भाद्रमास के रोहिणी नक्षत्र में अष्टमी तिथि को ही क्यों जन्मे जदुकुल शिरोमणि श्रीकृष्ण --



भाद्रमास के रोहिणी नक्षत्र में अष्टमी तिथि को ही क्यों जन्मे जदुकुल शिरोमणि श्रीकृष्ण    -----

श्री कृष्ण जी का जन्म क्षत्रियों के  चंद्रवंश में  यदुकुल शाखा में हुआ था।इनके पिता वसुदेव जी वृष्णि शाखा के अधिपति शूरसेन के पुत्र थे जो बटेश्वर के शासक थे ।माता देवकी जी यदुवंश की अंधक शाखा के अधिपति उग्रसेन के छोटे भाई देवक की पुत्री थी जो मथुरा के शासक थे।इनके कुलगुरु गर्गाचार्य थे जिन्होंने श्री कृष्ण जी का नामकरण संस्कार किया था।
नन्दजी एवं यशोदा जी भगवान श्रीकृष्ण जी के पालक माता -पिता थे जो गोकुल में गोप /ग्वालों के अधिपति थे ।

यदुकुल शिरोमणि वासुदेव श्री कृष्ण के जन्म एवं नामकरण -संस्कार के विषय में जानें---

वसुदेवस्य तनयो यदोवंशसमुद्दव : ।
मुचुकुंदोअपि तत्रासौ वृद्ध गागर्य वचोत्स्मरत।।

पुरा गार्ग्यऐंन  कथितमष्टा विंशतिमे युगे ।
द्वापरान्ते हरेजन्म यदुवंशे भविष्यति ।।

मैं चन्द्रवंश के अंतर्गत यदुकुल में वसुदेव जी के पुत्ररूप में उत्तपन्न हुआ हूँ ।मुचुकुंद जी ने कहा कि पूर्व काल में गार्ग्य मुनि ने कहा था कि अट्ठाईसवें युग में द्वापर के अन्त में यदुकुल में श्री हरिका जन्म होगा ।( विष्णु पु0 पंचम अंश ,पेज 381)


अवतीरणों यदुकुले गृह आनकदुन्दुभे:।
वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम ।।

ब्रह्मा जी की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेव जी के यहां अवतार ग्रहण किया है ।अब मैं वसुदेव जी का पुत्र हूँ ,इस लिए लोग मुझे "वासुदेव "कहते है (श्रीमद्भावत ,दशम स्कन्ध ,पेज 383) ।

गर्ग जी के द्वारा नामकरण ---
 
अथ शूरसुतो राजन पुत्रयो  समकारयत ।
पुरोधसा ब्राह्मनैश्च यथावद दिव्जसंस्कृतिम ।।
ततश्च लब्धसंस्कारौ दिवजत्वं प्राप्य सुव्रतौ ।
गर्गाद यदुकुलाचार्याद गायत्रं व्रतमास्थितौ ।।

इसके बाद वसुदेव जी ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणों से दोनों पुत्रों का मथुरा में भी विधिपूर्वक द्विजाति -समुचित यज्ञापवीत संस्कार करवाया ।इस प्रकार यदुवंश के आचार्य गर्ग जी से संस्कार कराकर बलराम जी और श्री कृष्ण जी द्विजत्व को प्राप्त हुए (श्रीमद्भभागवत ,दशम स्कन्ध ,पेज 346)

गर्ग : पुरोहितो राजन यदुनां सुमहातपा :।
ब्रजमं जगाम नंदस्य वसुदेव प्रचोदित :।।

यदुवंशियों के कुल-पुरोहित थे श्री गर्गाचार्य जी ।वे बड़े तपस्वी थे ।वसुदेव जी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्द गोप के गोकुल में आये ।नन्द जी ने बहुत सत्कार किया और कहा कि ब्रह्मावेत्ताओं में श्रेष्ठ है ,इस लिए मेरे इन दोनों बालकों के नामकरणादि  संस्कार आप ही कर दीजिये । 
यदूनामहमाचार्य :ख्यातश्च भुवि सर्वत :।
सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम ।।

कंस :पापमति सख्यं तव चानकदुन्दुभे :।
देवक़्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुम हरति ।।

गर्ग जी ने कहा -नन्द जी ।मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ ।यदि मैं तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा,तो लोग समझेंगे कि यह देवकी का पुत्र है ।कंस की बुद्धि बुरी है ,वह पाप ही पाप सोचता है ।वसुदेव के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करदू  और वह इस बालक को वसुदेव जी का पुत्र समझकर मार डाले ,तो हमसे बड़ा अन्याय हो जायगा ।

अलक्षितोअस्मिन रहसि मामकैरपि गोव्रजे ।
कुरु दिवजातिसंस्कारम स्वस्तिवाचन पूर्वकम ।।
आचार्य जी ।आप चुपचाप इस एकान्त गोशाला में केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालक का द्विजातिसमुचित नामकरण-संस्कारमात्र कर दीजिये ।औरों की कौन कहे ,मेरे सगे-सम्बन्धी(गोप बन्धु) भी इस बात को न जानने पावें ।गर्गाचार्य जी तो संस्कार करना ही चाहते थे ।जब नन्द जी ने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की ,तब उन्होंने एकान्त में छिपकर गुप्तरूप से दोनों बालकों का नामकरण -संस्कार कर दिया (श्रीमद्भगवत ,दशम स्कन्ध ,पेज 145-46)

यदुनैवं महाभागो ब्राहानयेन सुमेधसा ।
पृष्ट :सभाजित : प्राह प्रश्रयावन्तं द्विज :।।

उद्धव हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके ह्रदय में ब्राह्मण-भक्ति थीं ।(श्रीमद्भावत , पेज 631)


श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ-अवसर पर मैं यदुकुल शिरोमणि योगीश्वर देवकीनंदन वासुदेव श्री कृष्ण जी को बारम्बार प्रणाम करता हूँ।

  "जयति तेधिकं जन्मना ब्रज: श्रयत इंदिरा शश्वदत्रहि।"
        (श्रीमद्भागवत )
   हे कृष्ण , यहां पर तेरे जन्म लेने के कारण ही इस ब्रजभूमि का महत्व इतना बढ़ गया है कि यहाँ श्री का चिरंजन निवास हो गया है।
    
श्री कृष्ण संसार में अवतीर्ण होकर धर्म का परि पालन के साथ सरल और सहज जीवन बिताने का मार्ग दिखाते है ।उनके नामस्मरण से ही मोक्ष सुनिश्चित है ।कृष्ण शब्द की व्युत्प्टि ब्रह्मवैवतरपुरा में कई प्रकार से दर्शाई गई है ।कृष्ण शब्द में तीन अक्षर विद्यमान है ।जैसे कृष +ण+अ।इनमे कृष का अर्थ है "उत्कृष्ट ,ण का अर्थ है "उत्तम भक्ति "और अ का अर्थ है देने वाला ।अर्थात उत्कृष्ट भक्ति को जो देता है या जगाता है वही "कृष्ण"है।

कृष्णम नारायणम वन्दे कृष्णम वन्दे व्रज प्रियम।
कृष्णम दैवेपायनम वन्दे कृष्णम वन्दे प्रथासुतम।।
 
 कृष्ण शब्द में ही दो अक्षर कृष +ण मानकर पुराणों में जो अर्थ बताया गया है उसके अनुसार कृष का अर्थ है "परम आनंद और ण का अर्थ है दास्य कर्म अर्थात सेवा ।कृष्ण शब्द का अर्थ होगा परम आनंद और सेवा का अवसर ,इन दोनों को देने बाला ही कृष्ण है ।

   कृष्ण शब्द की तीसरी व्युप्तति बताते है कि कृष का अर्थ है कोटि जन्म से अर्जित पापों का क्लेश और ण का अर्थ है उन सब पापों को दूर करने वाला ।कोटि जन्मों से किये हुये पापों को दूर करने वाला ही कृष्ण है ।

  शास्त्रो में कृष्ण नाम के उच्चारण का फल भगवान् विष्णु केहजार नामों को तीन बार दोहराने के बराबर मिलता है ।वैदिक विद्धवान् कहते है कि सभी नामों से कृष्ण का नाम बड़ा है ।जिसके मुख से कृष्ण नाम का उच्चारण किया जाता है उसके सारे पाप स्वतः ही भस्मसात हो जाते है ।

   भागवत का उदेश्य है कि कृष्ण तत्व को दर्शाना ।श्री कृष्ण परब्रह्मा भगवान् विष्णु के अवतार माने जाते है ।इस अवतार के लिए मास ,योग्य तिथि व् नक्षत्र का चयन भगवान् कृष्ण ने बहुत सोच -विचार कर किया था ।

   रोहिणी नक्षत्र ---भगवान् श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मैं देवकी के गर्भ से जन्म लेरहा हूँ तो रोहिणी के सन्तोष के लिए कम -से -कम रोहिणी नक्षत्र में जन्म तो लेना ही चाहिए ।अथवा चन्द्रवंश में जन्म लेरहा हूँ ,तो चन्द्रमा की सबसे प्यारी पत्नी रोहिणी में ही जन्म लेना उचित है ।यह सोचकर भगवान् ने रोहिणी नक्षत्र में जन्म लिया ।

भाद्रमास ---भद्र अर्थात कल्याण देने वाला है ।कृष्णपक्ष स्वयं कृष्ण से सम्बद्ध है ।अष्टमी तिथि पक्ष के बीचों बीच सन्धि -स्थल पर पड़ती है । जयंती नामकरात्रि  थी जो योगीजनों को प्रिय है और विजय नामक  मुहूर्त था । निशीथ यतियों का संध्याकाल और रात्रि दो भागों की सन्धि है ।उस समय श्रीकृष्ण के आविभार्व का अर्थ है --अज्ञान के घोर अन्धकार में दिव्य प्रकाश ।निशानाथ चंद्र के वंश में जन्म लेना है ,तो निशा के मध्यभाग में अवतीर्ण होना उचित भी है ।अष्टमी के चंद्रोदय का समय भी वहीँ है ।यदि वासुदेव जी मेरा जातकर्म नहीं कर सकते तो हमारे वंश के आदिपुरुष चंद्रमा  समुद्रस्नान करके अपने कर -किरणों से अमृत वितरण करें ।

ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमन की वर्षा करने के लिए मथुरा की ओर दौड़े ,तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा ।उन्होंने अपने निरोध और बाध सम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मन को श्रीकृष्ण की ओर जाने के लिए मुक्त कर दिया ,उन पर न्योछावर कर दिया।

 मेघ समुद्र के पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहते है --जलनिधे!यह  तुम्हारे उपदेश काफल है कि हमारे पास जल-ही जल हो गया ।अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान रहते है ,वैसे हमारे भीतर भी रहें।

बादल समुद्र के पास जाते हैं और कहते है---
कि हे समुद्र तुम्हारे ह्रदय में भगवान रहते है ।हमें भी उनका दर्शन -प्यार प्राप्त करवा दो।समुद्र उन्हें थोड़ा सा जल देकर कह देता --अपनी उत्ताल तरंगों से ढकेल देता ---जाओ अभी विश्व की सेवा करके अन्तःकरण शुद्ध करो ,तब भगवान के दर्शन होंगे ।स्वयं भगवान मेघश्याम बन कर समुद्र से बाहर ब्रज में आ रहे है ।हम धूप से उनपर छाया करेंगे ,अपनी फुइंयां बरसा कर जीवन न्योछावर करेंगे ।अपने इस सौभग्य का अनुसन्धान करके बादल समुद्र के पास पहुंचे और मन्द -मन्द गर्जना करने लगे।मन्द -मन्द इस लिए कि यह ध्वनि प्यारे श्री कृष्ण जी के कानों तक न पहुंच जाय।

शेषजी छत्र बन कर क्यों चले-----

बलराम जी शेषनाग के अवतार थे उन्होंने श्रीकृष्ण जी से पहले ही माता रोहिणी के गर्भ से जन्म ले लिया था ।वेसे बलराम जी देवकी जी के सातवें गर्भ में ही थे किन्तु भगवान विष्णु की आज्ञा से योगमाया ने इनको देवकी जी के गर्भ से रोहिणी जी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया था।बलरामजी ने विचार
किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या ,सेवा ही मेरा मुख्य धर्म है ।जब वसुदेव जी भगवान को यमुना जिमें होकर ले जारहे थे उस समय बादल प्रभु के आगमन व दर्शन की खुशी में धीरे -धीरे गरज करजल  की फुहारें छोड़ रहे थे ,इस लिए बलराम जी अपने शेषरूप से अपने प्रभु श्री कृष्ण जी के छत्र बनकर जल का निवारण करते हुए चले अर्थात शेष जी अपने फनों से जल को रोकते हुए भगवान केपीछे -पीछे चलने लगे।बलराम जी ने सोचा कि मेरे रहते मेरे स्वामी को वर्षा से कष्ट पहुंचा तो मुझे धिक्कार है ।इसलिए उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया ।अथवा उन्होंने सोचा कि ये विष्णुपाद (आकाश) वासी मेघ परोपकार के लिए अधः पतित होना स्वीकार कर लेते है ,इस लिए बलि के समान सिर से वन्दनीय है।

  भाद्रपद मास ,कृष्णपक्ष ,रोहिणी नक्षत्र ,दर्पण योग ,तथा बृष लग्न में अष्टमी तिथि को आधीरात के समयचंद्रोदय -काल में ,जबकि जगत में अन्धकार छा रहा था ,वसुदेव -मंदिर में देवकी के गर्भ से  श्रीवत्स चिन्ह से विभुषित अन्यान्य दिव्य लक्षणों से अलंकृत साक्षात श्रीहरि प्रकट हुये।

योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय व्रतियों की चेतना हर ली ,वे सब -के-सब अचेत होकर सो गये। बन्दीगृह के सभी दरवाजे बन्द थे ।परन्तु वसुदेव जी भगवान श्री कृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुंचे त्यों ही वे सब दरवाजे ,ताले ,जंजीरें आप -से आप खुल गए।ठीक वैसे ही जैसे सूर्योदय होते ही अंधकार दूर हो जाता है।वेसे जिनके नाम -श्रवण मात्र से असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध -बन्धन ध्वस्त हो जाते है ,वे ही प्रभु जिसकी गोद में आ गये ,उसकी हथकड़ी -बेड़ी खुल जाय,इसमें क्या आश्चर्य है ?

श्रीकृष्ण शिशु को अपनी ओर आते देख कर यमुना जी ने विचार किया  ---
1 -अहा!जिनके चरणों  की धूलि सत्पुरुषों के मानस -ध्यान केविषय है ,वे ही आज मेरे तट पर आ रहे है ।वे आनन्द और प्रेम से भर गयीं ।आखों से इतने आँसू निकले कि बाढ़ आगयी।
2-मुझे यमराज की बहिन समझ कर श्री कृष्ण अपनी आँख न फेर लें,इस लिए वे अपने विशाल जीवन का प्रदर्शन करने लगीं 
3-वे गोपालन के लिए गोकुल जा रहे है ,ये सहस्त्र -सहस्त्र लहरियाँ  गौएँ ही तो है।ये उन्हीं के समान इनका भी पालन करें।
4-एक कालियनाग तो  मुझ में पहले से ही है,यह दूसरे शेष नाग भी आ रहे है ।अबमेरी क्या गति होगी --यह सोच कर यमुना जी अपने थपेड़ों से उनका निवारण करने के लिये बढ़ गयी।
मेघ भगवान के आगमन की खुशी में भयंकर रूप से बरस रहे थे ।यमुना जी बहुत बढ़ गयीं थी ।उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था।तरल तरंगोंके कारण जल पर फेन - ही -फेन हो रहा था ।सैकड़ों भयानक भंवर पड़ रहे थे ।जैसे भगवान रामको  समुद्र ने मार्ग देदिया उसी प्रकार यमुना जी ने भी ये सोचते हुये मार्ग दे दिया -- 
१-एकायक यमुना जी के मन में विचार आया कि मेरे अगाध जल को देख कर कहीं श्री कृष्ण यह न सोच लें कि मैं इसमें खेलूंगा कैसे ,इस लिए वे तुरन्त कहीं कंठभर ,कहीं नाभि भर और  कहीं घुटनों तक जल वाली  हो गयीं।
२-जैसे दुखी मनुष्य दयालु पुरुष के सामने अपना मन खोल कर रख देता है ,वैसे ही कालियनाग से त्रस्त अपने ह्रदय का दुःख निवेदन कर देने के लिए  यमुना जी ने भी अपना दिल खोल कर भगवान श्री कृष्ण के सामने रख दिया।
३-मेरी नीरसता देख कर श्री कृष्ण कहीं जलक्रीड़ा करना और पटरानी बनाना अस्वीकार न कर दें ,इस लिए वे उछलता छोड़कर बड़ी विनय से अपने ह्रदय की संकोचपूर्ण रसरीति प्रकट करने लगीं।
४ -जब इन्होंने सूर्यवंश में रामावतार ग्रहण किया था ,तब मार्ग न देने पर चन्द्रमा के पिता समुद्र को बाँध दिया था ।अब ये चन्द्रवंश में प्रकट हुए है और मैं सूर्य की पुत्री हूँ ।यदि मैं इन्हें मार्ग न दूँगी तो ये मुझे भी बाँध देंगे।इस डर से मानो यमुनाजी दो भागों में बट गयीं।
५-सत्पुरुष कहते हैं कि ह्रदय में भगवान के आ जाने पर अलौकिक सुख होता है ।मानो उसी का उपभोग करने के लिए यमुना जी ने भगवान को अपनेभीतर लेलिया।
६- मेरा नाम कृष्णा ,मेरा जल कृष्ण ,मेरे बाहर श्री कृष्ण है।फिर मेरे ह्रदय में उनकी स्फूर्ति क्यों न हो ?ऐसा सोच कर मार्ग देने के बहाने यमुना जी ने श्री कृष्ण को अपने ह्रदय में ले लिया।

   श्रीकृष्ण जन्म और उससे जुडी हुई संख्या 8 का महत्व स्फुरित होगा ।कृष्ण के अवतार से पहले मत्स्य और कूर्म आदि 7 अवतार भगवान् विष्णु के माने जाते है ।यह कृष्णवतार विष्णु के 10 अवतारों में से आठवां है ।इतना ही नहीं ,देवकी और वासुदेव की आठवीं संतान के रूप में श्री कृष्ण का जन्म हुआ ।कृष्ण को परतत्व समझ कर उनसे प्रेम करने वाली राधा जी का भी जन्म भाद्रपद शुक्ल अष्टमी तिथि को ही हुआ ।क्या चमत्कार है यह आठ की संख्या जो कि अचेतन है ,फिर भी कृष्णआनुग्रह से मुख्यतत्व प्राप्त कर धन्य हो गई ।कृष्ण का संकल्प है कि वे साधुजनो की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए तथा धर्म के प्रतिष्ठान के लिए हर युग में जन्म लेते है ।इस संकल्प को वेदव्यास ने भी भागवत में आठवें श्लोक के रूप में दर्शाकर इस संख्या के महत्व को और बढ़ा दिया ।

    आमतौर पर सात समुद्र ,सात वर्ण ,सात लोक ,सात पर्वत ,सात ऋषि तथा संगीत शास्त्र में सप्तस्वर आदि ही प्रसिद्ध है ।जब कोई भी पदार्थ सात तक पहुँचता है तो उसे उस पदार्थ की चरम सीमा मानी जाती है ।ऐसी दशा में जब कोई आठवाँ कोई होगा तो वह परमब्रह्म ही माना जाता है ।यही कारण है कि श्री कृष्ण ने अपने जन्मतिथि के रूप में अष्टमी को ही चुना ।इसी लिए अपने गुरुजनो से उपदेश पाकर लोग भी अष्टाङ्ग योग और अष्टाङ्ग नमस्कार आदि को अपनाते है ।

   सर्वलोकहितकारी श्रीकृष्ण जी ने जन्म के समय अपने पिता वासुदेव जी को अपना वास्तविक रूप दिखा कर मोहित किया ।भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों का जो बर्णन किया गया है उससे पता चलता है कि आदर्श उत्तम पुरुष के लक्षण ।यहाँ महर्षि वेद व्यास 64 गुणों का वर्णन करते है ,जो संख्या भी आठ से आठ का गुड़नफल ही है ।श्रीकृष्ण के सखाओं की संख्या देखेंगे तो भी आश्चर्य होगा कि वह भी आठ ही है ।उज्जवलनीलमणि नामक ग्रन्थ में भी इनकी प्रियाओं में भी राधा जी ,चन्द्रावली आदि आठ सखियाँ ही मुख्य रूप से दर्शायी गई है ।श्रीकृष्ण की पत्नियों की संख्या तो सोलह हजार एक सौ आठ थी ।लेकिन उनमें से भी रुक्मिणी जी ,सत्यभामा जी ,जाम्बन्ती ,कालिंदी ,मित्रविन्दा ,नाग्नजिते,भद्रा ,और लक्ष्मणा जी नाम की आठ पत्नियां ही प्रमुख थी ।

कृष्ण  ,भक्ति और शरणागति से प्राप्त होते है ।सामान्य जन भी उन्हें अपनी आंतरिक पुकार से प्राप्त कर सकता है ।भगवान् श्री कृष्ण ने संसार को भक्ति और मैत्री के महत्व को अपने आचरण से सिखाया है जिसका अनुपालन हमें करना है ।जिनके नाम -श्रवण मात्र से असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध -बंधन ध्वस्त हो जाते है ,वे ही प्रभु जिसकी गोद में आ गये ,उसकी हथकड़ी -बेड़ी खुल जाय ,इसमे क्या आश्चर्य है ।

लीलापुरुषोत्तम भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरा में वासुदेव जी के घर ,परन्तु वहां रहे नही ,वहां से गोकुल में नंदबाबा के घर चले गये ।वहां अपना प्रयोजन --जो ग्वाल ,गोपी और गों ओं को सुखी करना था --पूरा करके मथुरा लौट आये ।व्रज में गोकुल में भगवान् श्री कृष्ण 3 वर्ष 4 माह ,वृंदावन में 3 वर्ष 4 माह ,नंदगांव में 3 वर्ष 4 माह  ,मथुरा में 18वर्ष 4 माह  तथा द्वारिका में 96 वर्ष 8 माह  रह कर अनेकों शत्रुओं का संहार किया ।इस प्रकार श्री कृष्ण भगवान् ने जब अर्जुन को श्रीमद् भगवत गीता का उपदेश दिया था जब उनकी अवस्था 90 वर्ष की थी ।16 हजार 1 सौ आठ रानीओ से विवाह करके 1 लाख 61 हजार 80 पुत्र और 16 हजार 1 सौ 8 कन्याओ सहित कुल 1 लाख 70 हजार 1 सौ 88 संतानें  उत्पन्न किये ।साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली अपनी वानीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिए अनेकों यज्ञों के द्ववारा स्वयं अपना ही यजन किया ।कौरव और पांडवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत सा भार हल्का कर दिया तथा युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत -सी अक्षोहिनिओं को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया ।फिर उद्धव को आत्मतत्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परम धाम को सिधारे तब उनकी अवस्था 125 वर्ष की थी ।

   वेदांतदेशिक प्रार्थना करते हुए कहते है कि "नाथायैव नमः पदम् भवतु नः "अर्थात भगवान् श्री कृष्ण के लिए हमारे पास समर्पित करने के लिए मात्र "प्रणाम "ही है ।

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनंदनाय च ।

नंदगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः।।

जो वसुदेव के पुत्र और देवकीनन्दन होने के साथ ही नन्दगोप के भी कुमार है ,उन सच्चिदानंद स्वरूप गोविन्द को वारमम्बार नमस्कार ।

जय यदुवंश ।जय श्री कृष्ण ।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव -लढोता ,सासनी 
जनपद-हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
एसोसिएट प्रोफेसर 
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय , सवाईमाधोपुर , राजस्थान ।

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