जादों राज्य करौली की ऐतिहासिक धरोहरें--

जादों राज्य करौली की ऐतिहासिक धरोहरें-----

जादों राजपूतों के करौली राज्य में  धार्मिक , प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक पर्यटक स्थलों की अधिकता रही है।यहां  लगभग एक दर्जन प्राचीन किले तथा चम्बल घाटी के समानान्तर फैला हुआ कैलादेवी अभयारण्य  है जो यहाँ की विरासत है। यहाँ के प्राचीन भवनों में मुगल तथा राजपूत शैली की वास्तुकला एवं शिल्प का उपयोग हुआ है।


रावल पैलेस--

करौली स्थापना के बाद यहाँ के विभिन्न नरेशों ने शाही आवासीय भवनों का निर्माण कराया। यहाँ के प्रसिद्ध मदनमोहन जी का मंदिर रावल पैलेस का ही एक भाग है। पैलेस का प्रमुख द्वार सिटी पुलिस चौकी के पास एक लम्बे चौड़े दालान में खुलता है। पूर्व की ओर एक विशाल दरवाजा है जिसे नगाडखाना दरवाजा कहते है। यह किले का बाहरी एवं पूर्वी द्वार है। इस दरवाजे के अंदर बने हुऐ एक बड़े चबूतरे पर किले की रक्षा के लिए तोपें रखी रहती थीं तथा दरवाजे के ऊपर सदैव नगाडे एवं शहनाईयाँ बजती रहती थी। उत्तर की ओर बने हुए हुआ प्रमुख प्रवेश द्वार में प्रवेश करने के बाद रावल के अलग-अलग भवनों में प्रवेश किया जा सकता है। पूर्व की ओर घोडो के अस्तबल बने हुए हैं। पश्चिम की ओर राजा भँवरपाल द्वारा बनाई गई भँवर बैंक का भवन है। पुरातत्व की दृष्टि से रावल का प्रमुख भवन जिसका प्रवेश द्वार पूर्व
की और खुलता है, महत्वपूर्ण है। द्वार में प्रवेश के बाद गोपाल मंदिर दिखाई देता जिसमें विशाल 22 खम्भे लगे हुए हैं। इस भवन मे बेल बूटों की चित्रकारी कोटि की है। महाराजा गोपाल सिंह के शासनकाल में इसका निर्माण हुआ था। यह आमखास भी कहलाता है। इस विशाल हॉल के सामने एक चौरस स्थान है जिसे खिरनी वाले चौक के नाम से पहचानते हैं। गोपाल भवन के सहारे से एक रास्ता पश्चिम में जाता है जहाँ राजा मानिक पाल द्वारा गया भवन एवं महाराज गोपाल सिंह का अखाड़ा है। इस परिसर में अनेक देवस्थान भी है। गोपाल मंदिर की तीसरी मंजिल पर वारादरी है, जहाँ से शीश महल को जाने का रास्ता है। शीश महल रानियों का आवास थ

इस शाही महल से जुड़ा हुआ एक अन्य महल है जिसे आमली वाला रावल कहते हैं। यहाँ रानियो की दासियां एवं अन्य महिलाऐं रहती थीं। रावल का एक अन्य भाग बडा रावल कहलाता है, जो मदनमोहन जी के मंदिर से एक खिड़की द्वारा जुड़ा हुआ है। वर्तमान मे रावल महल की साल संभाल अच्छी होने से यहाँ देशी एवं विदेशी पर्यटकों का आना जाना बना रहता है। अब यहाँ प्राचीन राजसी साज सामान को संग्रहीत कर एक म्यूजियम भी बनाई गई है।

तिमनगढ़ किला --

बयाना से 15 किमी0 दूर , करौली से उत्तर की ओर 35 किलोमीटर दूर स्थित मासलपुर से 15 किलो मीटर आगे पुरातत्व का खजाना तिमनगढ इतिहासकारों के शोध का विषय है। यह अरावली की पहाड़ियों के बीच में समुद्रतल से 1309 फुट की ऊंचाई पर निर्मित है। तिमनगढ़ 9 किमी0 की लंबाई -चौड़ाई में फैला हुआ है ।राजस्थान के प्राचीन किलों मे तिमनगढ़ का नाम शीर्ष पर आता है। 
तिमनगढ़ नौ किलोमीटर की लम्बाई चौड़ाई में फैला हुआ है। किसी समय दुर्ग में एक छोटा किन्तु समृद्ध नगर स्थित था और मूर्तियों के खजाने के रूप में विख्यात था। कुछ इतिहासकार तिमनगढ़ को रणथम्भौर दुर्ग से भी प्राचीन बताते हैं।

जब अबूवक्र कंधारी के जबरदस्त हमले से विजयचन्द्रगढ़ (विजयमंदिर गढ़) में भीषण रक्तपात के पश्चात महाराजा विजयपाल की मृत्यु हो गई तो उनके उत्तराधिकारियों को विजयचन्द्रगढ़ छोड़कर भागना पड़ा। विजयपाल के दूसरे राजकुमार गजपाल ने बयाना से भागकर गजगढ़ को आबाद किया त्रिहूण पाल (तहनपाल तथा तिमनपाल), विजयपाल का ज्येष्ठ पुत्र था। पिता की मृत्यु के पश्चात वह दो साल तक अज्ञात अवस्था में भटकता रहा। लोक किंवदन्ती के अनुसार एक दिन राजा तहनपाल को मेंढकीदास नामक साधु मिला जिसने तहनपाल को खोया हुआ राज्य प्राप्त करने के आशीर्वाद के साथ-साथ पारस पत्थर प्रदान किया। साधु ने राजा से कहा कि अपना भाला लेकर सीधे चले जाओ पीछे मत देखना जहाँ तुम्हारा घोड़ा रुक जाये, वहीं इस भाले को गाढ़ देना। वहाँ से अविरल जल बहेगा। उसी के किनारे पर तुम अपने राज्य की नींव रखना। तिमनपाल ने ऐसा ही किया एक जंगल में एक पहाड़ी की तलहटी में जाकर घोड़ा रुक गया, राजा ने वहीं पर अपना भाला गाढ़ दिया तथा विक्रम संवत 1105 (ईस्वी 1049) में अपने नये राज्य की नींव डाली। महमूद गजनवी के आक्रमणों से बचने के लिए यह दुर्ग पहाड़ियों में काफी अन्दर बनाया गया।

दस साल के अथक परिश्रम के बाद यह दुर्ग बनकर तैयार हुआ। इसे त्रिपुरार नगरी के नाम से भी सम्बोधित किया गया। तिमनपाल ने अपने बाहुबल से डांग क्षेत्र पर अधिकार किया और अलवर, भरतपुर एवं चम्बल क्षेत्र के साथ-साथ धौलपुर तक का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया। बत्तीस साल के शासन के बाद ई.1090 में तिमनपाल की मृत्यु हुई। तिमनपाल की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में राज्याधिकार को लेकर झगड़ा हुआ। इस कारण धर्मपाल त्रिपुरार छोड़कर चला गया तथा उसका भाई हरपाल तिमनगढ़ राज्य का शासक हुआ। उसके काल में यवनों के आक्रमण बढ़ गये। हरपाल बहादुरी से आक्रमणकारियों को खदेड़ता रहा। जब हरपाल वृद्ध हुआ तो धर्मपाल के बड़े लड़के कुंवरपाल ने राज्य की बागडोर संभाली। वह आस-पास के क्षेत्रों को जीतता हुआ बयाना पर भी अधिकार जमाने में सफल रहा। सम्वत् 1157 में कुंवरपाल बयाना और त्रिपुरार नगरी का शासक बना।

ई. 1196 में मुहम्मद गौरी ने यादवों के राज्य पर हमला किया। यादवों ने घनघोर संग्राम किया किंतु उन्हें बयाना और तिमनगढ़, मुहम्मद गौरी को समर्पित करने पड़े। इस लड़ाई में राजा धर्मपाल रणखेत रहा। अधिकतर राजपूत सैनिक भी लड़ाई में काम आ गए। दुर्ग की स्त्रियों ने जौहर किया। दुर्ग में जगनपौर के भीतर, सामने वाली छतरी के अन्दर एक शिलालेख लगा है जिसका आधा भाग दीवार में है। इसमें संवत् 1244 पूष सुदी 15 पूनो लिखा है, नीचे घोड़े का चिन्ह अंकित है। इससे अनुमान होता है कि वि.सं. 1244 में कुंवरपाल ने इसे पुनः हस्तगत कर लिया। उसी विजय के उपलक्ष्य में यह लेख लम्बे स्तंभ पर खुदवाया गया होगा। मुसलमानों के समय में त्रिपुरार नगरी को इस्लामाबाद के नाम से पुकारा जाता था। बाबर के समय में आलम खां इस किले का गर्वनर रहा।

राजा धर्मपाल के बेटे कुंवरपाल ने गौलारी में एक दुर्ग बनाया जिसका नाम कुंवरगढ़ रखा गया। तिमनेपाल के दो पुत्रों ने सिनसिनी (भरतपुर) तथा कुंवरगढ़ (झिरी भोमपुरा) आबाद किए तथा तीसरा पुत्र अजयपाल अपने पिता की पराजय का बदला लेते हुए कंधार में काम आया।
 उपलब्ध शिलालेख एवं प्रमाणों के आधार पर यह किला लगभग 1000 वर्ष पुराना । यद्यपि किले का अब खण्डहर रूप ही दिखाई देता है। | लेकिन इसकी वास्तुकला के आधार पर इसकी प्राचीनता अधिक है। वर्तमान में  इसका पूर्वी एवं पश्चिमी प्रवेश द्वार सुरक्षित है जिन्हें जगन पौर एवं सूर्य पौर के नाम से जाना जाता है। किले के चारो ओर 5 फीट चौडा एवं लगभग 30 फीट ऊँचा परकोटा बना हुआ है। किले के अंदर बाजार, मंदिर एवं तालाब के चिन्ह आज भी मौजूद है। प्राचीन ग्रंथों में तिमनगढ का नाम त्रिभुवनगिरी मिलता है। यहाँ समय के साथ-साथ अलग अलग धर्मावलम्बी शासको का राज्य रहा है। | इस किले के द्वारों पर परम्परागत गणेश जी की प्रतिमा के स्थान पर प्रेत व राक्षसों के चित्र उकेरे हुए है। निर्माण कार्य में पत्थरों को जोड़ने के लिए चूने का प्रयोग नहीं किया गया है। रंग शालाओं में शिलाखण्डों पर बेल-बूटे बने हुए हैं। किले में पूर्व की ओर फूटे महल राजगिरी एवं रनिवास तथा उत्तर की ओर एक महल दिखाई देता है। अंदर किले में ननद -भौजाई के कुंए , राजागिरि ,पक्का बाजार , तेल -कुआ , बड़ा चौक , आमखास , प्रसाद , मन्दिर , किलेदार के महल , खास महल , प्रधान छतरियां ओर उनसे जुड़े भीतरी गर्भ गृह तथा तहखाने देखने योग्य हैं ।किले में पानी के लिए तालाब भी बना हुआ है जिसके किनारे कमरे भी बने हुए है आगे चलकर 12 खम्भों की एक विशाल छत्री बनी हुई है जिसके अनेक खम्भे टूटे हुए है। यहाँ से देवी देवताओं के अनगिनत प्रतिमाऐं चुराई गई है जिन्हें असामाजिक तत्वों ने जगह जगह से खुदाई करके निकाला है। अनके जैन प्रतिमाऐं भी खुदाई के दौरान मिली है। 

मण्डरायल किला---

करौली से दक्षिण मे 40 किलोमीटर दूर चम्बल नदी के निकट मण्डरायल कस्वा है जिसकी ऊँची अरावली पहाड़ियों में  मंडरायल का  दुर्ग बना हुआ है जो करौली की स्थापना से पूर्व का है। 
इस किले का निर्माण संवत 1184 के लगभग बयाना के यदुवंशी शासक विजयपाल के पुत्र मदनपाल ने कराया था।कुछ किवदन्तियों के अनुसार माण्डव ऋषि के नाम इस दुर्ग का नामकरण होना मानते हैं ।माना जाता है कि जब  यदुवंशी इस क्षेत्र में आये थे तब भी यह दुर्ग मौजूद था।मंडरायल दुर्ग को ग्वालियर दुर्ग की कुंजी कहा जाता है ।यह दुर्ग लाल पत्थरों से बना हुआ है।
मध्यकाल मे सामरिक दृष्टि से यह महत्वपूर्ण किला था। दिल्ली सल्तनत का अधिकार इस किले पर लम्बे समय तक रहा है। यदुवंशी नरेश अर्जुन देव द्वारा करौली की स्थापना से पूर्व इस किले पर अधिकार किया, साथ ही नींदर गाँव मे एक गढी का निर्माण भी किया था। 1504 ईस्वी मे सिकन्दर लोदी ने इस किले पर अधिकार कर लिया तथा इसमें स्थित मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवाई ।सिकन्दर लोदी ने यहां स्थित विशाल उद्यान भी नष्ट करदिया ।1534 ईस्वी में गुजरात के शाह बहादुरशाह के सेनापति तातार खां ने इस दुर्ग को अधिकृत कर लिया। इस बाद हुमाँयू की सेना ने तातार खों से इस किले को छीन लिया।महाराजा गोपालदास ने इसे मुसलमानों से छीनकर करौली राज्य में सम्मलित किया।उसके बाद यह दुर्ग करौली राज्य में ही बना रहा ।वर्तमान में यह दुर्ग खण्डहर प्रायः हो चुका है।चम्बल नदी यहां से 5 किमी0 की दूरी पर बहती है।  करौली के राजा हरवख्स पाल के शासनकाल में 1820 ईस्वी के आसपास इस दुर्ग के अंदर वाल किला बनवाया।
इसके बाद यह किला निरन्तर करौली नरेशों के अधीन रहा। किले से लगभग 1 किलोमीटर पश्चिम में गैवरदान की गुफा तथा एक कब्र के अवशेष उपलब्ध है जहाँ ग्रामीण सर्प काटने तथा अन्य मनोतिया पूरी करने के लिए पहुंचते है।

 बहादुरपुर किला---

 जिला मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर मंडरायल  मार्ग पर वन क्षेत्र मे बहादुरपुर किला अपने अतीत का शाक्षी बनकर खण्डहर  स्थिति में खड़ा हुआ है। मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों और सुरक्षा सैनिकों के लिए प्रकोष्ठ बने हुए  है। साथ ही चारों ओर सुदृण परकोटा है। दरवाजे के अंदर उत्तर की ओर एक बावडी तथा कुआ है। किले के ये ही प्रमुख जल स्रोत थे।दरवाजे पर 1589   ईस्वी का एक शिलालेख है। अभिलेख में गोपालपुर लिखा होने से  लगता है कि इस किले का निर्माण राजा गोपालदास द्वारा कराया गया हो। किले के नीचे एक नदी बहती है।

उतगिरि के बाद करौली की राजधानी बहादुरपुर बनी जहाँ राजा गोपालदास का शासन था। आमेर की राजकुमारी रस कंवर से इनका विवाह हुआ था। सम्राट अकबर का दौलताबाद विजय में सहयोग करने पर इन्हें अजमेर का  सूबेदार बनाया गया था। आगरे के लाल किले की नीव भी 1506ई0 में अकबर  द्वारा इसी राजा से रखवाई गई थी । गोपालदास के बाद द्वारिकादास , मुकुंददास एवं छत्रमणी ने यहीं से करौली राज्य का शासन संचालित किया ।किले में द्वारका दास के एक अन्य पुत्र मगधराय का स्मारक बना हुआ है जहाँ लोग मनोतियाँ मांगने जाते हैं।

शहर किला एवं छतरी---

शहर का किला ऊँची पहाड़ी पर बना हुआ है तथा आज भी सुरक्षित एवं आबाद है। यहाँ के ठिकानेदार आमेर के राजा पृथ्वीराज के पुत्र पच्चाण के वंशज हैं। यहाँ देवी का प्राचीन मंदिर है जो शहर माता के नाम से पूजी जाती है। प्रतिवर्ष चैत्र नवरात्रा पर मेला भरता है। देवी मंदिर के पास ही सीतारामजी का मंदिर है। शहर के किले में 16 विशाल गुर्जो सहित चारों ओर परकोटा है। किले के चारों ओर गहरी खाई थी जिसके अवशेष आज भी मौजूद है। इसका मुख्य दरवाजा उत्तर दिशा में है साथ ही सोप दरवाजा, कैमा दरवाजा खूड दरवाजे भी प्रयोग मे लिये जाते रहे हैं। इनका नामकरण निकटवर्ती गांवों के नाम किया गया था।किले में जाने के  लिए घुमावदार सड़क है ।इसमें जनाने और मर्दाने महल ,सिलहखाना ,शस्त्र भण्डार तथा जल संग्रह के लिए दो टांके हैं कस्वे में लगभग 22 मन्दिर हैं।
निकटवर्ती गाँवो के नाम किया गया था। किले में जाने के लिए घुमावदार सड़क है। इसमे जनाने और मर्दाने महल, सिलहखाना शस्त्र भण्डार अन्न भण्डार तथा जल संग्रह के लिए दो टांके हैं। कस्बे में लगभग 22 मंदिर हैं।

फतेहपुर किला---

करौली जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूर कंचनपुर जाने वाले मार्ग पर स्थित यह किला यदु शासकों के एक बड़े जागीरदार हरनगर के ठाकुर घासीराम ने 1702 ईस्वी में इस किले का निर्माण कराया था। इसके बाद ठाकुर महा सिंह, भाव सिंह, चतर सिंह, संतोष सिंह गोपी सिंह, अकबर सिंह, सुगन सिंह एवं चन्द्र सिंह इसके किलेदार थे। यह किला यदुवंशियो की 16 शाखाओं का मुख्यालय माना जाता था। यह लगभग 250 वर्ष पुराना है। किले के अंदर आवासीय भवनों के अलावा पानी के टॉके एवं हनुमानजी का मंदिर है। किले के अंदर के भवनों की वास्तुकला पर मुगल एवं राजपूत स्थापत्य का प्रभाव दिखाई देता है। किले के चारों ओर की प्राचीर आज भी सुदृढ एवं सुरक्षित है। किले के नीचे फतेहपुर गाँव की आबादी है जिसमे राजपूतों के अलावा अन्य समुदायों के लोग भी रहते हैं। रियासतकाल में यह स्थान जयपुर एवं करौली स्टेट की सीमा मानी जाती थी।

किला नारौली डॉग----

यह किला तत्कालीन करौली एवं जयपुर रियासतों की सीमा पर बना हुआ है। रियासत काल मे नारौली के निकट जीरोता बडा गाँव था। यहाँ गहन वन होने के कारण पशु चरने के लिए आते थे। पशुओं के समूह को नार कहने से गॉव का नाम भी नारौली पड गया। ऊँची पहाड़ी पर बने हुए किले का निर्माण करौली के यदुवंशी मुकुंद पाल के बंशजो ने 1783 ईस्वी में करवाया। राजा माणिकपाल के जेष्ठ पुत्र अमोलक पाल एवं जयपुर रियासत के सेना नायक के बीच सीमा विबाद होने पर 1849 ईस्वी में लेफ्टीनेंट मोंकमेशन ने संधि करवाकर विवाद समाप्त करवाया था। संधि के बाद नारौली एवं उटगिरी पर अमोलक पाल का अधिकार हो गया। उस समय यहाँ के जागीरदार फूल सिंह थे, बाद मेयदुवंशी बडौत पाल, सामंत पाल, गजाधर पाल किलेदार बनें। गजाधर पाल के समय आय-व्यय का संधारण एवं व्यवस्थाएं पंडित लल्लू प्रसाद मुदगल द्वारा की जाती थी। सुरक्षा के लिए किले में ऊपर 150 सिपाही तथा नीचे डेरा मे 30 सिपाही तैनात थे। गाँव की सुरक्षा के लिए 5 चौकियों स्थापित थीं, जिन पर 20 सिपाही रहते थे। राजा भँवर पाल ने किले के चारों ओर परकोटा एवं कचहरी का निर्माण करवाया। इस किले पर दो तोपें रहती थीं साथ ही बारूद का भी समुचित भण्डारण रहता था। किले के अंदर पानी के तीन टाके भी थे। यह गाँव तत्कालीन नरेशो का शिकारगाह भी था। वर्तमान मे देखरेख के अभाव मे किला अपने गौरव को खो रहा है।



भँवर विलास पैलेस---

करौली के पूर्व शासक रहे राजा भँवर पाल के नाम से पूर्व नरेशों का यह आवास उत्कृष्ट वास्तु एवं शिल्प समेटे हुए नगर के दक्षिण मे मण्डरायल रोड पर स्थित है। यह महल लगभग 2 किलोमीटर परिधि मे घिरा हुआ है। वर्तमान मे इस परिसर में स्थित दो अलग-अलग भवनों में 47 कमरे एवं वातानुकूलित यात्री निवास का उपयोग हैरीटेज होटल के मे किया जा रहा है। यहाँ राजस्थानी तथा अन्य भारतीय भोजनों की व्यवस्था पर्यटकों को उपलब्ध है। हैरीटेज होटल मे स्विीमिंग पूल के अलावा घुडसवारी, ऊँटसवारी तथा घोडा और ऊँट गाडी की सवारी का आनंद भी पर्यटक लेते है। राजस्थानी संस्कृति को साकार करने के लिए यहाँ विदेशी महिला पर्यटको को मेंहदी रचाने तथा अन्य श्रृंगार की सुविधाऐं भी मुहैंया हैं। स्थानीय स्तर पर लगने वाले पशु मेले तथा प्रमुख धर्म स्थल श्री मदनमोहनजी एवं कैलादेवी के मंदिरो की शिल्प कला तथा कैलादेवी अभयारण्य की प्राकृतिक छटा भी पर्यटको को आकर्षित करती है। करौली नगर के बाजारों में भ्रमण करके आगन्तुक पर्यटक यहाँ की संस्कृति एवं रहन सहन को भी रूचि से देखते हैं।
ये बेजोड़ नमूने आज भी आकर्षित करते हैं। शिशिर ऋतु में विदेशी पर्यटकों का करौली की ओर अधिक झुकाब रहता है। इस हैरीटेज होटल का प्रधान कार्यालय जयपुर है। करौली मे भी एक होटल प्रबंधक का कार्यालय है। संपर्क के लिए यहाँ दूरभाष एवं इन्टरनेट बेव साईट की सुविधा भी है।

रामठरा किला---

रामठरा दुर्ग भारत के प्रमुख वन्यजीव अभयारण्य रणथम्भौर एवं घना पक्षी बिहार भरतपुर के बीच करौली जिले के सपोटरा उपखण्ड में स्थित रामठरा फोर्ट कैलादेवी राष्ट्रीय अभयारण्य से मात्र 15 किलो मीटर दूर है। जयपुर आगरा एवं देहली स्वर्ण त्रिभुज राष्ट्रीय मार्ग के दक्षिण में इस स्थान पर जयपुर से सडक मार्ग द्वारा 4 घंटे मे तथा सवाई माधौपुर से 2 घंटे मे पहुॅचा जा सकता है।

इस दुर्ग की स्थापना करौली के यादवों द्वारा की गई थी ।इसके निर्माण का प्रारंभिक समय ज्ञात नहीं है । 1645 ईस्वी मे करौली के महाराजा ने अपने पुत्र भोजपाल को जागीरदार बनाकर इस किले का अधिकारी बताया।दुर्ग में भगवान गणेश का मंदिर एवंम एक शिव मंदिर दर्शनीय है।शिव प्रतिमा सफेद संगमरमर से बनी हुई  है तथा 18वीं शताब्दी के मूर्तिशिल्प का प्रतिनिधुत्व करती है। बहुमंजिले किले की इमारत परम्परागत भवन निर्माण शैली में बनी हुई है साथ ही किले के चारो और सुरक्षा की पर्यटकों को ठहरने के लिए 6 आलीशान तंबू किले के अंदर बनाये गए है। किले के परकोटों के सामने चारों ओर  आंगन के रूप में बगीचा लगा हुआ है ।रामठरा किले की चार दीवारी के गुम्बदों एवं किले की छतों पर चढ़कर पर्यटक  डॉग क्षेत्र , कालीसिल झील तथा देहात की गतिविधियों का नजारा अभिभूत हो जाता है।

हरसुख विलास--

करौली में आने वाला प्रत्येक अतिथि हरसुख विलास की वास्तु एवं शिल्प से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। करौली के राजा हरबख्स पाल द्वारा 1835 ईस्वी में इसका निर्माण शुरू किये जाने के कारण इस भवन का नाम हरसुख विलास रखा गया। निर्माण के बाद से ही इसका उपयोग अतिगृह के रूप में किया जा रहा है। यद्यपि भवन मे कुल 4 अतिथियों के प्रवास की व्यवस्था है किन्तु इस भवन में प्रवेश करने के बाद इसकी वास्तुशिल्प देखकर दर्शक धन्य हो जाता है। बेल बूटेदार छत एवं दीवारों पर उत्कृष्ट शिल्पकारी आगन्तुकको अभिभूत कर देती है। इस भवन के निर्माण के दौरान 1871 ईस्वी में करौली रियासत के दीवान रहे नंद लाल नेहरू का कुशल निर्देशन भवन की ऐतिहासिकता को अधिक महत्वपूर्ण बना देता है। उल्लेखनीय है कि नंदलाल नेहरू पंडित मोती लाल नेहरू के भाई थे। भवन के चारों ओर लगाया गया बाग  तथा पोर्च की डिजाइन पहाडी शैली की है। वाग मे लगे हुए अनेक पेड दुर्लभ एवं आकर्षक हैं।

गोपालसिंह की छतरी ---

करौली के विकास के सूत्रधार राजा गोपाल सिंह के स्मारक को श्रद्धालु एक देवस्थान के रूप में पूजते हैं। 1724 ईस्वी में अपने शासन के दौरान इन्होंने करौली राज्य की सीमा का विस्तार चम्बल नदी को पार करके ग्वालियर के निकट सिकरवारी  तक किया था। इन्होने मदनमोहनजी का भव्य मंदिर बनवा ।राज प्रासादों का विस्तार किया तथा नगर सौन्दर्यीकरण एवं सुरक्षा के लिए सड़क एवं परकोटे नर्माण करवाया। इनका देहावसान फरवरी 1757 ई0 में हो गया ।भद्रावती नदी  के किनारे बने हुए बाग में इनकी स्मृति में बने हुए स्मारक में  गोपालसिंह के चरण बने हुए  है। भद्रावती नदी के किनारे बने हुए इस राजा के देवल के पास ही इनके पिता कुंवरपाल की भी छत्री है। प्रत्येक सप्ताहके सोमवार को यहां पहुँच कर लोग  मनोतियां मानते हैं। लोगों का विश्वास है कि अनेक चाहे हुए कार्य इस आस्था केंद्र  को पूजने के बाद पूरे हो जाते है।

सुख विलास वाग एवं शाही कुण्ड ---

भद्रावती नदी के किनारे स्थित इस बाग का उपयोग रानियां अपने आमोद -प्रमोद के लिए करती थीं ।इसका प्रमुख द्वार पश्चिम की ओर खुलता है तथा दूसरा उत्तर की ओर है।बाग के चारों ओर पक्का परकोटा बना हुआ है तथा चारों कोनों एवं बीच-बीच में गुम्बद भी बनी हुई हैं । उत्तरी द्वार से बड़ी-बड़ी सीढ़ीयां नदी की ओर बनी हुई है, जहाँ से रानियाँ नदी में स्नान करने आती थी। नदी मे पानी का बहाव नहीं होने की स्थिति में पश्चिम की ओर एक शाही कुण्ड भी बना हुआ है। इस वाग एवं शाही कुण्ड का निर्माण राजा प्रताप पाल ने 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में किया था। इस कुण्ड में चारों ओर से सीढियाँ उतर कर स्नान के लिए जाने की सुविधा है, साथ ही एक द्वार अलग से सुख विलास बाग की ओर खुला हुआ है। सम्पूर्ण व्यवस्था परदा नसीन महिलाओं के लिए की गई थी,  जहाँ पुरुषों का आना जाना सामान्य रूप से संभव नही था। बाग में विभिन्न प्रजाति के फलदार एवं छायादार वृक्ष लगे हुए थे। वर्तमान में यह बाग निजी अधिकार में है तथा शाही कुण्ड सरकारी सम्पति है।पुरातत्व की दृष्टि से बाग व शाही कुण्ड की वास्तु एवं शिल्प कला अद्वितीय है।

 बैठे हनुमानजी एवं शिवालय---

यह धर्म स्थल सुखविलास बाग एवं शाही कुण्ड के निकट ऊँचे टीले पर स्थित है। धार्मिक राजा प्रताप पाल की इस स्थल के विकास एवं संरक्षण में विशेष रूचि थी उन्होंने अपने गुरु की सलाह पर यहाँ एक शिवालय एवं हनुमानजी की बैठी हुई प्रतिमा की स्थापना कराई साथ ही स्थापना के समय एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। शिवालय में स्थित शिवलिंग तथा पंचायतन की अन्य प्रतिमाऐं आकर्षक है। मंदिर के ऊपर बने हुए गुम्बद में तथा चारों ओर पौराणिक आख्यानों पर आधारित चित्रकारी महत्वपूर्ण है। शिवालय के बाहर बैठे हुए हनुमानजी की प्रतिमा तथा विशाल नंदीश्वर है। लोगों की मान्यता है कि शिवलिंग एवं बैठे हनुमान जी की प्रतिमाएँ चमत्कारी हैं। कहते है कि यहाँ कलुषित भावनाओं वाले व्यक्ति को विशेष हानि उठानी पड़ती है।मन्दिर के बाहर एक कुआ तथा कुश्ती प्रेमियों के लिए अखाडा बना हुआ है। संरक्षण के अभाव में अब इस धर्म स्थल की सुरक्षा के लिए बना हुआ परकोटा टूट चुका है। यहाँ श्रद्धालुओं को आने जाने के लिए परकोटे में एक खिड़की भी बनी हुई है , जिसका संबंध गोपाल सिंह जी की छत्री से है।

अंजनी माता का मंदिर--

करौली की स्थापना के प्रतीक अंजनी माता के मंदिर का निर्माण 1348 ईस्वी में हुआ था।राजा अर्जुन पाल ने अंजनी माता के मंदिर का निर्माण कराया था। यदुवंशी नरेशों की कुलदेवी होने के कारण नगर की स्थापना से पूर्व देवी एवं पाताली हनुमान की स्थापना की गई। यह मंदिर विरवास नामक गाँव के निकट बना हुआ है। जनश्रुति के अनुसार यहाँ यदुवंशियों की सेना की छाबनी थी। यहाँ आज भी अनेक मकान खण्डहर स्थिति मे बने हुए हैं साथ ही शहीद हुए अनेक सैनिकों के स्मारक भी पाँचना पुल के पास बने हुए हैं।

संदर्भ---
1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा 
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी 
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी 
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली 
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास 
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं 
करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र 
14-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
15-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन 
16-करौली का यादव राज्य ;रणबांकुरा मासिक में (जुलाई 1992 ) कुंवर देवीसिंह मंडावा का लेख ।

लेखक -डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लाढोता ,सासनी 
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि मृदा विज्ञान 
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राज

Comments

Popular posts from this blog

जादों /जादौन (हिन्दी ) /पौराणिक यादव (संस्कृति शब्द ) चंद्रवंशी क्षत्रियों का ऐतिहासिक शोध --

History of Lunar Race Chhonkarjadon Rajput---

Vajranabha, the great grand son of Shri Krishna and founder of modern Braj and Jadon Clan ( Pauranic Yadavas /Jaduvansis ) of Lunar Race Kshatriyas-----