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Showing posts from April, 2021

मध्यकाल में यदुवंशी जादों क्षत्रियों के पुरातन राज्य--

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मध्यकाल में यदुवंशी क्षत्रियों  (जादों) के राज्य-- 1-महावन का यदुवंशी राज्य-- हिमालय की तराई के जंगलों से होती हुई  महमूद गजनवी की तुर्क सेनाओं ने यमुना नदी को भी पार कर लिया।अब वे दक्षिण की ओर अग्रसर हुई , और मथुरा के क्षेत्र में स्थित महावन नगर को उन्होंने संवत 1074 ई0सन 1018 में आक्रान्त कर लिया।यह प्रदेश यदुवंशी क्षत्रियों के शासन में था, और इस समय वहां का राजा कुलचन्द था।उसने वीरतापूर्वक महमूद का सामना किया , पर तुर्कों की गति को अवरुद्ध करने में उसे भी सफलता प्राप्त नहीं हुई ।उस युद्ध में कुलचन्द की मृत्यु हुई और उसका विशाल सैन्य दल एवं राज्य नष्ट हो गया । महावन को जीत कर महमूद ने मथुरा पर आक्रमण किया ।यह नगरी उस समय भी हिन्दू धर्म का महत्वपूर्ण केन्द्र थी।बीस दिन तक तुर्क सेनाएं मथुरा को लुटती रही।वहां के मंदिरों का उन्होंने बुरी तरह से विनाश किया , और उनके सोना -चाँदी आदि को लूट कर गजनी ले जाया गया ।मथुरा का प्रदेश इस काल में सम्भवतः दिल्ली के तोमर राजाओं के राज्य क्षेत्र में था , पर वे न थानेसर की तुर्कों से रक्षा कर सके थे और न मथुरा की।मथुरा को हस्तगत कर महमूद ने पूरब में कन

मथुरा के यदुवंशी जादों (पौराणिक यादव ) क्षत्रिय राजवंश का ऐतिहासिक अध्ययन---

मथुरा के यदुवंशी जादों (पौराणिक यादव) क्षत्रिय राजवंश का ऐतिहासिक अध्ययन- -- क्षत्रिय वर्ण से सम्बन्ध ब्रज प्रदेश में प्राचीन काल से निवास करने वाली जातियों में यादवों  (आधुनिक जादों ,भाटी , जडेजा ,बनाफर , जाधव , चुडासमा , वाडियार ) का नाम उल्लेखनीय है । यादवों के मूल पुरुष यदु थे , जिनके नाम पर उनके वंशज यदु, यदुवंशी , यादव  अथवा जदु,जादव,  जादू ,जादों कहे जाते है ।यदु चन्द्र वंश के विख्यात सम्राट ययाति के ज्येष्ठ पुत्र थे जिनका प्राचीन ग्रंथों में विस्तृत वर्णन किया गया है।सबसे अधिक सर्व मान्य ग्रन्थ वेद व्यास जी द्वारा लिखित महाभारत एवं श्रीमद्भागवत में यादवों के विषय में विस्तार से वर्णन किया गया है । श्रीमदगीता में भी यादव शब्द का अर्जुन द्वारा श्री कृष्ण जी के लिये उद्वोधन किया गया है। "सखेति मत्व प्रसभं यदुक्तंम हे कृष्ण !हे यादव है सखेति । अजानता महिमानम तवेदां मया प्रभादात्प्रणयेन वापि ।। (श्रेमदगीता श्लोक 41 अध्याय -11) इस प्रकार श्रीमदगीता में भी श्री कृष्ण को हे यादव ,हे सखे  , के नाम से सम्बोधित किया गया है । इस प्रकार "यादव"शब्द संस्कृत का शब्द है

महाराजा सर भंवरपाल देव बहादुर यदुकुल चन्द्र भाल का शासनकाल करौली में सतयुग की संज्ञा---

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  महाराजाधिराज  सर भंवरपाल देव बहादुर ,यदुकुल -चन्द्र भाल  का शासनकाल करौली के सतयुग की संज्ञा-- - --- महाराजा अर्जुनपाल के 1886 में देहान्त होने के बाद भंवर पाल जी  करौली के राजा बने ।महाराजा अर्जुन पाल जी के समय भंवरपाल जी हाडौती के राव थे और इनके नजदीकी भतीजे थे। |इनका जन्म 24 फरवरी 1864 को हुआ था।इनके पिता पदमपुरा के ठाकुर दुर्जनपाल थे ।इनका करौली में 14 अगस्त 1886 को राज्यभिषेक गोपाल मन्दिर में हुआ था । ई0 18 48 में प्रतापपाल के देहांत के बाद से लेकर सन 1886 ई0 में भंवरपाल जी के गद्दी पर बैठने तक भंवरपाल करौली के लगातार छठे ऐसे शासक थे जो राजा थे जो राजा का पुत्र न होकर कहीं दूसरे ठिकाने से गोद लिए जाकर करौली के राजा बने ।इनके शुरुआती समय में करौली रियासत के प्रशासनिक अधिकार पोलिटिकल एजेंट के अधीनस्थ रियासत की कौन्सिल के अधिकार क्षेत्र में ही रहे ।लेकिन जून 1887 को कुछ विशेष परिस्थितियों में महाराजा को कुछ अधिकार दिए गए।सन1889 में रियासत ने सम्पूर्ण  कर्ज चुका दिया और महाराजा भंवरपाल जी को शासन के पूर्ण अधिकार 7 जून 1889 को मिले थे | इनके शासनकाल में करौली रियासत का क्षेत्रफल

करौली के महानतम शासक गोपाल सिंह द्वितीय एवं करौली का विकास ---

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करौली के महानतम  शासक गोपाल सिंह द्वितीय एवं करौली का विकास -- करौली के इतिहास में महाराजा गोपालदास जी के 135 वर्ष  बाद सन 1724 में  सर्वाधिक प्रभावशाली एवं इकबाल बुलन्द शासक महाराजा गोपालसिंह जी द्वितीय रहे थे। ये महाराजा कुंवरपाल जी के ज्येष्ठ पुत्र थे।अपने पिता के देहांत के बाद सन 1724 ई0 विक्रम   ‎सं0 1781 में दिल्ली साम्राज्य के सम्राट मुहम्मदशाह के शासनकाल में गोपाल सिंह यदुकुल चन्द्रभाल  अबोध अवस्था में करौली की गद्दीनशीन हुए।राजगद्दी पर बैठने के समय ये नाबालिग थे । इस समय दिल्ली के बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हो चुकी थी और दुर्बल बादशाह मुहम्मद शाह का शासन था ।मरहठों के उत्पात दिनों दिन अत्यधिक बढ़ रहे थे ।वे दिल्ली की ढिलमिल राजनीति पर मराठा अपना प्रभुत्व जमाना चाहते थे।यह देख कर सम्वत 1781 में यानी सन 1732 ई0 में बादशाह मुहम्मद शाह ने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह जी को मालवा का सुवेदार बना दिया ।इनके दमन हेतु महाराजा गोपाल सिंह  भी गए ।परन्तु ये मरहठों को रोकने में असफल रहे।गोपाल सिंह के नाबालिग काल में राज्य प्रबन्ध  मेवाड़ के दो योग्य ब्राह्मणों खंडेराव ओर नवलसिंह के हाथ में था ।इन

करौली के महानतम शासक एवं संस्थापक महाराजा अर्जुनदेव तथा उनकी संतति--

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करौली महानतम शासक एवं संस्थापक महाराजा अर्जुनदेव तथा उनकी संतति -- तिमनगढ़ पतन के बाद वहां के यदुवंशी शासक कुँवरपाल का कोई भी उत्तराधिकारी उस समय यह दुर्ग एवं अपना खोया हुआ पैतृक राज्य पुनः प्राप्त नहीं कर सका।इस कारण सन 1196 ई0 से 1327ई0 तक का इस वंश का तिथिक्रम संदिग्ध है तथा उपलब्ध भी नहीं है । मध्यकाल में इस क्षेत्र पर यवनों का आधिपत्य रहा जिससे भारी अशांति ,अत्याचार एवं हिंसा का माहौल रहा ।  ख्यातों के अनुसार अर्जुनदेव ई0 1325 तदनुसार विक्रम संवत 1383 हिजरी 754 में मध्यभारत के किसी राज घराने  (सम्भवतः कुछ इतिहासकारों के अनुसार अंधेर कोटला ,रीवा रियासत ) के आश्रय में रहते थे ।मंडरायल एवं सबलगढ़ के पास के क्षेत्र में यवनों का शासन था ।परन्तु यहां पर डोर एवं परमार राजपूतों का बाहुल्य तथा प्रभाव था ।मंडरायल में एक फीसदी पर दुर्ग था जिसे इनके पूर्वज राजा विजयपाल बयाना के पुत्र मदनपाल ने बनवाया था , उन्ही के नाम पर इस नगर व किले का नाम मंडरायल पडा ।इस दुर्ग में मखन शाह नामक यवन सुवेदार रहा करता था ।यह बड़ा दुराचारी ,अत्याचारी एवं आलसी व्यक्ति था । एक किवदन्ती के अनुसार अर्जुनदेव और उनका

दास्ताने पारस पत्थर ,नटनी की छतरी एवं वीराने खण्डहर दुर्ग तिमनगढ़--

दास्ताने पारस पत्थर , नटनी की छतरी एवं वीराने खण्डहर दुर्ग तिमनगढ़-- बयाना के यदुवंशी  महाराजा विजयपाल की मृत्यु के बाद यादव राजवंश छिन्न -भिन्न हो गया ।इनके पुत्र छोटे -छोटे दल बना कर इधर -उधर डोलने लगे , परन्तु कहीं पर उपर्युक्त स्थान नहीं मिला ।कुछ को अपना राज्य जमाने का अवसर मिल गया ।महाराजा विजयपाल के ज्येष्ठ पुत्र महाराजकुमार तिमनपाल थे ।वे कुछ समय   तक तो बयाना के आस -पास पहाडी भागों में भटकते फिरे ।कुछ समय पश्चात इन्होंने पुनः विजयगढ़ (बयाना ) को आबाद करने का प्रयास किया , परन्तु सफलता नहीं मिली ।चारो तरफ इस क्षेत्र पर मुस्लिम आधिपत्य स्थापित हो चुका था ।इस लिए इन्होंने उसे छोड़ दिया और पुनः राज्य स्थापना के लिए दूर -दराज सहायता हेतु भृमण किया ।कलिंजर एवं ग्वालियर भी गए लेकिन कोई लाभप्रद संतोष नहीं मिला ।यवनों के छुट-पुट आक्रमण निरन्तर उत्तरी-पूर्वी भागों पर हो रहे थे ।हिन्दू जाति में गहरा विशाद वातावरण था।यद्यपि कई हिन्दू राजवंश अपने उत्कर्ष काल में थे , तथापि वे अपने आपसी झगड़ों और वैमनस्यता के कारण वे यवनों के झगडे रोकने में असमर्थ थे। बयाना पतन के बाद तिमनपाल ने अपने आप को

मध्यकालीन त्रिभुवनगिरि दुर्ग का गौरवशाली स्वर्णिम युग :सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर का प्रतीक ---

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मध्यकालीन  त्रिभुवनगिरि दुर्ग का गौरवशाली स्वर्णिम युग : सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर का प्रतीक --- त्रिभुवनगिरि दुर्ग -- इस मध्यकालीन दुर्ग का निर्माता महाराजाधिराज त्रिभुवनपाल या तिहुणपाल के नाम पर ही "त्रिभुवनगिरि "रखा गया है ।इस दुर्ग को ताहनगढ़ , तिमनगढ़ ,थनगढ़ , थनगिरि आदि नामों से भी जाना जाता है ।जैसवाल जैन जैसलमेर का त्याग करके राजा त्रिभुवनपाल के समय में ही त्रिभुवनगिरि में आये और दुर्ग के बाहर पड़ाव डाल दिया ।लोगों के पूछने पर उन्होंने स्वयं को जैसलमेर वासी यदुवंशी ही बताया ।अतएव ये जैसवाल जैन कहलाये ।राजा त्रिभुवनपाल ने उनको जैसलमेर के होने के कारण सम्मान सहित अपने दुर्ग में रहने दिया । यदुवंशियों (जादों राजपूत) के मुगलों से वीरतापूर्ण संघर्ष का साक्षी ताहनगढ़ दुर्ग------ मध्यकाल में ताहनगढ़ का दुर्ग उत्तर भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से एक था ।बयाना से लगभग 23 किलोमीटर दक्षिण में एक उन्नत पर्वत शिखर पर स्थित है।दुर्गम पर्वतमालाओं  एवं घने जंगल से घिरा हुआ तथा  अद्भुत सौंदर्य से सुशोभित इस दुर्भेद्य दुर्ग की अपनी निराली ही शान और पहिचान है।यदुवंशी क्षत्रियों की वीरता