करौली के यादवों का प्रसिद्ध ऊंटगिर दुर्ग एक वीरता का प्रतीक

करौली के यादव राजपूत राज्य के ऊंटगिर दुर्ग का  ऐतिहासिक अवलोकन ---


 करौली क्षेत्र मे ऊंटगिर के किले को मध्यकालीन राजपूताने के विशाल दुर्गों में माना जाता है ।यह दुर्ग घने जंगल के भीतरी भाग में स्थित है ।दुर्ग के आस -पास कोई भी  वस्ती की बसावट नहीं है।जंगली क्षेत्र को पार करके दुर्ग तक पहुंचना बड़ा दुष्कर व कठिन कार्य है।जंगली जानवरों का भी डर रहता है इस बजह से इस विशाल दुर्ग पर अधिक शोधकार्य भी नहीं हो पाया जिसकी बजह से इस दुर्ग के विषय में कम जानकारी है ।


स्थानीय मान्यताओं के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण लोधी जाति के लोगों ने करवाया था ।इस जाति के लोग बीहड़ पहाड़ी चम्बल किनारे वाले इस क्षेत्र पर लम्बे समय से ही कब्जा किये हुए थे ।उन्होंने ही समय-समय पर यहां पर बांध और तालाब बनवाये।

मुगल इतिहासकारों ने उतगढ़ को भिन्न -भिन्न नामों से लिखा है जैसे  उदितनगर ,उन तगर,अवन्तगर, उटनगर, उटगर ,अवन्तगढ़ , अंतगढ़ और अनुवंतगढ़ है।इसका वास्तविक  या शुद्ध नाम उतगढ़ या अवन्तगढ़ है।मुगल इतिहासकारों ने सुल्तानेत काल का इतिहास लिखते समय बार-बार इस किले का वर्णन किया है यह दुर्ग करौली राज्य के भू -भाग में ग्वालियर ओर नरवर के बीच  में करनपुर के पश्चिम में कल्याणपुर के पास स्थित है ।करौली नगर से यह दुर्ग 40 किमी दक्षिण पश्चिम में है ।दुर्ग तीन तरफ से उन्नत पहाड़ियों एवं सघन वन क्षेत्र से घिरा हुआ है ।दुर्ग का नाम किसी शासक के नाम पर होने के कोई प्रमाण नहीं प्राप्त हुए है ।यह दुर्ग 4किमी0 की परिधि में पक्के परकोटे द्वारा बना हुआ है ।दुर्ग के नीचे झरने,तालाब और सतियों की खंडित छतरियां है।दुर्ग के चारों ओर उन्नत एवं सुद्रढ़ प्राचीर हैं।दुर्ग में जाने के लिए दो विशाल दरवाजेओर एक बारीहै।इमली वाली पोल इसका मुख्य द्वार है  दुर्ग में कई भवन ,तालाब ,मंदिर आदि है जो जीर्ण -शीर्ण हो चुके है ।दुर्ग के आस-पास सघन जंगल है जिसमें होकर जाना खतरे से खाली नहीं है।कल्याणपुर से एक छोटा रास्ता वन भाग को चीरता आगे बढ़ता है।चीते ,बाघ ,भालू आदि हिंसक जानवरों का हर समय भय बना रहता है।दुर्ग में 7 मन्दिर व 2 टाँके है ।दुर्ग के मुख्यद्वार पर श्री गणेश जी की मूर्ति है।सम्पूर्ण किले में हिन्दू -संस्कृति  स्पष्ट रूप से दिखाई देती है ।उतगिरि में 6 ऐसे प्राकृतिक स्थल है जहां ऊँची पहाड़ियों से बड़े प्रवाह से लगभग 100 फ़ीट ऊंचाई से शिवलिंगों पर  पानी गिरता है ।ये धार्मिक स्थल महेश्वर ,भोलेश्वर ,कुरकेश्वर ,मुकुलेश्वर ,घंटेश्वर व उतगिरि है ।


ऊंटगिर दुर्ग पर इस प्रकार हुआ यदुवंशियों का कब्जा-----


करौली नगर के संस्थापक महाराजा अर्जुनपाल जी ने  सम्वत 1397  में इस दुर्ग को लोधीयों को खदेड़ कर हस्तगत कर लिया था। पहले यह प्रदेश लोधा लोगों के कब्जे में था जो मंडरायल और उतगिरि के बादशाही हाकिमों को खिराज देते थे।महाराजा अर्जुनपाल ने इस क्षेत्र पर अधिकार करने के बाद लोधा लोगों से मालगुजारी भी बसूल की।लोधों के बनवाये हुए बन्द और तालाब अब भी मौजूद है।अब  इस क्षेत्र में गुजर व मीना जाति का बाहुल्य है। महाराजा अर्जुनपाल के बाद ई0 सन 1361 में  विक्रमादित्य करौली के महाराजा बने ।उसके बादई0 सन 1382 में अभय चंद,1403 में प्रथ्वीराज महाराजा बने जिन्होंने ग्वालियर के राजा मानसिंह तंवर पर हमला किया था बाद में मुसलमानों ने तिमनगढ़ पर कब्जा कर लिया जिसे यदुवंशियों ने फिर हटा दिया ।ऐसा कहा जाताहै कि इसके बाद करौली के महाराजा उदय चंद्र जी सं0 1480 में हुए जिन्होंने तिमनगढ़ को  ही अपने राज्य की राजधानी बनाया और यहीं से शासनकार्य किया ।


महाराजा प्रतापरुद्र लाये अपनी राजधानी तिमनगढ़ से उंटगिर----


उदयचंद जी के बाद उनके छोटे पुत्र प्रताप सिंह  तिमनगढ़ की गद्दी पर बैठे।ये राज्य शासन तिमनगढ़ से उतगिरि ले गये ।इनका राज्यभिषेक विक्रम सम्वत 1435 में हुआ ।उस वक्त मुहम्मदशाह बादशाह दिल्ली का शासक था।जागीर में बयाना सिद्धपाल जादों को दे दिया ।उसने तिमनगढ़ भी ले लिया ।प्रतापसेन के अधिकार में केवल उतगिरि ही रहा । करौली ,उंटगिर तथा देवगिरि ही इनके कब्जे में रहे। 


महाराजा चन्द्रसेन रहे ऊंटगिरि में---

 

महाराजा चन्द्रसेन जी का देवगिरि में  राज्यभिषेक ई0 1449 में हुआ ।ये धर्मात्मा राजा थे जोश्री कृष्ण जी की भक्ति में ही रहते थे ।ई0 सन 1454 में मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी ने करौली पर चढ़ाई करदी ।उस समय करौली के राजा महाराजा चन्द्रसेन ही थे। महाराजा चन्द्रसेन मालवा के सुल्तान का सामना नहीं कर सके जो उनके राज्य में घुस आया और उनकी राजधानी उसने लूटी ।विजयी सुल्तान अपने पुत्र  फिदवी खां को करौली सौंप कर अपनी राजधानी चला गया ।उस समय चन्द्रसेन जी चम्बल किनारे उंटगिर चले गये और वहीं पर रह कर चन्द्रसेन जी ने यदुवंशियों की शक्ति का संचय करने का प्रयास किया ।इन्होंने ही उतगिरि किले का जीर्णोद्धार करवाया।ऐसा प्रतीत होता हैकि महाराजा चन्द्रसेन जी तथा उनके उत्तराधिकारी अपने सुरक्षित स्थान के निकट थोड़े से प्रदेश पर तब तक अधिकार बनाये रहे जब तक अकबर के समय उसके एक उत्तराधिकारी गोपालदास जी ने उस क्षेत्र का कुछ भाग प्राप्त न कर लिया ।



ऊंटगिर के दुर्ग में यदुवंशियों और सिकन्दर लोदी की सेना में खूनी-संघर्ष–-–-----


912हि0 में अगस्त नक्षत्र के उदय होने के बाद लगभग दिसंबर 1506ई0 में सुल्तान सिकन्दर लोदी उतगिरि के किले पर जिसे ग्वालियर की कुन्जी समझा जाता था ,आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ ।धौलपुर पहुंच कर सुल्तान ने अग्रिम दस्ते के रूप में एमाद खां फमुंली एवं मुजाहिद खां के नेतृत्व में कई हजार अश्वारोही एवं 100 हाथीयों को उतगढ़ की ओर भेजा एवं स्वयं कुछ दिनों तक धौलपुर में रह कर वहां की व्यवस्था सम्पन्न करता रहा।सम्भवतः अग्रिम दस्ते को कोई सफलता प्राप्त नहीं हो सकी।अतः सुल्तान स्वयं 23 रमजान 911हि0 /6 फरवरी 1507 को किले के समीप आकर उसका घेरा डाल दिया ।सुल्तान ने ज्योतिषियों द्वारा बताए गए शुभमुहूर्त में किले पर आक्रमण प्रराम्भ किया।दोनों पक्षों में घोर संघर्ष प्रारम्भ हो गया ।"सैनिक चींटियों ओर टिड्डियों की भांति चिपक कर वीरता प्रदर्शित करने लगे ।"इस संघर्ष के दौरान मालिक अनाउद्दीन के संघर्ष स्थल पर किले में दरार पड़ गई जिससे शाही सेना किले में प्रविष्ट होने में सफल हो गई।


 किले वालों ने शाही सेना के प्रवेश के वावजूद उनका प्रतिरोध जारी रखा।मुस्लिम लेखकों का कथन है कि यद्धपि किले वालों ने क्षमायाचना का अत्यधिक प्रयत्न किया ,किन्तु उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।फलस्वरूप यदुवंशियों ने भी अंतिम समय तक प्रतिरोध जारी रखने का निश्चय किया ।दुर्गवासियों ने दुर्ग में प्रत्येक घरों तथा भवनों में मुस्लिम सेना का प्रतिरोध किया ।वे अपने परिवार वालों को मुस्लिम भक्षक से बचने के लिए या तो तलवार के घाट उतार देते थे अथवा उन्हें जौहर प्रथा के अनुसार जला देते थे ।दुर्गवासियों के साथ इसी संघर्ष में किले का सर्व प्रथम विजेता मलिक अलाउददीन में आँख में तीर लग जाने से उसे अंधा हो जाना पड़ा।इस प्रकार पग-पग पर भीषण संघर्ष के उपरान्त उतगढ़ का सुप्रसिद्ध किला सुल्तान सिकन्दर लोदी के अधिकार में आ सका।

 ‎  सुल्तान के किले पर आधिपत्य के बाद वह किला मियाँ मकन तथा मुजाहिद खां को सौंप दिया।उसने उस प्रदेश में स्थित मन्दिरों को गिराकर मस्जिदों का निर्माण कराया।प्रतीत होता है कि दुर्ग के समीपस्थ स्थानों के हिन्दू अभी भी सक्रिय थे ।दुर्ग के निर्वासित राजा ने मुजाहिद खां को घूस देकर इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वह सुल्तान को उपर्युक्त किला छोड़कर वापस जाने के लिए प्रेरित करेगा ।जब सुल्तान को इन बातों की जानकारी हुई तो उसने 16 मुहर्रम 913हि0 /28 मई 1507 ई0 को मुजाहिद खां के विश्वासपात्र मुल्ला जमन को बन्दी बना लिया और मलिक ताजुद्दीन को किला सौंप दिया ।सुल्तान ने धौलपुर के खान लोगों को आदेश दिया कि वे मुजाहिद खान को बन्दी बना लें।

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 ‎सिकन्दर लोदी किले की उपर्युक्त व्यवस्था करके आगरा वापस चला गया।मुस्लिम लेखकों का कथन है कि यात्रा में एक दिन मार्ग के संकीर्ण तथा असमतल होने के कारण सेना को अनेक कष्ट सहने पड़े।बहुत से लोग जल के अभाव ,भीड तथा पशुओं की अधिकता के कारण नष्ट हो गये ।स्थिति ऐसी हो गई कि "पानी के एक गिलास (मखजन के अनुसार घड़ा) का मूल्य 15 टंका तक हो गया।" बहुत से लोग प्यास के  कारण मर गये और बहुत से लोग ज्यादा पानी पीकर भी मर गये ।सुल्तान ने जब अपने व्यक्तियों की गिनती कराई तो पता चला कि 800 व्यक्ति मर गये ।इस कष्ट को झेलता हुआ सुल्तान 9 जून 1507 को धौलपुर पहुंचा ।वहां कुछ दिन ठहरने के बाद सुल्तान आगरा आ गया।

 ‎ वुल्जले हेग का कथन है कि उतगिरि से आगरा के सामान्य मार्ग में जल का अभाव नहीं था।सुल्तान द्वारा इस जलहीन मार्ग का अनुसरण राजा मान सिंह तंवर के आक्रमण के भय के कारण ही किया गया था।हरिहर निवास  द्विवेदी ने भी इसी प्रकार का मत व्यक्त किया है ।

 ‎ कुछ समय बाद उंटगिर का दुर्ग नव - मुगल अधिकारी हसन खां को ,जिसका पुराना नाम राय डूंगर (उदीकर्ण) था ,सौंप दिया गया ।"तबकाते अकबरी" के वर्णन से पता चलता है कि अवन्तगढ़ के इस नए अधिकारी को अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था।यहां अनुमान का विषय है कि सम्भवतः किले के निष्काषित यदुवंशी राजपूत किले को पुनः हस्तगत करने का प्रयास कर रहे होंगे।संभवतया यही कारण है कि सुल्तान ने खानेखाना फमुर्ली के पुत्र सुलेमान को सेना लेकर उसकी सहायतार्थ प्रस्थान करने का आदेश दिया किन्तु सुलेमान ने वहां जाने में आनाकानी की ।फलस्वरूप सुल्तान ने उसे इन्द्री (करनाल जिले में स्थित) परगने में भेज दिया।

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 ऊंटगिर के दुर्ग का करौली के यदुवंशियों द्वारा 15वीं सदी में पुनः हस्तगत करना-----


मुस्लिम श्रोतों में आगे अवन्तगढ़ में किसी अन्य सहायता भेजने का उल्लेख नहीं मिलता है।इसका तात्पर्य यह है कि राजपूतों ने उतगिरि के दुर्ग को करौली के जदौनों ने पुनः हस्तगत कर लिया ।महाराजा चन्द्रसेन जी ने अपने पौत्र गोपालदास जी को अपना उत्तराधिकारी बनाया था।


सम्राट अकबर भी आया था उतगिरि के दुर्ग में  महाराजा चन्द्रसेन से मिलने-----


सम्राट अकबर ने ई0 1566 में आगरा के किले की नींव राजा गोपालदास के हाथों ही रख वायी थी ।

ऐसा कहा जाता है कि सम्राट अकबर भी एक बार सेना के साथ दक्षिण में दौलताबाद के दाऊद खां पर धावा करने को जाते समय रास्ते में उतगिरि किले पर पहुंचा और चन्द्रसेन जी का दर्शन किया तथा दौलतावाद विजय का आशीर्वाद प्राप्त किया और गोपालदास जी को भी सेना में दक्षिण क्षेत्र में लेगया।गोपालदास जी ने दक्षिण विजय में बादशाह को प्रसन्न करके अपने पैतृक राज्य का कुछ भाग जिसमे उतगिरि भी शामिल था पुनः वापस ले लिया ।अकबर के शासन काल में यह सम्पूर्ण क्षेत्र पुनः गोपालदास जी के अधिकार में रहा।उसके बाद से अंतिम मुगल सल्तनत तक इस क्षेत्र पर यदुवंशी जादौन राजपूतों का ही अधिकार रहा ।

 यह उतगिरि का दुर्ग बहुत प्राचीन था जिसको सिकन्दर लोदी के आक्रमण ने भारी क्षति पहुंचाई थी ।इस लिए महाराजा हरबख्शपाल जी ने इस दुर्ग की मरम्मत के साथ  इसके अन्दर एक सुदृढ़  बाला किले का निर्माण भी कराया जो कि एक कोने में स्थित है जिसकी प्राचीरें अतीव उन्नत एवं सुदृढ़ है।इस बाला किले में पानी के बड़े गहरे भंडार है।मुख्य द्वार पर रानियों के महल बने हुए है ।यहां 7 मन्दिर तथा दो बड़े तालाब स्थित है ।किले के एक स्थान का नाम मियांपाड़ा है।

 ‎ वीरविनोद के अनुसार राजा जगमनी जी ने उतगिरि का किला अपने बेटे अमरभान को संभाल वाया लेकिन बाद में आपसी झगड़ों के कारण महाराजा माणिकपाल जी ने यह दुर्ग अमोलक पाल जी से सन 1802 ई0 में छीन लिया ।

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 ‎रियासत के मध्य चरण में इस दुर्ग का सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्व आंका गया।करौली शासक लड़ाई के समय अपने खजाने ओर जनाने को इसी दुर्ग में सुरक्षित किया करते थे ऐसा कहा जाता है ।इस प्रकार उतगिरि के दुर्ग का भी इतिहास बहुत संघर्षमय रहा है ।इस दुर्ग ने भी मुगलों के आक्रमणों की यातनाओं को  बखूबी झेला है ।


लेखक डा o धीरेन्द्र सिंह जादौन

प्राचार्य राजकीय कन्या महाविद्यालय सवाईमाधोपुर

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