार बिहार करते समय एक वैश्य कन्या के संयोग से वसुदेव जी से कौशिक नाम पुत्र पैदा हुआ। देवकी से कृष्ण आदि आठ पुत्र तथा सुभद्रा कन्या हुई जिसका विवाह कुंती पुत्र अर्जुन के साथ हुआ। कुन्ती श्रीकृष्ण की बुआ थी। श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानी तथा आठ मुख्य रानियां - रुक्मणी, सत्यभामा, जाम्बवंती, नाग्नजिती (सत्या), कालिंदी, लक्ष्मणा, भद्रा, मित्रविदा थीं। श्रीकृष्ण की प्रत्येक पत्नी से दस-दस संतान हुई। रुक्मणी से प्रद्युम्न आदि दस पुत्र तथा चारूमती नामक कन्या हुई जिसका विवाह कृतवर्मा के पुत्र वली से हुआ। श्रीकृष्ण के पौत्रों की संख्या एक करोड़ एक लाख अस्सी हजार (मत्स्यपुराण) एवं अग्निपुराण के अनुसार एक करोड़ अस्सी हजार थी। उस समय यादवों की संख्या तीन करोड़ अट्ठासी लाख थी, जिनमें साठ लाख तो महावली थे। इन यादवों के एक सौ एक कुल हैं, यह सभी कुल विष्णु से संबंधित कुल रूप में ही विद्यमान थे। विष्णु पुराण के अनुसार यादव कुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले गृहाचार्यों की संख्या तीन करोड़ अठ्ठासी लाख थी। श्रीकृष्ण पुत्र प्रद्युम्न का उसके मामा रूक्मि की पुत्री विदर्भ राजकुमारी रूक्मवती के साथ विवाह हुआ। उससे अनिरुद्ध का जन्म हुआ। अनिरुद्ध का रूक्मि की पौत्री चारूमती से विवाह हुआ तथा उससे वज्रनाभ का जन्म हुआ। श्रीकृष्ण के महाप्रयाण के समय अपने ही वंश का क्षय करने के समय वज्रनाभ की बाल्यावस्था थी। पांडवों के सहयोग से वज्रनाभ पुनः मथुरा मंडल का राजा बना, वज्रनाभ का पुत्र प्रतिबाहु तथा उसका पुत्र सुचारू था। वज्रनाभ ने मथुरा मंडल का राजा बनने के बाद उजड़े हुए मथुरा का पुनरोद्धार किया तथा श्रीकृष्ण की समस्त लीला स्थलों को प्रकट किया। अंत में श्रीमद्भागवत के अनुसार राधाकुंड गोवर्धन के मध्य स्थित उद्धवकुंड-कुसुम सरोवर क्षेत्र में ब्रह्मज्ञानी एवं भगवान के परमभक्त यादववंशी श्री उद्धव जी द्वारा श्रीमद्भागवत का श्रवण करते हुए भगवान श्री कृष्ण स्वरूप में समाहित हो गये। ब्रज की इस प्राचीन यादव जाति के लोग चंद्रवंशीय क्षत्रिय हैं। इसका मूल पुरुष यदु था, जिसके नाम पर इस जाति के लोग यदुवंशी, यादव अथवा जादौ कहे जाते हैं। यदु, ययाति का ज्येष्ठ पुत्र था। इस प्रकार यदुवंशियों का आरम्भिक निवास-स्थल भारत का वह भाग था। यहां उन्होंने दशार्ण, महिष्मती, अवंती, और चेदि के प्रसिद्ध राज्य स्थापित किये थे। यदुवंशियों की एक शाखा के प्राचीन राजा का नाम कार्तवीर्य अर्जुन या सहस्त्रार्जुन था। उसके राज्य का विस्तार नर्मदा से लेकर हिमालय की तराई तक हो गया था। उसके वंशज हैहय वंशी कहलाये और उनकी राजधानी महिष्मती थी।ययाति चंद्रवंश के विख्यात महापुरुष थे। उन्हें भारत का प्रथम सम्राट माना जाता है। उनका शासन देश के विशाल भूभाग पर था। उनकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर थी। विद्वानों के मतानुसार प्रयाग के निकट झूसी और पोहनगांव का क्षेत्र प्रतिष्ठानपुर था। ययाति के पुत्रों के नाम यदु तुर्वसु, द्रदयु, अनु और पुरू थे। ययाति का ज्येष्ठ पुत्र यदु था किंतु वह अपने सबसे छोटे पुत्र पुरू से अधिक स्नेह करते थे। जब ययाति ने वृद्ध होने पर अवकाश ग्रहण किया तब उसने अपने राज्य का प्रधान भाग जिसकी राजधारी प्रतिष्ठानपुर थी, पुरू को दे दिया। पुरू के वंशज कौरव पांडव कहलाये। यटु को दक्षिण-पश्चिम का भाग मिला। द्रदयु को उत्तर-पश्चिम का भाग मिला। तुर्वसु और अनु को राज्य के वे भाग दिये गये यहां अनार्यों का निवास था। अतः वे दोनों क्रमशः यवनों और म्लेच्छों के अधिपति हुए थे। यदुवंशियों ने दक्षिण में बड़ी उन्नति की थी। पुराणों के अनुसार उनका शासन शूरसेन प्रदेश से आनर्त (उत्तरी गुजरात) तक के विशाल भूभाग पर था। प्राचीन मथुरा के आस-पास जो राज्य कायम हुआ, उसका पुराना नाम 'शूरसेन' मिलता है। यदु के वंश में शशविदु एक प्रतापी राजा हुआ। उसका पुत्र मधु यादवों का विख्यात राजा हुआ। यदुंवशी मधु का काल श्रीरामचंद्र अथवा असुर मधु के काल के लगभग हैं। यदुवंशी मधु वैवस्वत मनु की चंद्रवंशी शाखा में 61वीं पीढ़ी में हुआ था, जबकि महाराज श्रीरामचंद्र सूर्यवंशी शाखा में मनु की 65वीं पीढ़ी में हुए थे। मधु का पुत्र श्रीरामचंद्र का समकालीन बतलाया गया है। इससे यही अनुमान होता है कि वाल्मीकि रामायण का मधु ही यदुवंशी मधु था। मधु के वंश में उत्पन्न होने के कारण ही श्रीकृष्ण को 'माधव' कहा जाता है। दूसरे यदुवंशी सात्वत का पुत्र भीम जब। आनर्त देश का राजा था तब अयोध्या में श्रीरामचंद्र का राज्य था हरिवंश पुराण के अनुसार यदु के वंशजों के सात कुल प्रसिद्ध हुए जिनके नाम- 1. भीम 2. कुकुर 3. भोज 4. अंधक 5. यादव 6. दाशार्ह और 7. वृष्णि ।श्रीकृष्ण के जन्म से पहले शूरसेन प्रदेश के कई यादव राज्यों ने अपना संघ बना रखा था जो : 'अंधक-वृष्णि संघ' कहलाता था। अंधक संघ के अधिपति उग्रसेन उस संघीय गण राज्य के अध्यक्ष थे और मथुरा राजधानी थी। इस संघ राज्य के सात मंत्रियों में एक यदुवंशी उद्धव भी थे। उग्रसेन की भतीजी देवकी का विवाह वृष्णि संघ केअधिपति वसुदेव के साथ हुआ था। उनके पुत्र भगवान श्रीकृष्ण थे उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था जिसका विवाह उस काल के सर्वाधिक शक्तिशाली मगध सम्राट जरासंध की दो पुत्रियों के साथ हुआ था। श्रीकृष्ण द्वारा कंस का अंत हुआ। उसका बदला लेने के लिये जरासंध ने यादवों के विरुद्ध अनेक बार भीषण आक्रमण किये थे मगर वह सफल नहीं हो सका तथापि उनसे यादवों की शक्ति का भी बहुत ह्रास हुआ था। अंत में आक्रमणों से बचने के लिये यादवों ने मथुरा छोड़कर सूदूर पश्चिम की ओर जाने का निश्चय किया।मथुरा से निष्क्रमण करने वाले यादवों को राजस्थान के पथरीले और रेतीले भाग में बसना उचित नहीं लगा और वे पश्चिम की ओर बढ़ते हुए आनर्त (उत्तरी गुजरात) और सौराष्ट्र की समतल एवं उपजाऊ भूमि में जाकर बस गये। आनर्त का राजा रैवत बलराम जी का श्वसुर था। अतः लोगों को वहां बसने की सुविधा थी। उन्होंने उस भूभाग में समुद्र के तट पर द्वारिका नामक एक रमणीकपुरी बसाई और उसे अपनी राजधानी बनाया।महाभारत के युद्ध में इस देश के अनेक राज्यों और वहां निवास करने वाली अनेक जातियों का सर्वनाश हुआ था। किंतु द्वारिका का यादव राज्यत्व भी बड़ा शक्तिशाली था। उसका कारण श्रीकृष्ण जैसे युगांतरकारी महापुरुष का कुशल नेतृत्व था। जब श्रीकृष्ण के परलोकगमन का समय आया, तब दुर्दैव से द्वारका के यादवों में भीषण गृह कलह हुआ, जिसके कारण उनमें से अधिकांश आपस में लड़कर मर गये। उस समय वहां वृद्धजन, विधवा स्त्रियों तथा बालकगण ही शेष रहे थे। द्वारका भी समुद्र की लहरों में समा गई।जब अर्जुन को द्वारका के यादवों के उस सर्वनाश का समाचार मिला, तब वह द्वारका जाकर वहां के शेष यादवों को हस्तिनापुर लिवा लाये और उन्हें इन्द्रप्रस्थ और मथुरा मंडल में बसा दिया। इस प्रकार इस क्षेत्र में फिर से यादवों की बस्तियां बस गईं।जरासंध के आक्रमण के कारण जब शूरसेन के यदुवंशियों ने सामूहिक रूप से मथुरा से निष्क्रमण किया था तब उन्होंने पहले पश्चिम में, फिर दक्षिण पश्चिम और बाद में दक्षिण में कई राज्यों की स्थापना की थी। उनमें धुर पश्चिम का द्वारका राज्य सबसे अधिक शक्तिशाली था, जहां श्रीकृष्ण और उनके परिवार वाले अंधक-वृष्णि वंशीय यादवों का शासन था। उस काल में कुछ यादव परिवार भारत के पश्चिमी छोर से हटकर दक्षिणी-पश्चिमी और दक्षिण में जाकर बस थे। उन्होंने महाराष्ट्र, विदर्भ, कर्नाटक यहां तक कि सूदूर दक्षिण के केरल और तमिल प्रदेशों में कई राज्य स्थापित किये थे। 'ऐतरेय ब्राह्मण' के ऐंद्र महाभिषेक प्रसंग में यदुवंशी सात्वतों का निवास दक्षिण बतलाया गया है। डा० कृष्णस्वामी आयंगर ने द्रविड़ देशीय राजाओं के इतिहास का अनुसंधान कर यह प्रमाणित किया है कि यहां के अनेक।राजाओं की परंपरा सात्वत वंशीय श्री कृष्ण से जुड़ जाती है। महीसुर माईसुर के पूर्वोत्तर भाग में राज्य करने वाले। इरून गोवेड नाम तमिल सरदार श्री कृष्ण की 49वीं पीढी में हुआ था।महाराजा यदु के कुल में जन्में श्रीकृष्ण जी के यादवा , (यदुवंशी ) वंशज----जादौं, भाटी , जडेजा, चूड़ासमा ,बनाफर ,जाधव देवगिरि , वाडियार क्षत्रिय हैं । यादवा शब्द का शोधात्मक अध्ययन ----यहां ये उल्लेखित करना आवश्यक है कि भारतीय इतिहासकारों एवं विदेशी लेखकों ने "यादवा या यादव " शब्द को संस्कृति भाषा का शब्द लिखा है जिसका हिन्दी में अनुवाद "जादव या जादों " है।ब्रज भाषा में" य" वर्ण का उच्चारण "ज" बोला जाता है हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने पर पाया गया कि है कि " यादवा या यादव " शब्द का अपभ्रंशरूप 16 वीं - 17 वीं शताब्दी के भक्ति काल में दिखाई देता है। कुछ विद्वानों के अनुसार "यादव" संस्कृति का शब्द है जिसका हिंदी "जादव " है जिससे "जादों " हुआ ।भक्ति रचनाओं में तुलसीदास एवं सूरदास जैसे कवियों ने अपनी श्रेष्ठ रचनाओं जैसे रामायण ,सूरसागर ,आदि में जदुवंश ,जादों ,जदुपति ,जादवपति ,जादोंराय आदि शब्दों का प्रयोग बहुतायत से किया है ।तुलसीदास जी ने रामायण में कुछ इस प्रकार लिखा है--- जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा।। कृष्न तनय होइहि पति तोरा ।। . बचनु अन्यथा होइ न मोरा। इसी प्रकार इस चौपाई में भी यद्धपि के स्थान पर जद्धपि शब्द लिखा गया है । जद्धपि जग दारुन दुःख नाना।सबते कठिन जाति अपमाना ।। इसी प्रकार कुछ अन्य कवियों के छंदों में भी "य"के स्थान पर "ज" शब्दावली का प्रयोग किया गया है जो इस प्रकार है---उग्रसेन नृप के तपत , यह न सभा तुम योग्य।अव मथुरा भेजहु अरहि ,भुव पति जदुकुल योग्य।।तुमसौं कौं रन एरियो , जदुवंश नारद हूं कहो।जवनेस सो सुनि इक्क ,संकु अनीक लै दूत उम्महो।।जिहिं आयकैं मथुरापुरी ,जरदाय जादव बुल्लये ।जव वेश माधव रात, सुब्बहि जानि माधव नै लये।।वसुदेव जादव को तनुज ,रु कृष्ण नामक नाम है।बृंयहू कहो तब विष्णु हो ,मम बेर -बेर प्रनाम है।।हमसों जुगान्तर मैं पूरा मुनि वृद्ध गर्ग यहें कही।जदुवंस मैं बसुदेव ग्रह ,अवतार हरि लैहिऐं सही ।।इतिहास से सिद्ध होता है कि शब्द व्युत्पति के क्रम में यदु ,जादव ,जादों ,यादव सभी एक ही है जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर नए रूप में जाने गए ।वस्तुतः सभी का मतलब एक ही है ।संस्कृत शब्द "यादवा " या 'यादव "का हिन्दी में अर्थ जादों ही है ।सर हैनरी इलियट के अनुसार" जादों "शब्द की उत्तप्ति "यदु और यादव से हुई किन्तु सही रूप से तो जादों ,जदु ,यादव सभी शाब्दिक रूप से समान है और मूलतः" यादव "शब्द के विकृत रूप है ।वेदों एवं पुराणों में मनु, पाणिनी , कौटिल्य जैसे विद्वानों के अलावा भी विख्यात इतिहास लेखक - टॉड , कनिंघम ,रेनॉल्ड्स ,ताजुलमासिर , ग्राउस ,पौलेट , इलियट , पार्जिटर के अतिरिक्त विभिन्न जाने-माने भारतीय इतिहासकारों जिनमे मजूमदार ,रायचौधरी , जगदीश सिंह गहलौत , दशरथ शर्मा ,ओझा जी , प्रो0 इरफान हबीब , हबीबुल्ला , मथुरा के प्रभुदयाल मीतल एवं बाजपेयी तथा विभिन जैन धर्म के इतिहास लेखकों ने भी आधुनिक जादों ,भाटी ,जडेजा ,जाधव आदि को वंशानुगतरूप से मथुरा एवं द्वारिका का "पौराणिक यादव या यदुवंशी " ही माना है ।इसके विस्तृत एवं सटीक प्रमाण भारत सरकार द्वारा लिखवाये गए विभिन्न प्रान्तों उत्तरप्रदेश के (मथुरा ,आगरा ,अलीगढ़ एटा ,मैनपुरी , बुलन्दशहर ) ,राजस्थान के (करौली ,अलवर ,भरतपुर ,धौलपुर ,जैसलमेर ) हरयाणा के (गुणगांव एवं हिसार ) एवं पंजाब , गुजरात एवं महाराष्ट्र के डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स में आज भी मौजूद है जिन्हें कोई बदल नहीं सकता और झुठला भी नहीं सकता । लेकिन सन 1920 के बाद कुछ पशुपालक जातियों ने अपना सामाजिक स्तर ऊंचा उठाने के लिए यदुकुल शिरोमणि वसुदेव -देवकी के पुत्र श्री कृष्ण जी को गौपालक मानते हुए उनके पूर्वज यदु के वंश में अपना मनगढ़ंत इतिहास बना कर अन्य समाजों को भी भृमित कर रहे है जो असत्य है।पौराणिक शुरसैनी "यादवा " एक क्षत्रिय /राजपूत वंश है न कि कोई जाति विशेष ।भाषाविदों के अनुसार यदि "यादव " शब्द के "य"को "ज"में परिवर्तित किया जाता है तो "जादव ",शब्द मिलेगा । यादव और जादव दोनों ही रूप जायज है और अन्तःपरिवर्तनीय है । विभिन्न प्रान्तों के गजेटियर्स जो उन्नीसौ के दशक से पूर्व या बाद में भी लिखे गए है उनमें में भी वर्णित भारतीय वंश एवं जातियों (Tribes &Castes ) का वर्णन किया है जिनके अंतर्गत भी वर्तमान करौली राज्य जादों राजवंश ,जैसलमेर राज्य के भाटी यदुवंशी राजवंश ,देवगिरि राज्य के जाधव/ जादव राजवंश ,कच्छ एवं भुज के जडेजा राजवंश ,जूनागढ़ के चुडासमा ,रायजादा ,रा खगार ,सरवैया राजवंशो, द्वारसमुद्र के होयसल राजवंश ,विजयनगर साम्राज्य के राजवंश , तथा मैसूर के ओड़ियार या बढियार राजवंश के राजाओं के वंशजों को "यादवा या यदुवंशी चन्द्रवंशी क्षत्रिय ही लिखा है ।इन सभी चन्द्रवंशी "यादवा राजवंशों " के विवाह -सम्बन्ध भी स्थानीय एवं दूरदराज के अन्य क्षत्रिय /राजपूतों से हुए है जिनके प्रमाण इतिहास में इंगित भी है ।स्वयं कर्नल जेम्स टॉड नें अनाल्स ऑफ जैसलमेर में भाटी वंश के इतिहास में समस्त यदुवंशियो के लिए यदु और जादों शब्दों का प्रयोग किया है। अनेकों विख्यात भारतीय इतिहासकारों ने भी इन राजवंशों के वंशजों के नाम के साथ "यादव या यदुवंशी " वंश उपनाम भी लिखा है जिसके अनेकों प्रमाण भारतीय इतिहास की पुरातन पुस्तकों में भी इंगित है। शोधों से ये ज्ञात होता है कि इतिहासानुर भक्तिकाल से पूर्व चन्द्रवंशीय क्षत्रिय यदुवंशीयों के लिये "यादवा "शब्द का प्रयोग हुआ है ।यादव कोई जाति विशेष नहीं है ।यह एक पुरातन चन्द्रवंश की एक शाखा है ।कुछ जाति विशेष के कथाकथित इतिहासकारों ने अपने द्वारा लिखी गई अपनी इतिहास की पुस्तकों में अपने मूल वंशजों के इतिहास को न लिख कर यदुवंश में अपना इतिहास समाहित करने का प्रयास कर रहे है जिसे कोई भी समाज उनके अतरिक्त सत्य भी नहीं मानता ।सत्य तो सत्य ही होता है ,उस को असत्य के पर्दे से नहीं छिपाया जा सकता । आजकल यदुकुल में जन्मे श्री कृष्ण के परदादा शूरसेन के भाई के रूप दूसरी वैश्य माता से जन्मे पर्जन्य का नाम गोपों के अधिपति नन्द जी के पिता के रूप में जोड़ कर या उग्रसेन के पिता आहुक का नाम अपने पूर्वजों के नाम के साथ जोड़कर कुछ विशेष समाज के लोग अपना मनगढ़ंत इतिहास बना रहे है जिसका कोई भी प्रमाण मान्यता प्राप्त किसी भी वेद ,उपनिषद तथा पुराणों में कहीं भी नहीं बताया गया है। उनके कथाकथित इतिहासकारों द्वारा लिखित पुस्तकों का अध्ययन करने पर पाया गया है कि उन्होंने बड़ी ही चतुराई से "यादव "शब्द को जातिगत बनाते /मानते हुए वास्तविक यदुवंशियों -करौली के जादों ,जैसलमेर के भाटी ,कच्छ एवं भुज के चुडासमा एवं जडेजाओं , देवगिरि के जादवों ,होयसल एवं विजयनगर के यादवों ,मैसूर के वड़ियारों तथा कलचुरियों ,हैहयों आदि सभी को अपने इतिहास में समाहित कर लिया है जो बिल्कुल असत्य है।इन सभी यदुवंशियों के राजपरिवारों के पास आज भी श्री कृष्ण से आज तक अपने पूर्वजों की जगाओं ,चारणों एवं भाटों द्वारा लिखी हुई वंशावलियाँ भी उपलब्ध है जो वास्तविक वंशज होने का प्रमाण देती हैं । इन कथाकथित इतिहास वेत्ताओं के पास अपनी श्री कृष्ण से जुड़ी कोई भी वंशावली है ही नहीं जिसके आधार पर कृष्ण के वंशज होने का यथार्थ में दावा प्रेषित कर सकें ।सभी भारतीय एवं विदेशी विख्यात इतिहासकारो द्वारा लिखित पुस्तकों एवं विभिन्न प्रान्तों के जनपदों के गजेटियर्स में इनको वही लिखा है जो वे वास्तविक रूप में है ।इनके लिए यादवा या यदुवंशी संबोधन कहीं भी नहीं लिखा है ।सन्धर्व---1-ऋग्वेद -दयानद संस्थान ,दिल्ली2-यजुर्वेद -दयानन्द संस्थान ,दिल्ली3-मनुस्मति -मनु कृत-वेंकटेश्वर प्रेस ,बम्बई4-श्रीमद्भागवत महापुराण -गीताप्रेस ,गोरखपुर5- संक्षिप्त महाभारत-गीता प्रेस ,गोरखपुर6-वायुपुराण 7-विष्णुपुराण8-हरिवंश पुराण9-मत्स्यपुराण10-अग्नि पुराण 11-रामायण तुलसी एवं बालमिक कृत12-सूरसागर महात्मा सुरदास13-राजस्थान का इतिहास -कर्नल जेम्स टॉड14-हिस्ट्री ऑफ दी राजपूत ट्राइब्स -मेटकाल्फ़15-हैंडबुक आफ राजपूतस -कैप्टन बिंगले16-भारत का वृहत इतिहास (भाग 1,2,3)-रमेश चंद्र मजूमदार17-राजपूताने का प्राचीन इतिहास -पं0 गौरीशंकर ओझा18-गजनी से जैसलमेर -हरि सिंह भाटी19-राजपूताने का इतिहास -जगदीस सिंह गहलोत20-यदुवंश का इतिहास - महावीर सिंह यदुवंशी21-ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास प्रथम भाग -प्रभु दयाल मित्तल22-मथुरा -ए डिस्ट्रिक्ट मेमॉयर -ग्रोउस23-ब्रज का इतिहास प्रथम खण्ड-कृष्णदत्त वाजपेयी24-मथुरा जनपद का राजनैतिक इतिहास-प्रो0 चिन्तामणि शुक्ल 25-प्राचीन भारतीय इतिहास का वैदिक युग-,सत्यकेतु विद्याशंकर 26-विद्याभवन राष्ट्रभाषा ग्रंथमाला पुराण -विमर्श -आचार्य बलदेव उपाध्याय27-प्राचीन भारत में हिन्दू राज्य -बाबू बृन्दावन दास28-प्राचीन भारत का इतिहास रमाशंकर त्रिपाठी29-पाणिनीकालीन 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ऐतिहासिक अध्ययन -मोहनलाल गुप्ता49-भरतपुर जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन -मोहनलाल गुप्ता50-जाटों का नया इतिहास -डा0 धर्मे चंद्र विद्यालंकार 51-यदुवंश -गंगा सिंह52-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली 53-हिन्दी विश्वकोश संपादक नागेन्द्रनाथ वसु54-ब्रज संस्कृति विश्वकोशलेखक – डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन गांव-लढोता, सासनी जिला-हाथरस , उत्तरप्रदेश प्राचार्य राजकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001