यदुवंशी जाधव राजपूतों के प्राचीन देवगिरि दुर्ग का इतिहास --
यदुवंशी जाधव राजपूतों के देवगिरि दुर्ग का इतिहास ----
यह स्थान महाराष्ट्र के औरंगबाद जिले में, गोदावरी नदी की उत्तरी घाटी में स्थित है। इसका पूर्वानुमान देवगिरि था, किन्तु मुहम्मद बिन तुगलक ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद रख दिया।
देवगिरि दक्षिण में यादव वंशी राजाओं की समृद्ध राजधानी थी। यादव पहले चालुक्यों के अधीन थे, किन्तु राजा भिलम्म ने 1187 ई. में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करके देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया। उसके बाद सिंघण ने प्रायः सम्पूर्ण पश्चिमी चालुक्य राज्य अपने अधिकार में कर लिया। उत्तर में विंध्य पर्वतों द्वारा सुरक्षित रहने के कारण यह राज्य 11वीं से 13वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य होने वाले विदेशी आक्रमणों से बचा रहा। दुर्भाग्य से तेरहवीं शताब्दी ईस्वी के अन्तिम दशक में इसे तुर्की आक्रमण का सामना करना पड़ा। इस राज्य की सम्पन्नता, समृद्धि एवं विस्तार ने इसे ईर्ष्या का केन्द्र बना दिया था। अलाउद्दीन का समकालीन देवगिरि का शासक रामचन्द्र देव था। 1294 ई. में अलाउद्दीन खलजी ने देवगिरि को लूटा। पहले तो यादव नरेश ने कर देना स्वीकार कर लिया, किन्तु बाद में कर देना बन्द कर दिया। फलस्वरूप 1307 ई. और 1313 ई. में मलिक काफूर ने फिर देवगिरि पर आक्रमण किया। देवगिरि के अन्तिम शासक हरपाल द्वारा स्वतन्त्रता कायम करने पर 1317 ई. में सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। राजा हरपाल राजधानी छोड़कर भाग गया; किन्तु वह पकड़ा गया और उसकी जीवित खाल खिंचवा ली गई। देवगिरि राज्य को जिलों में विभक्त करके तुर्की अफसरों के सुपुर्द कर दिया। मुबारक ने देवगिरि में अनेक मन्दिरों का विध्वंस कियाऔर उनके अवशेषों के एक मस्जिद बनवायी। 1326-27 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक ने देवगिरि को अपनी राजधानी बनाने का निश्चय किया, क्योंकि वह अपने विशाल राज्य की देखभाल के लिए दिल्ली की अपेक्षा देवगिरि को अधिक सुरक्षित राजधानी मानता था। राजधानी परिवर्तन की यह योजना असफल रही और उसे दिल्ली वापस आना पड़ा। कालान्तर में इस पर वहमनी सुल्तानों का अधिकार हो गया।
मुगल सम्राट अकबर द्वारा अहमदनगर विजय के बाद दौलताबाद भी मुगल साम्राज्य का अंग बन गया। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु बुरहानपुर में होने पर उसे दौलताबाद में ही दफनाया गया।
देवगिरि का यादवकालीन दुर्ग एक त्रिकोण पहाड़ी पर स्थित है। किले की ऊँचाई आधार से 150 फुट है। किले की बाहरी दीवार का घेरा पौने तीन मील का है। किले में कुल आठ फाटक हैं। इस दुर्ग में एक अंधेरा भूमिगत मार्ग भी है। इस मार्ग में कहीं-कहीं गहरे गड्ढे भी बने हुए थे, जो शत्रु को धोखे से गहरी खाई में गिराने के लिये पर्याप्त थे। किले की पहाड़ी में कुछ अपूर्ण गुफाएँ भी हैं, जो एलोरा गुफाओं के समकालीन हैं। यादवकालीन इमारतों के अधिकांश अवशेष समाप्त हो चुके हैं। यहाँ प्रमुख मुस्लिम स्मारक हैं-चाँद मीनार, चीनी महल व जामा मजिस्द ।चाँद मीनार 210 फुट ऊँची और आधार के पास 70 फुट चौड़ी है। इसका निर्माण सुल्तान अलाउद्दीन बहमनी ने किले की विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। यह मीनार दक्षिण भारत की मुस्लिम वास्तुकला की सुन्दरतम् कृतियों में से एक है।
दक्षिण के इस मुख्य नगर एवं दिल्ली के बीच सीधा संचार सम्बन्ध डाक चौकियों के माध्यम से था। यहाँ के निवासी अधिकतर व्यापारी थे, जो रत्नों का व्यापार थे, करते थे। याहाँ अनार तथा अंगूर बहुत पैदा होते थे। यह सूती वस्त्र के निर्माण का भी केन्द्र था। यहाँ के रंग-बिरंगे वस्त्रों की तुलना अमीर खुसरो ने रंग-बिरंगे फूलों से की है। यहाँ की अनेक प्रकार की व्यापारिक बस्तियों का उल्लेख भी तत्कालीन साहित्य में मिलता है।
लेखक -डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लाढोता ,सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रपदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि मृदा विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राज
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