प्राचीन नगर महावन क्षेत्र के ग्राम बन्दी में विराजमान बन्दी , आनंदी एवं मनोवांछा देवियों का ऐतिहासिक शोध

प्राचीन नगर महावन क्षेत्र के  ग्राम बन्दी  में विराजमान बन्दी ,आनंदी तथा मनोवांछा देवियों का ऐतिहासिक शोध  ---



 ब्रजमंडल में यदुवंशियों  की प्राचीन एवं ऐतिहासिक राजधानी महावन क्षेत्र का बन्दी एक  जादौ राजपूतों  का बड़ा तथा विकसित गाँव है। बलदेव नगर से 4 कि.मी. पश्चिमोत्तर दिशा में बल्देव से राया वाले मार्ग पर स्थित है। 



बन्दी ,आनंदी तथा मनोवांछा देवीयों का  पौराणिक इतिहास -----


 एक पौराणिक कथा के बारे में भ्रामक अर्थ समझने का बड़ा रोचक उदाहरण मथुरा जिले में बलदेव -राया मार्ग पर स्थित जादौ राजपूतों के बहुत बड़े एवं प्रसिद्ध गांव बंदी में मिलता है ।इस गांव में बंदी,आनंदी और मनोवांछा देवी का मंदिर है ।इन देवियों के इतिहास के विषय में कई किवदंतियां है ।


बंदी का इतिहास बहुत प्राचीन है। इस संबंध में ब्रह्मवैवर्त पुराण एवं आनंद रामायण में चर्चा है। आनंद रामायण में बंदी को यमुना से सात (लगभग 7 मील) दूर बिंदुसार नगरी नाम से बताया गया है। बताते हैं कि बंदी, राजा बिंदुसार की राजधानी थी। राजा बिंदुसार की एकमात्र पुत्री का नाम बिंदा था। इधर राजा इंद्र के अहंकार का मर्दन करने भगवान शंकर ने अपने क्रोध से जलंधर नाम के एक युवा को समुद्र से उत्पन्न किया था। बिंदा बड़ी पतिव्रता थी और बंदी में ही अपने पति के साथ राज करती थी। बिंदा को यह वर मिला था कि उसके अखंड सतीत्व तक इसके पति को कोई हानि नहीं पहुँचा पायेगा। छलपूर्वक बिंदा का सतीत्व खंडित किया गया। विष्णु के छल करने पर बिंदा ने भगवान विष्णु को शाप दे दिया।

अभिशाप से दुखित हो लक्ष्मी जी ने बिंदा को शाप दे दिया कि तुम लकड़ी हो जाओ। बिंदा पति के पार्थिव शरीर के साथ ही अग्नि में जलकर सती हो गयी। जिस स्थान पर बिंदा सती हुई थी उस स्थान को 'विंदाग' के नाम से जाना जाता है। इस स्थल पर ही यहाँ के क्षत्रियों के प्रथम मुंडन संस्कार होते हैं।

लक्ष्मी जी के शाप के अनुसार बिंदा तुलसी, कुमोदिनी, सरोजनी आदि तीन रूप में हो गई। इधर भगवान विष्णु प्रायश्चित हेतु बिंदा की भष्मी को शरीर पर मलने लगे जिससे भयभीत हो लक्ष्मी, ब्रह्मा एवं समस्त देवता बिंदुसर पर आये। ब्रह्मा जी ने यहाँ पर नई सृष्टि की रचना की तथा इसी सर के निकट बिंदा को तीनों रूपों में प्रकट किया। ब्रह्मा जी ने तुलसी बंदी देवी के रूप में, कुमोदिनी को आनंदी देवी के रूप में, तथा सरोजिनी को मनोवांछा देवी के रूप में प्रतिष्ठापित कराया। ये तीनों आज भी देवी के मंदिर में विराजमान हैं। बताते हैं कि मुगलों की सेना के आक्रमण के काल में तीनों मूर्तियां कुंड में विलीन हो गई थीं। इनको बाद में आगरा निवासी लाला घासीराम ने बिंदुसर से निकलवाकर पुनः मंदिर में प्रतिष्ठित कराया।

बिंदुसर के निकट ही लगभग एक बीघा पक्के में तीनों देवियों के मंदिर-धर्मशाला एवं मंदिर का बगीचा स्थित है। एक भवन में बंदी मैया सिंहासन पर विराजमान हैं तथा 

दूसरे भवन में आनंदी मैया व मनोवांछा देवी हैं। बंदी देवी व आनंदी देवी की प्रतिमाओं के ऊपर कोई शिखर नहीं है। बंदी मैया की मूर्ति लगभग साढ़े तीन फुट ऊँची सांवले रंग की है जबकि आनंदी मैया 5 फीट ऊंची विराजी है, तो मनोवांछा की ऊँचाई तीन फीट और सांवले रंग में ही है। देवी के मंदिर में मुंडन भी यहीं होता था।

एक किवदंती के अनुसार बंदी -आनंदी यशोदा जी की दो परिचारिकाएं थी जिनका विशेष काम गायों के वाडे की सफाई और उनके कंडे वानाना था ।किन्तु मंदिर के आँगन में शिलालेख जो सम्वत 1575 का है उसमें आनंदी का कोई उल्लेख नहीं है ।कुछ भाग अस्पस्ट है किन्तु जो शब्द पढे जासकते है वो इस प्रकार है "स्वस्ती श्री सर्वो परि व्रज नंदन बंदी जी ।तस्य सेवक ।"इससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि आनंदी का नाम पंक्ति की तुकांत करने के लिए जोड़ा गया है और वहां पर एक और पुराणी आकृति देखी गयी है जिसका कोई नामहोना चाहिए ।मूल शब्द बंदी अकेला था।गोकुल गोसाई इस सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हैऔर इसके प्रादुर्भाव को बताते हुये वन यात्रा की नाटकीय प्रस्तुती में बंदी में गोबर लीला को नियमित दृश्य के रूप में दिखाते है ।किन्तु यहां के निवासी इस बात को स्वीकार नही करते है और कहते है कि स्थानीय जो देवी है वो कृष्ण के समय सेपहले ही पूजी जाती रही है और भगवान् श्री कृष्ण के केस मुंडन के बाद प्रथम केशोत्सर्जन कर यहां लाया गया था जो बंदी की प्राचीनता और मथुरा के भगवान् श्री कृष्ण केसंबंध को सिद्ध करती है ।दोनों ही देवियों की मूर्तियां  जिन्हें यशोदा जी की परिचारिकाएं माना जाता है वो देवी दुर्गा की मूर्तियाँ है ।एक में उनको आठ भुजाओं के साथ महिषासुर का दमन करते हुये देखा जा सकता है और दूसरी मूर्ति में जो उस की आधुनिक पृकृति है जिसे वृंदावन में बनाया गया है जिसमें चार भुजाएं ,दो मालाएं गले पर दो सर के ऊपर दिखाई देती है।

 श्रीजी की सखियां बंदी-आनंदी से ब्रजवासी बहुत स्नेह करते है ।शायद इस लिए लोक परम्पराओं से पोषित बंदी -आनंदी देवी के रूप में पूजी जाने लगी ।



एक अन्य किवदंती के अनुसार कंस के कारागार में प्रकट होने वाली योगमाया ही बंदी में तीनों रूपों में विराजी हैं। एक रूप में वह बंदी देवी  है जब भगवान श्रीकृष्ण के  माता - पिता बंदीगृह  में थे  और उस योगमाया देवी ने देवकी जी और वासुदेव जी को कंस की बन्दी से मुक्त कराया था। दूसरे रूप में वह आनंदी हैं क्यों कि बंदी से मुक्त कराने  पर आनंद मनाये गये तथा  आनन्द की अनुभूति कराने वाली देवी  को दूसरे रूप में  आनंदी की उपमा दी गईं तथा तीसरे रूप में वह  देवी मनोवांछा हैं जबकि जन साधारण के मन की भावना की पूर्ति कर भगवान ने कंस सहित दुष्टों का दमन किया।

आनंदी मैया को कात्यायनी देवी का अवतार भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि बंदी देवी धन, आनंदी देवी सुख समृद्धि एवं मनोवांछा देवी मन की इच्छा पूर्ति देने वाली हैं। प्रति वर्ष चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को यहाँ बड़ा मेला लगता है और भक्तगण भेंट चढ़ाकर मनौती मांगते हैं।

तीसरी किवदंती के अनुसार पहले बंदी देवी महावन गांव में थी बाद में यहाँ स्थापित की गई है ।इसमे भागवत के दशम स्कंध का सन्दर्भ देकर लिखा है कि उग्रसेन के बेटे राजा कंस के बंदीगृह में वसुदेव -देवकी जी ने प्रार्थना की ,हे महाशक्ति !हमारी बंदी छुड़ाओ ।बंदीगृह में आदिशक्ति ने प्रकट होकर वसुदेव और देवकी जी को बंधन मुक्त कर कहा ,जो बालक पैदा हो , उसे नंदबाबा के घर गोकुल में पहुंच देना ।ऐसा कह कर वे अंतर्ध्यान हो गई।इस लिए बंदी कहलाई।श्री कृष्ण जी के प्रपौत्र यदुकुल के प्रवर्तक महाराज श्री वज्रनाभ जी ने महावन में इनका मंदिर बनवाया ।मुगलकाल के प्रारम्भ में राजा वरन सिंह के संरक्षण में इन देवियों को बंदी गांव पहुँचाया गया ।राजा ने मंदिर और कुण्ड का निर्माण कराया ।मुग़ल शासक औरंगजेब भी बंदी को खंडित नहीं कर सका ।आगरा के सेठ घासीराम ने मंदिर की मरम्बत कराई ।चैत्रमास की चौदस को माँ के स्थापना दिवस के सन्दर्भ में मेला का आयोजन होता है ।इस किवदंती के अनुसार बंदी -आनंदी गोपियां नन्द जी के यहाँ गोबर थेपती थी ।उनके जीवन का उदेश्य भगवान् श्री कृष्ण जी के दर्शन पाना था। इस भक्ति के कारण दोनों ही गोपियां वहां देवी के रूप में स्थापित हो गई ।

    अन्य किवदंती के अनुसार गोवर्धन पर्वत पर हुये भगवान् श्री कृष्ण जी के श्रृंगार में बंदी -आनंदी नाम की सखियां भी उपस्थित थी ।बंदी ने श्यामा को तरकियां और आनंदी ने भाल तोरण भेंट किया (गर्ग संहिता ,20 वां अध्याय )।सख्य रस और भाव निकुंजी पुस्तक के अनुसार बंदी,आनंदी सखियों का जन्म महावन में हुआ था।दोनों बहिनें भगवान श्री कृष्ण जी  की बुआ थीं ।नारद मुनि के उपदेश पाकर कृष्ण नाम उच्चारण करती हुई उपले थेपती थी ।इनके समान प्रभु श्री कृष्ण जी का दर्शनांद किसी को नहीं मिला ।दोनों सखियां प्रभु की एकांकी शक्ति स्वरूपा थी ।गोवर्धन धारण के समय सातों दिन व् रात्रि में कंस व् उसके अनुयायियों की आँख में धूल फैंक कर अँधा बना देना और छाव के अंदर सुरक्षित रहने वालों को आनंद प्रदान करते रहना आनंदी सखी का काम था ।

 इसी प्रकार प्रभु श्री कृष्ण जी के जन्मकाल पर मथुरा जेल के द्वार खोलना ,वासुदेव जी की हथकड़ियाँ ,जेल आदि को तोडना ,रक्षकों को चेतना रहित कर देना ,यशोदा सहित गोकुलवासियों को भी चेतना रहित कर देने का कार्य बंदी सखी का था ।इन दोनों बुआओं की यादगार के लिए यदुकुल वंश प्रवर्तक महाराज श्री वज्रनाभ जी ने बंदी -आनंदी जी की गांव के दक्षिणी भाग में इनकी प्रतिमा स्थापित की थी


वज्रनाभ जी ने कराई थी बन्दी देवी की स्थापना---  


भगवान श्री कृष्ण के तिरोधाम गमन के बाद जब  अर्जुन के द्वारा श्री  कृष्ण जी के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ जी को मथुरा में बसाया था तब उन्होने सांडिल्य जी के द्वारा बताए गए श्री कृष्ण जी से संबंधित सभी लीलास्थलों एवं मंदिरों का पुनः निर्माण कराके सूने ब्रज को पुनः अलौकिक बनाया।उन्ही स्थलो और मंदिरों में से निर्मित एक बन्दी देवी का मंदिर भी है ।

इन सभी शोधात्मक तथ्यों  के अध्य्यन के अनुसार मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं  कि इन देवियों का इतिहास  जो भी सही हो लेकिन यह  तो अवश्य सत्य  है कि इन देवियों का यदुकुल तथा श्री कृष्ण जी से गहरा निकटतम संबंध है।बन्दी देवी को यदुकुल की कुलदेवी योगमाया का रूप भी माना जा सकता है। इनकी मान्यता  की तब और अधिक पुष्टि हो जाती  है कि इनकी प्रतिमा की स्थापना पहले महावन नगर  में श्री कृष्ण के बाद यदुवंश  प्रवर्तक स्वयं वज्रनाभ जी ने की है। कभी कभी यह कहावत बड़ी चरितार्थ होती  है कि घर का जोगी जोगना और बाहर का सिद्ध । निःसंदेह   ब्रज के जादौ ठाकुरों को बन्दी देवी को अपनी कुलदेवी की मान्यता देनी चाहिए।  करौली नगर में विराजमान कैला देवी का यदुकुल से कोई सम्बन्ध नहीं है। हम ब्रज क्षेत्र के जादौन ठाकुर अज्ञानता वस कैला देवी को अपनी कुलदेवी करौली  में स्थित होने की वजह से मानते हैं जो सत्य नहीं है।


मध्यकाल में बसा बन्दी गांव तथा बन्दी के 

बुडरावत जादौ  ठाकुर -----


बन्दी गांव के जादौन राजपूतों का निकास 

ताहनगढ के दुर्ग पर  मुहम्मद गौरी के आधिपत्य के बाद राजा  तीमनपाल के  वंशज  राजा महीपाल अपने  भाई बन्धुओं सहित महावन में आकर बसे थे। इनके वंशज पहले रावत कहलाए। महीपाल राजा के दो वंशज मानपाल तथा इंदरपाल महावन के खड़पड़िया खेड़ा से बूडेमढ पर आकार बस गए। इसके बाद इनके वंशजों  ने बन्दी देवी के  पास देवी के नाम पर संवत 1392 (सन 1312 ,) में फाल्गुन  लगत दौज गुरुवार को बन्दी  गांव बासाया तथा बूड़ेमढ से आकार बन्दी गांव में बसे  इस लिए अपने आप को बड़ रावत जादौ  कहलाने लगे ।


लेखक -डा. धीरेन्द्र सिंह जादौन 

गांव  लढ़ौता , सासनी

 जिला- हाथरस

प्राचार्य राजकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय सवाईमाधोपुर राजस्थान  

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