चन्द्रवंशी जादों (पुराणिक यादवा / ,यदुवंशी )क्षत्रियों के गौरव के प्रतीक प्राचीन विजयमन्दिरगढ़ दुर्ग का गौरवशाली इतिहास --

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चन्द्रवंशी जादों (पुराणिक यादवा / ,यदुवंशी )क्षत्रियों के गौरव के प्रतीक प्राचीन विजयमन्दिरगढ़ दुर्ग का गौरवशाली इतिहास ----

इतिहास में बयाना को कई नामों से जाना जाता है ।प्राचीन काल (उत्तर वैदिक काल ) में यह  क्षेत्र भंडका , भदानका ,भंडा आदि  नामों से प्रचलित था।महाजनपदों के काल में यह क्षेत्र  यदुवंशियों राजाओं के शूरसेन प्रदेश में स्थित था जिसकी राजधानी मथुरापुरी थी ।इसके उपरान्त श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के समय में यह क्षेत्र शोणितपुर नाम से सम्बोधित किया गया।इसको बाणासुर की नगरी होने के कारण लोग इसको बाणासुरनगरी  होना भी मानते है ।कहा जाता है कि बाणासुर यहीं का रहने वाला था ।यहीं पर उसने अपनी पुत्री उषा का विवाह श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से किया था।यह उषा मन्दिर भी है जो कई बार मस्जिद व मन्दिर के रूप में तब्दील हो चुका है।इस नगर का प्राचीन इतिहास अनेक पौराणिक गाथाओं से भरा पड़ा है।पाणिनी ने बयाना को श्री प्रस्थ कहा है ,गुप्त काल में श्रीपथ , विष्णुवर्धन के समय में यह संतीपुर ,मथुरा के जदुवंशी  राजा विजयपाल के समय में (1043 ई0 ) में यह विजयमन्दिरगढ़ ,विजयगढ़ ,विजयमण्डारगढ़ विजयचंद्रगढ़ आदि नामों से जाना गया , बाद में दिल्ली सल्तनत के अंतिम समय में यह बयाना कहलाया ।मुगलकाल में यह क्षेत्र सुल्तानकोट और सिकन्दरा जैसे नामों से भी विख्यात हुआ ।वैदिक काल में यह किला मतस्य जनपद का श्रेष्ठतम सामरिक महत्व का दुर्ग था।ईसा से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व इस किले पर मथुरा के शूरसेनी शासकों का अधिकार था ।बयाना भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।यहाँ  एक अत्यंत प्राचीन दुर्ग स्थित है | यह दुर्ग दिल्ली -बम्बई रेल लाइन पर भरतपुर से 45 किमी दक्षिण में बयाना जंक्शन से गुजरते हुए दूर दमदमा गांव के पास मानी पहाड़ी की  ऊँचीं चोटियों पर 826 मीटर लम्बे तथा 250 मीटर चोडे क्षेत्र में दुर्ग के भग्नावशेष नजर आते है ।लेकिन पास से दुर्ग और उसके अवशेषों को एकबारगी अवलोकन करते समय इसकी विशेषताओं एवं विशालता का बोध होता है।आज दुर्ग भले ही वीरानता को प्राप्त हो गया हो , परन्तु प्राचीन और मध्यकाल में दुर्ग की महत्वपूर्ण स्थिति थी ।बहुत कम लोग बयाना के इस दुर्ग को विजयमन्दिरगढ़ या विजयमंडारगढ़ के रूप में  इसके गौरवशाली इतिहास को जानते होंगे ।
बयाना के यदुवंशी महाराजा विजयपाल के शासनकाल में इस दुर्ग के गौरव का झंडा राजपुताना के एक बड़े भाग पर लहराया था ।यदुवंशियों के पतन(सन 1196 ई0 के लगभग ) के बाद इस दुर्ग का प्रशासनिक महत्व कम हो गया था लेकिन लोदी काल में इसका महत्व एक बार पुनः बढ़ा ।मध्यकाल के अन्तर्गत देश के दुर्गम दुर्गों में इसका उल्लेख मिलता है ।
राजपूत काल में, यह दुर्ग राजपूताने  के वास्ते सशक्त प्रहरी की भूमिका अदा करता रहा ।कोई भी तुर्क आक्रांता या मुगल इसे जीते बगैर राजपूताने की सीमा के अंदर प्रवेश नहीं कर सकता था। बयाना के इस प्राचीन दुर्ग पर समय -समय पर विभिन्न राजवंशों के अतरिक्त विविध मुस्लिम वंशों -गौरी ,गुलाम ,तुगलक ,लोदी ,अफगान तथा मुगलों का अधिकार रहा है ।अबूबक्र ,महमूद गौरी ,अलाउद्दीन खिलजी ,सिकन्दर लोदी तथा बाबर आदि के हमलों की मार को झेलते हुए भी यह दुर्ग आज भी अपने अतीत की गौरवगाथा को सीना ताने खड़ा होकर व्यक्त कर रहा है ।इस काल में हिन्दू संस्कृति को बहुत कुचला गया ।दुर्ग के अंदर हिन्दू सनातन धर्म की आस्था के प्रतीक अनेकों मंदिरों को नष्ट करने मस्जिदों में तब्दील किया गया तथा उनके नाम बदलकर मुगलों के नाम पर नए नाम लिखे गए।कहा जाता है कि यहाँ ढाई कब्र कम पड़ गई अन्यथा बयाना संसार का दूसरा "मक्का -मदीना " होता ।
इस दुर्ग में किसी समय अनेक महल ,तालाब ,बाबरी एवं बाँध थे जिनमें से कुछ अभी शेष है ।

     सन .360 ई. में इस बयाना नगर तथा किले पर समुद्रगुप्त ने पर अधिकार कर लिया था | समुद्रगुप्त के काल में बयाना के किले में ‘राजस्थान के प्रथम विजय स्थम्भों’ का निर्माण करने का उल्लेख मिलता है | ‘भीमलाट’ नामक यह स्तंभ विक्रम संवत 428 (सन 363) राजा विष्णुवर्धन पुण्डरीक द्वारा निर्मित यह लाट आज भी मोजूद है | अपनी मूल अवस्था में इसकी लम्बाई 9 मीटर के लगभग थी किन्तु आज 7 मीटर के लगभग है | इसके ऊपर चढ़ने के लिए सीढियां बनी हुई थी जो अब टूट गई हैं | स्तम्भ में विष्णुवर्धन, उसके महान पुत्र यशोवर्धन, पुत्र एवं परपोत्र का वर्णन है | जिससे यह जाहिर होता है की इस क्षेत्र पर एक शताब्दी तक उसके वंशजों का शसन रहा है | स्तंभ शिल्पकला का उत्कृष्ठ नमूना है | यहाँ सोने के 285 सिक्के भी मिले थे | जो आज राष्ट्रीय संग्रालय, दिल्ली ,पटना , बम्बई और भारत कला भवन वाराणसी में हैं | यह सिक्के सम्राट समुद्रगुप्त , चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और कुमार गुप्त प्रथम के काल में जारी किये गए थे | बयाना में प्राप्त इन सिक्कों से स्पस्ट है की यह क्षेत्र कभी उन्नति के चरमशिखर पर था और सन 371 में आबाद था |

बयाना पर छटी शताब्दी में मिहिरकुल नमक हुण आक्रान्ता का शासन था | सातवी सदी में थानेश्वर के राजा हर्षवर्धन ने बयाना को अपने राज्य में मिला लिया | हर्ष के शासन काल के समय यह दुर्ग गुर्जर शासको के स्वतन्त्र अधिकार में था तथा बयाना को गुर्जर राज्य में मिला लिया | नवी शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहारों का शासन आया और उन्होंने इसे अपने अधिकार में कर लिया था | हिन्दू स्थापत्य कला का उत्कृष्ठ नमूना ‘उषा मंदिर’ गुर्जर- प्रतिहार राजा लक्ष्मण सेन की पत्नी चित्रलेखा (चित्रांगदा) द्वारा सन 956 ई. में बनाया गया था | इल्तुतमिश के शासन काल में सन 1224 ई. में इसे मस्जिद में बदल दिया गया | गुर्जर -प्रतिहार शासक नागभट्ट (दितीय) के बाद महिपाल के काल में बयाना पर दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा इंद्र (तृतीय) का अधिकार हो गया था |

मथुरा के जादों क्षत्रियों  द्वारा बयाना में विजयमन्दिरगढ़  नवीन दुर्ग की स्थापना  ---

मुगल सत्ता की स्थापना से पूर्व राजपुताना सहित भारत के कई भागों में यदुवंशियों का उत्कर्ष हुआ | इनमे से मथुरा का शूरसैनी जादों राज्य प्रमुख था , जो  मथुरा मे अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल हो गया |यदुकुल संहार के बाद जब  यदुकुल शिरोमणि योगीश्वर भगवान देवकीनन्दन श्री कृष्ण वासुदेव  के तिरोधाम गमन के बाद उनकी आज्ञानुसार उनके प्रपौत्र एवं अनिरुद्ध जी के पुत्र श्री वज्रनाभ जी को अर्जुन के पौत्र परीक्षत ने मथुरा का राजा बनाया गया था।उन्होंने ही इस व्रज भूमि एवं व्रज प्रदेश को पुनः स्थापित व विकसित किया था।उनके बाद उनके कई वंशज जैसे प्रतिवाहू ,सुबाहू ,शांतसेन ,शतसेन आदि नंदों के शासन काल तक  मथुरा पर शासन किया। फिर यदुवंशी यहां से पुनः द्वारिका क्षेत्र की ओर पलायन कर गये।इन जादों वंशी शासकों के राज्य ब्रजप्रदेश में बादशाह सिकन्दर के भारत आक्रमण के समय में होना पाया जाता है।समय -समय पर विदेशी आक्रमणकारियों जैसे शक ,मौर्य ,गुप्ते ,सीथियन्स ने यदुवंशियों का राज्य दबाया परन्तु मौका पाते ही यदुवंशी फिर स्वतंत्र बन जाते ।कहने का तात्पर्य यह है कि जादों क्षत्रिय अपनी पैतृक जन्मभूमि ब्रजक्षेत्र पर समय -समय पर मौका पाकर अधिकार करते रहे।कहा जाता है कि यदुवंशी राजा धर्मपाल से द्वारिकापुरी का राज्य छूट जाने पर वह  पुनः अपने पैतृक राज्य ब्रजप्रदेश में आयेऔर मथुरा-बयाना क्षेत्र पर सन 810ई0 में कब्जा कर लिया।इन्होंने मेवात देश भी पणिहार वंशी क्षत्रियों  से छीन कर अपने कब्जे में कर लिया जो कई पीढ़ियों तक उनके वंशजों के पास रहा।धर्मपाल की मुख्य राजधानी बयाना नगर ही थी इस लिए बैराठ नगर में उनका कोई हुक्मरान रहता होगा क्यों कि जबआमेर के महाराजा कॉकलदेव ने बैराठ नगर पर हमला किया था उस समय यहां पर नैनसी जादों राज्य करता था जो बयाना के जादों राजवंश का कोई व्यक्ति उनकी तरफ से हुक्कमरानी को तैनात किया होगा ।दसमी सदी के उत्तरार्ध में जादों राजपूतो ने अवसर पाकर मथुरा में पुनः स्वतंत्र राज्य स्थापित कर  लिया तथा मथुरा को अपना केंद्र बनाया | करौली ख्यात के अनुसार  वि0 स 0 936 ( ई.सन 879) में इच्छापाल यदुवंशी मथुरा के राजा थे |उसके ब्रह्मपाल तथा विनायक पाल दो पुत्र थे | महाराजा इच्छापाल के बाद ब्रह्मपाल मथुरा के शासक हुए और विनयपाल के वंशज "बनाफ़र" यदुवंशी कहलाये जो महोबा के शासक हुए। ब्रह्मपाल की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जयेंद्रपाल वि 0 स 0 1023 ( 966 ई 0)  में मथुरा के शासक बने । जयेंद्रपाल की मृत्यु  वि 0 स 0 1049  कार्तिक सुदी 11 को ई0 992 में हुई ।जयेंद्रपाल के 11 पुत्र थे , जिनमे विजयपाल ज्येष्ठ था । विजयपाल ई 0 992 में  मथुरा का शासक हुआ ।उसके समय मे मथुरा राज्य की सीमा श्रीपथ (बयाना ) तक विस्तृत हो चुकी थी ।उसके सिंहासन पर बैठने से पूर्व ही भारत पर महमूद गजनवी के आक्रमण प्रारंभ हो चुके थे ।गजनवी  ने सन 1018ई0 में महावन पर आक्रमण करके वहन के यदुवंशी शासक कुलचन्द को मार डाला ,इसके  बाद मथुरा को खूब लुटा ।
उधर महमूद के आक्रमणों की सुचना पाकर वहाँ का शासक विजयपाल अवसर देख कर अपने राज्य क्षेत्र में सुरक्षित स्थान श्रीपथ \बयाना कीओर चला गया ।उधर मथुरा में जो विजयपाल अपनी सेना का बहुत बड़ा भाग नगर की सुरक्षा के लिए छोड़ कर आया था।उस सेना ने एस पवित्र नगर तथा कलापूर्ण मंदिरों को बचाने का पूरा प्रयास किया लेकिन आक्रमणकारी तुर्क सेना ने मंदिरों नष्ट करके मूर्तियों को तोड़ डाला। विजयपाल ने बयाना आकर इस नगर को अपनी राजधानी बनाया तथा मानी पहाडी पर एक विशाल दुर्ग का सन १०४३ ई 0 में निर्माण करवाया ।कुछ इतिहासकारों का मानना है कि दुर्ग की स्थापना वाणासुर के समय में हुई थी तथा विजयपाल ने केवल जीर्णोंधार कराया था और दुर्ग को विजयमन्दिर गढ़ नाम दिया ।
विजयमन्दिर गढ़ की स्थापना के बाद विजयपाल ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए कई देशों पर आक्रमण किये । इन्होने बैराठनगर पर आक्रमण करके उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया ।गुजरात के चालुक्य राजाओं को भी इन्होने परास्त किया ।मेवाड़  के राजाओं से इनके मैत्री पूर्ण संम्बंध थे ।दक्षिण के तेलंगना क्षेत्र तक इन्होने अपना साम्राज्य का विस्तार किया । राज्य की सैनिक शक्ति सुद्रढ़ होने के कारण विजयपाल ने अनेक शासकों को परास्त किया । इन्होने अजमेर ,मारवाड़ आदि के राजाओं को ताबेदार किया ।इन  विजयों की स्मृति में महाराजा विजयपाल ने दुर्ग के अन्दर एक विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया जिसे वर्तमान में भीमलाट के नाम से जाना जाता है । कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विजयपाल ने अपनी विजयों को पहले से ही स्थित गुप्तकालीन विजय स्तंभ ‘ भीमलाट ‘ पर अंकित करवाया था ।
गजनी के शासक इब्राहीम के पुत्र मसूद ने तीन बार विजयमंदिरगढ़ पर आक्रमण किया लेकिन विजयपाल की शक्ति के कारण उसे दुर्ग विजय करने में सफलता नहीं मिल सकी । विजयपाल का अधिकार इस किले पर ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ तक रहा ।

अबुवक्र कंधारी का आक्रमण ........

गजनी के शासक मसूद की म्रत्यु के बाद अफगानिस्तान से अबुवक्र नामक सरदार की शक्ति में व्रद्धी हो गयी ।बगदाद के खलीफा से आज्ञा लेकर अबुवक्र ने ऊँटों और घोड़ों की विशाल सेना उसने भारत की ओर कुच किया ।लाहौर एवं मुल्तान पर विजयश्री प्राप्त करने के बाद उसने विजय मंदिर गढ़ पर आक्रमण किया । करौली की ख्यात से ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तुर्क सेनापति अबू वक्र में जोश था और वः अपने धर्म गुरु की आज्ञा से हिन्दुस्थान पर आक्रमण करने आया था ।इस प्रकार गजनी के तुर्कों में अत्यंत उत्साह था ।
उधर बयाना के यादवों की परीक्षाक्षण का भी समय आ गया था ।अनेक राज्यों के क्षत्रिय राजा विजयपाल की मदद करने के लिए सेना लेकर आ गये ।इस समय यद्धपि महाराजा विजयपाल व्रद्धावस्था पर कदम रख चुके थे परन्तु उनमें भी साहस की कमी नही थी ।उन्होंने युद्ध का संचालन स्वयं अपने हाथों रखा । विजयपाल दुर्ग की रक्षा का भार राजकुमार रतन पाल को सोंप कर स्वयं अपनी सेना लेकर युद्धभूमि की ओर निकल पड़े ।करौली ख्यात के अनुसार युद्धभूमि में जाने से पूर्व विजयपाल ने दुर्ग के रक्षकों को यह हिदायत दी थी कि युद्ध की वापसे के समय यदि सैनिकों के हाथों में अपने झंडे दिखाई डे जाये तो ख़ुशी से विजित सेना का स्वागत करना ।यदि तुर्कों के काले झंडे दिखाई दें तो दुर्ग को नष्ट करके स्त्रियों के लिए जौहर का आयोजन किया जाए तथा वीर सैनिक दुर्ग से बाहर आकर शत्रु का सामना करें ।

कनावर का युद्ध एवं राजपूताने में बयाना का प्रथम जौहर .........
महाराजा विजयपाल एवं आबू वक्र तुर्क की सेनाओं के मध्य ई 0 १०४६ में कनावर के मैदान में घमासान युद्ध हुआ ।  तीन दिन तक युद्ध चला जिसमें बयाना के यदुवंशियों ने तुर्कों को बुरी तरह परास्त क्र दिया । अबुवक्र वहन से भाग कर लाल खां तेली के घर छिप गया ।इस प्रकार इस युद्ध में जादों–वाहिनी सेना को विजयश्री प्राप्त हुई ।परन्तु दुर्भाग्य से एक ऐसी घटना घटित हुई जिससे यह विजय फलीभूत न होकर विनाश का सेतु बनी ।विजय उल्लास में कुछ यादव सैनिक यवनों की काली पताकाओं । झंडों को लेकर विजयमन्दिर गढ़ दुर्ग की ओर विजय का समाचार सुनाने दौड़ पड़े ।दुर्ग रक्षकों ने जब यवन पताकाओं को दुर्ग कीओर आते देखा तो वे घबडा गये ।दुर्ग में सैन्य बल नगण्य था । दुर्ग रक्षकों ने दुर्ग की दीवारों में बारूद भरकर उसे नष्ट करना आरम्भ क्र दिया ।दुर्ग में उपस्थित रनिवास में  सभी  क्षत्राणियों ने जौहर व्रत का अनुसरण करते हुए अपने शरीर को अग्नि में समर्पित कर अपने त्याग एवं साहस का परिचय दिया । रंगमहल राख की ढेरी बन गया था ।
जब महाराजा विजयपाल विजयश्री के झंडे को लेकर विजय मंदिर दुर्ग पहुंचे तब उन्होंने आग की धधकती हुई ज्वाला को देखा तो बहुत निराश हुए व उन्होंने दुखावेश  में अपना मस्तक कट कर अपने अराध्य देव महादेव को समर्पित क्र दिया ।ऐसा होते ही चारों तरफ हाहाकार मच गया ।ख्यातों के अनुसार  कहा जाता है कि राजा विजयपाल की चिता के साथ 360 स्त्रियाँ सती हुई थीं
इस प्रकार विजयचंद्र गढ़ में महाराजा विजयपाल का सूर्य अस्त हो गया |
उधर अबू वक्र  को जब विजयमन्दिरगढ़ की वर्वादी का समाचार मिला तोउसने  फिर अपनी सेना को इक्कठा करके फाग तीज रबिवार को  विजय मंदिर गढ़ पर चढ़ाई कर दी और विक्रम संवत 1173( सन 1046 ई 0 )में उसका दुर्ग पर अधिकार हो गया ।
स्थानीय किवदंतियों में दुर्ग विजित किये जाने पर निम्न दोहा सुनाने को मिलता है –
               ग्यारह सौ तेहत्तर फाग तीज रबिवार |
              विजयमंदिरगढ़  तोड्यो अबू वक्र  कंधार।

महाराजा विजयपाल का मुल्यांकन ..........

महाराजा विजयपाल ने बयाना में अपना राज्य स्थापित करने के बाद उन्होंने दूर – दूर के इलाकों को अपनी बहादुरी से अपने कब्जे में कर लिया था जिससे इन्हें ‘विज्याधिराज का ख़िताब मिला | इन्होने जहाँ इर्द - गिर्द के इलाकों पर अधिकार किया वहीं राज्य की शक्ति मजबूत होने के कारण एक बार मालवा के खिलजी सुल्तान को वापिस जाते समय परास्त किया जिसकी स्मृति में किले में विजयस्तम्भ स्थापित किया गया जिसे आज भी भीम लात के नाम से पहचाना जाता है |
महाराजा विजयपाल ने एक संत के आशीर्वाद से सर्वत्र दिग्विजय पाई थी ।उनके दरवारी कवि राव नल्ल सिंह तथा उनके भाई पल्ल सिंह ,दल्ल सिंह तथा जल्ल सिंह , चारों भाई सिरोहिया जाति के राव थे ,उन्होंने विजयपालरासौ नामक ग्रन्थ लिखा था जिसमें महाराजा विजयपाल की बहादुरी ,धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्था का उच्चस्तर पर जिक्र किया था जो अनुपलब्ध है ,जिसकी दक्षिणा में विजयपाल ने हिंडौन नगर सात सौ गायों सहित दिया था | जिस की बात इन कवियों ने इस दोहे और छप्पय में लिखी है ....
भये भट्ट पर्थु जगने  ,सिरोहिया  अल्ल |
ब्रत भवर जदुवंश के नल्ल ,पल्ल,दल्ल ,जल्ल ||
बिवासौ गजराज वाजि सोलह सो माने
दिए सात सौ ग्राम , सह हिन्दुन सुदाने
सनर  दिए दैव्सहस  ,रकम गिले मै भीर अमर
कचा राम जाडव ,वहुत दीनेश अमदम्वर
फल पूजित राव सिरोहिया ,यादव पति निज
वर्द्ध विजयपाल जू , विजयगढ़ साहये जसमपिय 
करौली की ख्यात के अनुसार महाराजा विजयपाल ने महांराणा सुमान् वाली और सिद्ध राज जयसिंह वाली गुजरात को भी शिकस्त दीनी थी | मगर इस राजा का आखिरी नतीजा खराव हुआ  यानी यह सं0 1103 विक्रम बजुमित ख्यात करौली और सं0 1173 विक्रम बजुजिव कहावत अवावक शाह | अबू वक्र कंधार से लड़ कर मारा गया और उसी समय में संवत 1094 विक्रम में महाराजा कौकिलदेव  वाली आमेर ने जाद्वों से मैडबैराठ छीन कर निकुम्भ क्षत्रियों को दे दिया | आखिर संवत 1105 में कौकिल देव जी के पुत्र अम्ध् राय ने मैडबैराठ छीन कर अपने तावे कर लिया |
महाराजा विजयपाल ने लगभग 51 वर्ष शासन किया | उन्होंने 35 लडाइयाँ लड़ी | उन्होंने 29 विवाह किये | जिनमे से उनको 18 पुत्रों की प्राप्ति हुई | इनमे से दस पुत्र कनावर के युद्ध में खेत रहें | महाराजा विजयपाल एक सहासी एवं कुशल प्रशासक थे | वह वैष्णव धर्म से ओत- प्रोत थे | और हमेशा गौ तथा ब्राह्मणों की पूजा करा करते थे | यह शिव भक्त भी थे | और परिवार के सदस्यों के साथ शिव जी की पूजा आर्चना किया करते थे | महाराज ने कल्याण नमक ब्राह्मण को अपने राज्य का मंत्री नियुक्त किया था | उसने योग्यता और कुशलता से शासन चलाने में अपना सहयोग किया | महाराजा विजयपाल को करौली यदुवंशी (जादों ) राज्य का मूल पुरुष माना गया है।"यही करौली की राजगद्दी यदुवंशियों यानी भगवान श्री कृष्ण के वंशज माने जाने वाले राजपूतों में आदि (पाटवी) या मुख्य समझी जाती है " क्यों करौली का वर्तमान राजवंश ही यदुवंशी मथुरा की शुरसेनी शाखा से निकला हुआ है।

विजयपाल के पुत्र ........

विजयपाल के 18 पुत्रों में अलग अलग इलाकों एवं किलों पर कब्जा करके वंश परम्परा कायम किया |
1. तिमनपाल –  संवत 1147 में गद्दी पर बेठे |
2. कुंवर गजपाल – गजगढ़ (जैसलमेर) मोरस जादों कहलाये |
3. उदयपाल – क़स्बा उदईखुर्द आबाद किया |
4. मडलपाल – मडरायल किला बनाया
5. बागपाल – बाघेर इलाके (सबलगढ़) पर काबिज हुए |
6. सरदार पाल - ____,,___
7. छपरतालम जी – गजनी में स्वर्गवासी हुए इनकी संतान ओगलजादों कहलायी जो कोटा बूंदी राजोंगढ़, बजरंगगढ़ में आबाद है |
8. मदनपाल जी – सीसिला (सब खेरिया जादों का है)
9. हंसपाल जी – कोई जानकारी नही मिलती
10. मोतिपाल जी – इनकी छतरी जगर बांध (हिंडौन) के पास है| जिसे श्रद्धालु मनोती के रूप में पूजतें हैं तथा मेला भी लगता है |
11. पिरानपाल ,
12. देवपाल ,
13. रूप पाल ,
14. सतपाल ,
15. गंगपाल ,
16. रामपाल ,
17. सूरजपाल ,
18. नाम नही मिलता
11 से 18 संख्या तक के पुत्रों के बारें में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है | यह लोग कहाँ कहाँ रहे और इनकी संताने क्या कहलायी | इस प्रकार महाराजा विजयपाल के गुजरने के साथ ही बयाना से यदुवंश का सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो गया |  परन्तु स्वदेशी इतिहासकारों कि कमी के कारण भारत के इतिहास के किसी भी पन्ने पर राजपूताने के बयाना में हुए प्रथम जोहर को तथा इस वीर सूर्यमणि को चार पंक्तियों में भी गौरव का स्थान भी नही मिला |
महाराजा विजयपाल के मृत्यू के बाद बयाना का यादव (जादों) राजवंश छिन्न भिन्न हो गया | और इस प्रकार इनके पुत्र छोटे छोटे दल बना कर इधर उधर डोलने लगे | कुछ को अपना राज्य जमाने का अवसर मिल गया |

विजयपाल की मृत्यु के बाद विजय मंदिर गढ़ की स्थति .........
मुस्लिम आक्रमण से युद्ध करतें हुए जब विजयपाल द्वारा मृत्यु का अलिघन करने के बाद इस किले पर तुर्क शासकों का अधिकार हो गया | इसके बाद इस दुर्ग ने इतिहास को अनेक करवटें लेतें हुए देखा है अब्बू वक्र कंधारी ने यहाँ शासन किया इसी बीच विजयपाल के ज्येठ पुत्र एवं उतराधिकारी तिमनपाल ने बयाना से 15 मील दूर तिमानगढ़ दुर्ग की स्थापना की तथा वहाँ से रहते हुए बयाना के आस पास के अपने पैत्रिक राज्यक्षेत्र को तुर्कों से पुन: प्राप्त कर लिया यह इस वंश का प्रतिभाशाली शासक था 66 वर्ष के दीर्घकालीन शासन काल उसने तबनगढ़ के दुर्ग(फारसी इतिहासकारों का थनकर) में रह कर उसने नयी विजय प्राप्त कर अपने राज्य की शक्ति बडाई उसने सर्वप्रथम तिमनगढ़ एवं चम्बल नदी के आस पास का समस्त पहाड़ी, पठारी व बीहड़ डाग क्षेत्र पर अधिकार किया तथा इसके बाद में अलवर , भरतपुर , धोलपुर , गुडगाँव , मथुरा , आगरा , तथा ग्वालियर के विशाल क्षेत्र जीत कर अपने राज्य का विस्तार किया | इस विशाल क्षेत्र पर उसकी सत्ता उसके विरुद “परम भट्टारक महाराजा धिराज परमेश्वर’ से भी सिद्ध होती है |
तबन पाल के बाद अगले दो शासक (धर्मपाल एवं हरपाल) दुर्ग अपना पेत्रिक अधिकार नहीं रख सके और पारवारिक झगड़ों में ही उलझते रहे |
दिल्ली सल्तनत के अधीन विजयमंदिर गढ़ (बयाना) दुर्ग -
    आगे चलकर महम्मद गोरी ने 1196 ई.वी. में वहाँ के तत्कालीन यदुवंशी शासक कुंवरपाल को युद्ध में हराकर बयाना दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया | और बयाना प्रदेश एक मुस्लिम अधिकारी बहाउद्दीन तुगरिल को प्रधान कर दिया गया जिसने बाद में यदुवंशी राजा के किले को अपने निवास के अनुकूल न पकाकर उसी राज्य में सुल्तान कोट नामक एक शहर बसा कर उसे अपना निवास स्थल बनाया |
बयाना पर मुस्लिम आध-पतय हो जाने के बाद कुंवरपाल सहित अनेक यदुवंशी राजपूत चम्बल नदी पर करके संबलगढ़ के जंगलों में चले गए और फिर वहाँ ‘जादों बांटी’ नाम से क्षेत्र बना लिया और कुछ अन्य अलवर जिले के मेवात क्षेत्र में चले गए जहाँ उन्होंने अपने अलग-अलग साम्राज्य जैसे तिजारा और सरहता स्थापित किये और कालांतर में तात्कालीन  यवन शासकों के दवाब में इस्लाम धर्म स्वीकार करके कुछ के वंशज खानजादा और कुछ के वंशज मेव कहलाये | ऐसा प्रतीत होता है कि मुसलमानों के अधीन बयाना का क्षेत्र अधिक समय तक कायम नही रह सका और संभवत; बहाउद्दीन तुगरिल की मृत्यु के बाद यदुवंशियों ने 1204 और 1211 के मध्य में किसी समय पुन: अपने पैतृक भू-भाग पर अधिकार जमा लिया जिसके कारण इल्तुतमिश (1227 -28ई.)को पुन: एक बार थन्कोर (बयाना) जीतने की आवश्यकता पड़ी | इल्तुतमिश के बाद दिल्ली का शासन लड़खड़ाने लगा उसके उत्तराधिकारी इतने निर्बल थे बयाना के किले को उनसे जादों राजपूतों  ने फिर 1240-41 ई.वि. में छीन लिया |
 


सन्धर्व--
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1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं
करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
14-यदुवंश -गंगा सिंह
15-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
16-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली
17-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा
18-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता
19-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग
20-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन
21-बयाना-ऐ कांसेप्ट ऑफ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी -डा0 राजीव बरगोती
22-प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह
23-आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60--कनिंघम
24-रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.--कनिंघम
25-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.

लेखक--– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लाढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001

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