दक्षिणायपथ के द्वारसमुद्र के चंद्रवंशीय यदुवंशी होयसल क्षत्रिय राजवंश का ऐतिहासिक अध्ययन--

दक्षिणापथ के अन्तर्गत द्वारसमुद्र के चन्द्रवंशीय यदुवंशी होयसल क्षत्रिय राजवंश का ऐतिहासिक अध्ययन---

मैसूर में बारहवीं शताब्दी में होयसल वंश का प्रादुर्भाव हुआ।होयसल अपने को चन्द्रवँशी यदुवंशी क्षत्रिय कह कर संबोधित करते है।यह वंश कर्नाटक के इतिहास में सबसे अधिक प्रसिद्ध राज वंश है।इस वंश के अधिकांश शासक जैन धर्म के अनुयायी थे जिनमें कुछ बाद में वैष्णव वन गये थे ।इस होयसल राजवंश की स्थापना में जैनाचार्य सुद्दुत वर्धमान ने सक्रिय सहायता की थी ।इस वंश की स्थापना के वे ही मूल प्रेरक थे।
देवगिरि के राजवंश के समान द्वारसमुद्र का होयसल वंश भी यादवकुल का था।इस लिए इस वंश के राजाओं ने उत्कीर्ण लेखों में अपने को"यादवकुलतिलक "कहा है।
तुंगभद्रा नदी का वाया किनारा भी बहुत प्रसिद्ध  था।विजयनगर के पूर्वगामी यदुवंशी क्षत्रिय होयसल नरेशों का प्रधान स्थान यही था।यह भाग उत्तरी भारत से अधिक दुर्गम है क्यों कि पठार दो हजार फीट के लगभग ऊंचा है।
होयसलों के राज्य का क्षेत्र वर्तमान मैसूर प्रदेश में था , और उनकी राजधानी द्वारसमुद्र थी।शुरू में उनकी स्थिति सामन्त राजाओं की थी , जो कभी दक्षिण के चोलों और कभी कल्याणी के चालुक्य राजाओं के आधिपत्य को स्वीकृत करते थे ।जब कोई चोल राजा बहुत प्रतापी होता ,तो वह होयसलों को अपनी वशवर्ती बना लेता ,और जब कोई चालुक्य राजा दक्षिण की ओर अपनी शक्ति का प्रसार करने में समर्थ होता ,तो वह उन्हें अपने अधीन कर लेता।

होयसल राजवंश की स्थापना एवं संस्थापक --

होयसल चन्द्रवंशीय यदुवंशी क्षत्रिय राजवंश का संस्थापक (मूल पुरुष ) यदुवंशी " सल " मैसूर के शिकारपुर जिले के अन्तर्गत अंगडि (शशकपुर)क्षेत्र का रहने वाला सम्भवतः चालुक्यों का अधीनस्थ सामन्त था।दक्षिण के अन्य राजवंशों की भाँति होयसल भी अपने को मथुरा के पौराणिक यदुवंश से निकला हुआ मानते है। मैसूर में इनकी उत्पत्ति के विषय में अनेक किवदंतिया तथा कथाएं  है।सर्वाधिक प्रचलित कथा के अनुसार कादूर जिले में  "सल " नाम का एक यदुवंशी पुरुष अपनी पुत्र बधू के गांव में अपनी कुलदेवी वासन्तिका की पूजा करने के लिए गया हुआ था ।जैन मुनि सुदत्त वहां उपदेश कर रहे थे ।उसी समय वन से निकल कर  एक शेर दौड़ता हुआ उस ध्यानस्थ जैन साधु आक्रमण करने ही वाला था कि उसके मुंह से निकला कि पॉय साल मारो, सल ।उस सल नामक युवक ने उस शेर की हत्या करदी।सल की इस श्रद्धा एवं भक्ति से देवी अत्यंत ही प्रसन्न हुई तथा उसे एक राजवंश के संस्थापक होने का वरदान दिया। यह घटना सन 1006 ई0 के लगभग की हैं , तभी से सल " पोयसल "कहलाने लगा , जो कालान्तर में "होयसल" शब्द में परिवर्तित हो गया और सल द्वारा स्थापित वंश का नाम प्रसिद्ध हुआ।जिनेन्द्र इसके इष्ट देव थे। अधिकतर यदुवंशी नरेश चाहे वह बयाना एवं त्रिभुवनगिरी (आधुनिक करौली ) के यादवा( आधुनिक जादों )जैसलमेर के यदुवंशी (आधुनिक भाटी ) तथा देवगिरि के पौराणिक यादवा , (आधुनिक जाधव ) तथा द्वारसमुद्र के होयसल ,विजयनगर के यदुवंशी हों वैष्णव होते हुए भी  सभी जैन धर्म के भी अनुयायी भी थे।जैन धर्म का भी सम्मान करते थे ।कुछ यदुवंशियों ने जैन धर्म को अपना कर जैन भी बन गए थे जिनके प्रमाण जैन साहित्य में भी मिलते है।मथुरा भी पौराणिक काल में जैनधर्म का केन्द्र था ।
इस वंश में नृपकाम एक साहसी एवं महत्वकांशी व्यक्ति हुआ था।इसका समय 1022 से 1047 ई0 निर्धारित किया गया है।

विन्यादित्य -

यह इस वंश का वास्तविक संस्थापक था जिसने चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य पष्ठ के सामन्त के रूप में होयसलों की राजनीतिक प्रतिष्ठा को स्थापित किया ।इसने चालुक्यों के साथ रह कर चोलों के विरुद्ध संघर्ष किया।चालुक्य लेखों में विन्यादित्य को त्रिभुवनमल्ल-पोयसल की उपाधि से अलंकृत किया ।इसने आलबखेद ,कोंकण ,वायलनाड़ ,तलकाड ,तथा सविमले तक राज्य विस्तृत किया।

इरैयंग --

विन्यादित्य के बाद उसका पुत्र इरैयंग होयसल सिंहासन पर आसीन हुआ जिसने 2 वर्ष से भी कम समय तक शासन किया ।इसने दीर्घकाल तक चालुक्यों का सहयोग किया ।उसकी मृत्यु के बाद इसके 2 पुत्रों -बल्लाल प्रथम एवं विष्णुवर्द्धन ने क्रमशः शासन किया।

बल्लाल प्रथम-

बल्लाल प्रथम भी चालुक्य शासक विक्रमादित्य पष्ठ के अधीन था।जिसने त्रिभुवनमल्ल की उपाधि धारण की।1100 से 1110 ई0 तक इसने शासन किया।
11 वीं सदी के पूर्वार्ध में होयसलों ने अपना उत्कर्ष शुरू किया ,और धीरे धीरे इस राजवंश की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गयी।

विष्णुवर्द्धन  बिट्रिटग --

बल्लाल प्रथम की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई विष्णुवर्द्धन होयसल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ ।इसने स्वतंत्र शासक के रूप में इस होयसल साम्राज्य का विस्तार किया। इस होयसल साम्राज्य का वास्तविक  संस्थापक विष्णुवर्धन था।सन 1110 ई0 में वित्तिग विष्णुवर्धन द्वारसमुद्र की राजगद्दी पर आरूढ़ हुआ।वह एक प्रतापी एवं महत्वाकांक्षी राजा था।उसने अपने राज्य को चालुक्यों की अधीनता से मुक्त कर अन्य राज्यों पर आक्रमण भी शुरू किए।सुदूर दक्षिण में चोल ,पाण्डय और मलाबार के क्षेत्र में उसने विजय यात्राएं की , और अपनी शक्ति को प्रदर्शित किया।इसमें संदेह नहीं , कि उसके शासनकाल में होयसल-राज्य बहुत शक्तिशाली हो गया था। विष्णुवर्द्धन के शासनकाल में शैव ,वैष्णव , तथा जैन धर्मों का विकास हुआ।1131 ई0 में इसने द्वारसमुद्र के एक शैव मन्दिरनमें दान दिया था इस की एक महारानी सांतलदेवी जैन उपासिका थी तथा इसके 5 महत्वपूर्ण मंत्री बजी जैन धर्म के समर्थक थे ।यह एक महान विजेता के साथ -साथ एक महान धर्म सहिष्णुशी था।इसके शासनकाल की अंतिम तिथि ई0 1152 से 1155 के मध्य संभावित प्रतीत होती है।

विजय नरसिंह प्रथम--

विष्णुवर्द्धन के बाद उसका पुत्र नरसिंह प्रथम उत्तराधिकारी हुआ।इसके समय में होयसल साम्राज्य अनेक विद्रोहों से ग्रस्त रहा। छगाल्व जो  विष्णुवर्द्धन के अधीन रहे थे विद्रोह पर आ गए।नरसिंह इन विद्रोहों का दमन करने में असफल रहा ।सन 1173 ई0 में बल्लाल द्वितीय अपने पिता नरसिंह को पदच्युत कर स्वयं होयसल सिंहासन पर आसीन हुआ।

बल्लाल द्वितीय( वीर बल्लाल )  ---

विष्णुवर्धन का पौत्र एवं नरसिंह प्रथम का पुत्र  वीर बल्लाल होयसल वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा हुआ।वह 12 वीं सदी के अंतिम भाग में द्वारसमुद्र के राज्य का स्वामी बना था। इसने अमृतेश्वर मन्दिर भी बनवाया था ।इसके समय में कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति बहुत क्षीण हो गयी थी , और दक्षिणापथ में उनका स्थान देवगिर के यादवों ने ले लिया ।1187 ई0 में यदुवंशी राजा भिल्लम ने अंतिम चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया।अतः जब वीर बल्लाल ने उत्तर की ओर अपनी शक्ति का विस्तार शुरू किया , तो उसका संघर्ष प्रधानतया देवगिरि शासक यादव राजा भिल्लम पंचम के साथ ही हुआ।वीर बल्लाल ,देवगिरि के शासक भिल्लम पंचम को परास्त करने में समर्थ हुआ ,और भिल्लम पंचम ने रणक्षेत्र में ही वीरगति प्राप्त की।1192-93 ई0 में बल्लाल द्वितीय ने अपनी स्वाधीनता घोषित कर सम्राट सूचक उपाधियां धारण की।1220ई0 के लगभग वीर बल्लाल की मृत्यु हो गयी।

नरसिंह द्वितीय--

वीर बल्लाल ने अपनी म्रत्यु से पूर्व ही अपने पुत्र नरसिंह द्वितीय को होयसलों के सुदृण एवं विस्तृत साम्राज्य का अधिपति बना दिया था।इसके शासन काल में यादवों तथा पांड्यों से निरन्तर संघर्ष चलता रहा।
होयसलों का उत्कर्ष देर तक कायम नहीं रह सका।प्रतापी यादव राजा सिंघण (1210-1247ई0) ने अपने पितामह के अपमान और पराजय का परिशोध करने के लिए होयसालों पर आक्रमण किया ,और उनके प्रदेशों को विजय कर लिया। इस समय होयसाल -राज्य के राजसिंहासन पर राजा नरसिंह द्वितीय विराजमान था ,जो वीर बल्लाल का पुत्र था ।नरसिंह द्वितीय के उत्तराधिकारी होयसल राजाओं का इतिहास अंधकार में है।नरसिंह द्वितीय यादवों के विरुद्ध कभी भी सफल न हो सका ।इस प्रकार 1234-35 ई0 तक होयसल वंश की प्रतिष्ठा को सुरक्षित करते हुए नरसिंह द्वितीय जीवित रहा ।

सोमेश्वर --

नरसिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर 1234-35 ई0 में होयसल सिंहासन पर विराजमान हुआ जिसका शासनकाल इस वंश के पतन का प्रारम्भ माना जाता  है।1250ई0 के लगभग यादव शासक कृष्णा के सेनापति को सोमेश्वर का विजेता कहा गया है।सम्भव है ।होयसल एवं परमारों के सम्बंध अच्छे थे इस कारण कृष्ण ने परमारों से संघर्ष के बाद होयसलों को आक्रांत किया हो।अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व ही सोमेश्वर ने उत्तर एवं दक्षिण दोनों ही क्षेत्रों से शत्रुओं द्वारा त्रस्त होने के कारण इसने होयसल साम्राज्य को दो भागों में विभक्त कर अपने दो पुत्रों को शासक नियुक्त कर दिया था।उत्तर का भू-भाग नरसिंह तृतीय तथा दक्षिण के भाग रामनाथ को दिया।इस प्रकार सन 1363ई0 में सोमेश्वर की मृत्यु हो गयी।

नरसिंह तृतीय --

नरसिंह तृतीय का सिंहासनारोहण गृहयुद्ध तथा बाह्य आक्रमणों से व्याप्त रहा उसके भाई रामनाथ ने चोल राजेन्द्र तृतीय के साथ संघ बनाकर नरसिंह का विरोध किया।अपने भाई रामनाथ से संघर्ष करने से पूर्व नरसिंह तृतीय को देवगिरि के यादवों तथा ककतीयों से संघर्ष करना पड़ा।देवगिरि का शासक महादेव जब होयसलों के राज्य पर चढ़ाई करने आया तो उसका नरसिंह ने प्रतिरोध किया और महादेव का अभियान सफल नहीं हुआ । देवगिरि शासक महादेव के आक्रमण के बाद जब रामचन्द्र ने देवगिरि के सिंहासन पर आसीन हुआ तो महादेव के काल में यादवों की पराजय का प्रतिरोध लेने के लुये नरसिंह पर सन 1275ई0 में आक्रमण किया।द्वारसमुद्र के समीप बलवाड़ी तक यादवों ने अधिकार स्थापित कर लिया।इसके बाद नरसिंह ने भी सेना भेज कर यादवों के खिलाफ युद्ध किये किन्तु होयसल साम्राज्य को बहुत नुकसान भुगतना पड़ा।लगभग 15 वर्षों तक होयसल -यादव संघर्ष चलता रहा किन्तु कोई निर्णायक युद्ध न हुआ। नरसिंह तृतीय यादवों ,काकतीयों एवं अपने भाई रामनाथ से संघर्ष करता हुआ सन 1292 ई0 में दिवंगत हुआ।उस समय भी होयसल साम्राज्य दो भागों में विभक्त था।

बल्लाल तृतीय --

नरसिंह तृतीय के बाद उसका पुत्र बल्लाल तृतीय उत्तराधिकारी हुआ।अपने चाचा रामनाथ के साथ इसकी भी शत्रुता चलती रही।रामनाथ के पुत्र विश्वनाथ ने कुछ वर्षों तक विभाजित होयसल राज्य पर शासन किया ।किन्तु 1300 ई0 के पूर्व ही बल्लाल तृतीय ने इसे पराजित कर सम्पूर्ण होयसल साम्राज्य को संगठित किया।
रामनाथ के काल में पांड्यों द्वारा अधिकृत होयसल क्षेत्र को पुनः प्राप्त करने के लिए इसने पाण्ड्यों के गृहयुद्ध में पुनः हस्तक्षेप किया।उत्तर में भी इसने साम्राज्य विस्तृत करने के लिए देवगिरि के रामचन्द्र के शासनकाल में यदुवंशियों पर आक्रमण किया।किन्तु तुर्क अभियान के फलस्वरूप इसे कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई।

देवगिरि के यादवों के समान होयसलों की स्वतंत्र सत्ता का अंत भी अलाउद्दीन खिलजी द्वारा हुआ ,जब कि उसके सेनापति मलिक कफूर ने दक्षिणी भारत को विजय करते हुए द्वारसमुद्र पर भी आक्रमण किया और उसे जीत लिया।अफगान सुल्तान के इस आक्रमण के समय होयसाल राज्य का राजा वीर बल्लाल तृतीय था ।उसे कैद करके दिल्ली ले जाया गया ,और उसने अलाउद्दीन का वशवर्ती और करद होना स्वीकार कर लिया ।पर जब वह अपने देश को वापस लौटा , तो उसने भी अफगान सुल्तान का जुआ उतार फैंकने का प्रयत्न किया ,यद्धपि इस में वह सफल नहीं हुआ।बल्लाल तृतीय निरन्तर मुस्लिम सत्ता का विरोध करता रहा तथा कुछ समय के लिए मदुरा को भी स्वतंत्र हिन्दू राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया।अंततः 1342ई0 के लगभग त्रिचन्नापल्ली में मदुरा की मुस्लिम सेना के साथ संघर्ष करता हुआ बन्दी बनाया गया।इब्नबतूता के अनुसार इसे दिल्ली भेजा गया ।जहां गियासुद्दीन ने इसके वध का  आदेश दिया और 1342ई0 में बल्लाल तृतीय को मौत के घाट उतार दिया गया।इतना होते हुए भी होयसल वंश का नाश नहीं हो सका ।मुसलमान मदुरा से उत्तर की ओर नहीं बढ़ सके ।होयसल वंश की बागडोर बल्लाल के तृतीय पुत्र विरूपाक्ष या बल्लाल चतुर्थ के हाथ में रही ।इस प्रकार बल्लाल तृतीय इस होयसल वंश का अंतिम  वीर एवं साहसी शासक था , जिसने अपने शौर्य एवं पराक्रम से दक्षिण भारत में हिन्दुत्व की रक्षा की थी।
होयसलों के काल में कला को अत्यधिक आश्रय मिला ।श्रवण बेलगोला , हेलबिब तथा बेलूर में इनकी अनेक कला कृतियाँ अब भी उपलब्ध होती है ।इस काल का सर्व श्रेष्ठ मन्दिर द्वार समुद्र में है ,जो होयसलेश्वर मन्दिर के नाम से विख्यात है।इसको भास्कर कला का अजायबघर कहना अधिक उपयुक्त है ,क्यों कि भास्कर कला की इतनी सुंदर और विभिन्न कृतियाँ अन्यत्र दुर्लभ हैं।इसके अतिरिक्त असिंकेरे ईश्वर मन्दिर भी अत्यंत प्रसिद्द है ।इसके नवरंग स्तंभ , सुन्दर गर्भ गृह ,तथा मण्डप कला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत है।नवरंग स्तंभों के चारों ओर भैरव ,दुर्गा एवं विष्णु की सुन्दर मूर्तियां निर्मित हैं।

संदर्भ--

1-विजयनगर -साम्राज्य का इतिहास , भूमिका लेखक-डॉ0 रामप्रसाद त्रिपाठी एवं लेखक -श्री वासुदेव उपाध्याय ।
2-दिल्ली सल्तनत 1206-1526 ,संपादक मोहम्मद हबीव ,खलिक अहमद निजामी ।
3-प्राचीन भारत लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार
4-डायनेस्टी आफ कनारी डिस्ट्रिक्ट -फ्लीट ।
5-ए फ़ारगोटन एम्पायर -सेवेल ।
6-कदम्ब कुल -हेरास ।
7-विजयनगर हिस्ट्री -हैरास ।
8-,"सोरसेज ऑफ विजयनगर -,कृष्णा स्वामी ।
9-विगनिंग ऑफ विजयनगर -हेरास ।
10-कैम्ब्रिज हिस्ट्री भाग 3 ।
11-प्राचीन भारत - डा 0 दीनानाथ वर्मा ।
12-,दक्षिण भारत का इतिहास -बलराम श्रीवास्तव ।
13-ऐतिहासिक स्थानावली -विजयेन्द्र कुमार माथुर ।
14-दक्षिण भारत का राजनीतिक इतिहास-डा0 अजय कुमार सिंह ।
  15-भारत का सैनिक इतिहास ,लेखक देवदत्त शास्त्री।
16-तेलगु साहित्य का इतिहास, लेखक बालसुरी रेडी ।
17-विश्व इतिहास कोष -चंद्रराजा भंडारी।
18-हिंदी विश्व कोष - नागरी-,प्रचारिणी सभा ।
19-हक्का एन्ड बुक्क -सुब्बा राव ।
20-ऐशेट इंडिया -कृष्णास्वामी ।
21-हिस्ट्री ऑफ इंडिया -ऐयंगर ।
22- हिस्ट्री ऑफ इंडिया भाग 4 , --इलियट
23-मिडिवल इण्डिया 6-ईश्वरीप्रसाद ।
24-आरविन्दु डायनेस्टी -हेरास ।
25-कॉन्ट्रिब्यूशन ऑफ साउथ इण्डिया -कृष्णास्वामी ।
26-जैन धर्म का मौलिक इतिहास-हस्तीमल (आचार्य ) ।
27-

लेखक-डॉ0 धीरेन्द्रसिंह जादौन
गांव-लढोता ,सासनी
जनपद-हाथरस ,उत्तरप्रदेश।
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि मृदा विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001

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