प्राचीन ऐतिहासिक नगर महावन का गौरवशाली अतीत -जदुवँश के शासकों की वीरता एवं शौर्यता का प्रतीक --

प्राचीन ऐतिहासिक नगर महावन का गौरवशाली अतीत -जदुवंशी शासकों के शौर्य  एवं वीरता का प्रतीक -----

" प्राचीन काल के महाराज यदु के विभिन्न वंशजो से श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ जी के अतिरिक्त मध्यकाल में भी विस्मृत यदुवंशी (जादों ) पराक्रमी ,साहसी एव बलिदानी शासक  कुलचंद के बलिदान की जन्मभूमि , कर्मभूमि एवं  रणभूमि भी है यह पौराणिक ऐतिहासिक नगर महावन जिसकी महिमा का शब्दों में वर्णन करना पूर्णरूप से संभव नहीं।"

श्री कृष्ण जी के तिरोधाम-गमन के बाद पुनः
वासुदेव श्री कृष्ण के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ जी को पांडवों ने ब्रज-प्रदेश का राजा बनाया था जो मथुरा के पौराणिक यादवों की शुरसैनी शाखा कहीं जाती है ।उस समय इस प्रदेश की दशा बहुत खराब थी ।मगध नरेश जरासंध के आक्रमणों ने इस मथुरा प्रदेश को तहस -नहस कर दिया था।वज्रनाभ जी  ने गोपों के कुल पुरोहित महर्षि शांडिल जी के आशीर्वाद से इस ब्रज प्रदेश में  गोवर्धन( दीर्घपुर  ),  मथुरा ,  महावन , गोकुल    (नंदीग्राम  ) और वरसाना आदि स्थान  सैनिक छावनी बनाये।और उद्धव जी के उपदेशानुसार बहुत से गांव बसाये।उस समय मथुरा की आर्थिक दशा भी बहुत खराब थी।जरासंध ने सब कुछ  नष्ट कर दिया था।राजा परीक्षत ने इंद्रप्रस्थ से मथुरा में बहुत से बड़े बड़े सेठ लोग भेजे।इस प्रकार राजा परीक्षत की    मदद एवं  महर्षि शांडिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने उन सभी स्थानों की खोज की जहाँ भगवान श्री कृष्ण  ने अपने प्रेमी गोप तथा गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलाएं की थीं।लीला स्थलों का ठीक  ठीक निश्चय हो जाने पर वज्रनाभ जी ने वहां की लीला के अनुसार उस  स्थान का नामकरण किया।जदुकुल -भूषण माधव के लीला विग्रहों की स्थापना की तथा उन -उन स्थानों पर अनेकों गांव वसाए।उन्ही स्थलों में से एक पौराणिक नगर है महावन ।इस नगर पर मध्यकाल तक भी बयाना के जादों शासको का अधिकार बना रहा ।इसी महावन नगर से कई जादों सरदार विभिन्न स्थानों पर इस व्रजभूमि के क्षेत्रों में स्थापित हुए है ।

पौराणिक नगर महावन (पुराना गोकुल )----

यमुना पार मथुरा से 14 किमी 0दूर नीचे की ओर बहने वाली यमुना धारा के किनारे पर बसे हुए वर्तमान गोकुल से 4 किमी0 आगे मथुरा से सादाबाद सड़क के सहारे ऊंचे टीले पर सन्निविष्ट महावन , ऐतिहासिक दृष्टि से ब्रज का अति महत्वपूर्ण प्राचीन कस्वा है।यह टीला 100 बीघा में फैला हुआ है , जो कुछ अंशतः प्राकृत तथा कुछ अंशतः कृत्रिम है ।इसी पर महावन किला स्थित है।
जैसा कि नाम से ज्ञात होता है कि किसी समय महावन सघन जंगल रहा होगा , क्यों कि बादशाह जहाँ (1634 ई0) ने शिकार खेलने /करने का आदेश दिया था और 4 चीते मारे गए थे ।इससे इसके नाम की उपयुक्तता सिद्द होती है।
महावन का गोकुल पर्यायवाची शब्द है क्यों कि यहाँ यदुकुल शिरोमणि देवकीनन्दन श्री कृष्ण जी को बहुत सी चमत्कारपूर्ण साहसिक शैशवीय कौतुक-क्रीड़ाएं सम्प्पन हुई थी।पौराणिक साहित्य में महावन की अपेक्षा गोकुल का नामोल्लेख अधिक हुआ है।मथुरा एवं महावन (पुराना गोकुल ) का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध (जुड़ाव ) सुदूर अतीत से रहा है।क्यों कि श्री कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ और पालन -पोषण नन्द गोप जी के यहां महावन में हुआ ।नन्द जी गोकुल के अधिपति थे तथा ये कर उगाकर मथुरा के राजा को देते थे ।यहीं से माखन तथा दूध बेचने यहां के वासिनन्दे मथुरा जाया करते थे जो उनका मूल व्यापार था।इस लिए गोपों को इतिहास में वैश्य भी कहा गया है।
वर्तमान गोकुल तो अर्वाचीन है , जिसको बल्लभाचार्य और उनके वंशधर विटठल नाथ आदि गोस्वामियों ने आवाद किया है।वर्तमान गोकुल में16 वीं शताब्दी से पूर्व का कोईभी मन्दिर अथवा भवनादि सम्पति देखने को नहीं मिलती।
महावन किला टीले की सर्वोच्च चोटी पर स्थित है तथा ऐतिहासिक है।यहां का राजा यदुवँशीय  कुलचंद महावीर योद्धा था।उसके पास बहुत बड़ी सेना थी ।उसने दुर्दांत क्रूर आक्रांत लुटेरे महमूद गजनवी (सन 1017ई0)का डट कर सामना किया था किन्तु दुर्भाग्यवस भवनों से पराभूत होकर उसने और उसकी पत्नी ने आत्महत्या करली ।महमूद ने महावन को जीभर कर लूटा खसेटा और धूलिसात कर दिया तथा हिन्दुओं को यमुना में खदेड़ दिया , जिससे वे उसमे डूब कर मर गए ।तब से लेकर अद्यावधि महावन अपनी पूर्वगौरव -गरिमा को प्राप्त नहीं कर सका है।किले (दुर्ग) प्रासाद -भवनों के ध्वंशावशेष अपनी दुर्दशा की करुण कहानी खण्डहरों के रूप में अपने उर में छिपाये हुए मौन खड़े है।उपरोक्त का उल्लेख मिनिहाज -ए -सिराज (1234 ई0) ने स्वयं किया है ।बादशाह बाबर (1526 ई0) ने भी महावन के महत्व को अपने जीवनवृत में उल्लेख किया है।यद्धपि वर्तमान में महावन पुनः तहसील बन गया है ,परन्तु इसके कुछ भवनों के द्वार देशों के मुखाग्र ही मथुरा शैली के शेष सपाट है।

महावन किले का निर्माण एवं इतिहास ----

महावन किले का निर्माण मेवाड़(चित्तोड़ )के राणावंशीय राजपूत सरदार "राणा कटेह "ने कराया था ,किन्तु मैनपुरी जिले में प्रचलित परम्परा के अनुसार राणा कटेह को जब मुसलमान आक्रांताओं ने उसे स्वदेश से बाहर निकाल दिया तो उसने महावन के राजा दिगपाल के यहां शरण ली ।कालांतर पश्चात उसके पुत्र कान्ह कुंवर और दिगपाल की पुत्री में परस्पर प्रेम हो गया और वे परिणय सूत्र में बंध गए ।
राणा कटेह के मारे जाने के उपरान्त उसका पुत्र महावन (राज्य ) का शासक बना ।उसने अपने समग्र नगर (महावन ) को अपने कुल पुरोहित पराशर गोत्रीय ब्राह्मणों को अनुदानित कर दिया , जो आज भी विशेष उपाधि " चौधरी "धारण किये हुये है।महावन में" चौधरी थोक " आज भी विख्यात है तथा द्वितीय थोक "सैयदत "नाम से प्रसिद्ध है ।
अलाउद्दीन खिलजी (1303 ई0)के शासनकाल में सूफी मसहाद यह , जो एक सैनिक टुकड़ी का नायक था ,हिन्दू मसीहा के छद्दम वेश में  "श्यामलता रोहिणी "मन्दिर में घुस आया और उसने राणा कतेह की हत्या करदी ।उसके सार्वभौम स्वामी ने उसे (महा को) महावन का 1/3 भाग दे दिया , जिसकी कब्र जीर्ण -शीर्ण अवस्था में अनंकित रूप में ,छटी पालना (छटी पूजा )के निकट विद्यमान है ।जिसके ऊपर कोई चिन्ह लेख आदि अंकित नहीं है ।
मन्दिरन " श्यामलता रोहिणी " आज भी एक छोटी कुटिया के रूप में किले की ऊँची ठेक पर विद्यमान है ,जहां से यमुना दिखाई पड़ती है ।यह स्थान है जहां से यमुना (जोगनिद्रा ) को जन्म दिया था ।

महावन के कतिपय प्रमुख भवन  एवं स्थान---

1- नन्दभवन ,2-छतीपुरा ,3-जन्माष्टमी ,4-पूतना पतन ,5-रमणरेती ,6-मथुरानाथ मन्दिर ,7-तृणावर्त ,8-महामल्लराय मन्दिर ,9-श्यामलला का मन्दिर ,10-ब्रहाण्ड घाट ,11-खेलन वन  ।

मथुरा एवं महावन के विषय में यूनानी लेखकों के विचार ----

मथुरा और महावन के विषय में यहां कुछ यूनानी लेखकों , विशेषकर एरियन एवं पिलनी के मतों का अति संक्षिप्त उल्लेख करना समीचीन होगा जिन्होंने महावन को " क्लैशीबोरा "और मथुरा को "मेथोरा "माना है अर्थात लिखा है ।जिनके मध्य यमुना "जैमोरा "प्रवाहित होती है ।किसी पाश्चात्य विद्वान ने "कलैक्सीबोरा "को 'केशवपुरा 'से जोड़ा है तो अन्य ने उसे "बटेश्वर " से ।बटेश्वर का प्राचीन नाम शौरिपुर था ।यहां के शासक वसुदेव जी के पिता शूरसेन थे तथा यहां के लोग शौरसेनी कहलाते थे ।किसी ने वृन्दावन को क्लैसीबोरा माना है ।चीनी यात्री फाह्यान ने जमुना के मथुरा -महावन के मध्य उल्लेख किया है ।जो हो सो हो ।हमें बखेड़े में नहीं पड़ना है ।किन्तु यह सत्य है कि महावन पुरातन ऐतिहासिक पत्तन है ।" बृहदून ",बृहदारण्य महावन के अन्य नामान्तर है ।

मध्यकाल में जादों शासक कुलचंद का उदय--

महमूद गजनवी के आक्रमण काल (सन 1018 ई0) में मुसलमानी सूत्रों के अनुसार मथुरा राज्य में एक जादों राजपूत   वीर योद्धा कुलचंद हुआ था।उसने विदेशी आक्रमणकारियों से मथुरा राज्य की रक्षा करते हुए अपने सर्वस्व की आहुति दी थी।यदि कुलचंद की वंश परम्परा उपलब्ध होती , तो इस कालखण्ड की एक अति महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती।फिर भी गजनवी काल के लेखक अलउत्वी के उल्लेख से यह भली -भांति ज्ञात होता है कि उस समय मथुरा एक शक्तिशाली और समृद्ध राज्य था।उस  के राज्याध्यक्ष के अधिकार में विशाल नगर थे।
मथुरा नगर की उस काल में समृद्धि अपूर्व थी।

महमूद गजनवी द्वारा मथुरा की लूट का अभियान एवं महावन का भीषण युद्ध---

मथुरा नगर को लूटने से पहले महमूद गजनवी को मथुरा राज्य में एक भीषण युद्ध करना पड़ा।यह युद्ध मथुरा के निकटवर्ती महावन नगर में वहां के शासक कुलचंद के साथ हुआ।उसके बाद फरिस्ता और बदायूनी आदि दूसरे मुसलमान लेखकों ने भी कुलचंद के साहस एवं पराक्रम पर प्रकाश डाला।उत्वी ने महमूद की उस लूट और उसके युद्ध का वर्णन करते हुए मथुरा या महावन का स्पस्टरूप से नामोल्लेख नहीं किया , किन्तु उक्त विवरण की सूचनाओं के अनुसार परवर्ती लेखकों ने मथुरा एवं महावन से ही सम्बंधित माना है।
फरिस्ता लिखता है कि संवत 1074 (सन 1017) के वसन्त में महमूद ने विशाल सेना लेकर हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया था।उस का इस वार का लक्ष्य कन्नौज था।वहां के राजा राज्यपाल को पराजित कर वह मेरठ गया और वहां के शासक हरदत्त को भी उसने हरा दिया ।फिर उसने महावन के शक्तिशाली दुर्ग पर आक्रमण किया था ।महावन के शासक कुलचन्द ने उसका कड़ा मुकाबला किया था , किन्तु उसे पराजित होना पड़ा ।महावन के दुर्ग पर महमूद का अधिकार हो गया।उसके बाद उसने मथुरा पर आक्रमण कर उस नगर को लूटा था ।
अलउत्वी के वर्णन को ग्राउस ने इस प्रकार उदवृत किया है --" राजा कुलचन्द का दुर्ग महावन में था।उसको अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था क्यों कि तब तक कोई भी शत्रु उससे पराजित हुए बिना नहीं रहा  था।वह ऐसे विस्तृत राज्य , अपार वैभव ,अगणित वीरों की सेना , विशाल हाथी और सुदृण दुर्गों का स्वामी था ,जिसकी ओर किसी को आंख उठा कर देखने का भी साहस नहीं होता था।जब उसे ज्ञात हुआ कि महमूद उस पर  आक्रमण करने के लिए आरहा है ,तब वह अपने सैनिक और हाथियों के साथ उसका मुकाबला करने को तैयार हो गया ।अत्यंत  साहस एवं  वीरतापूर्वक युद्ध करने पर भी जब महमूद के आक्रमण को विफल नहीं किया जसका , तब उसने अपने सैनिक गढ़ से निकल कर भागने लगे ,ताकि वे यमुना नदी को पार कर अपनी जान बचा सकें ।इस प्रकार प्रायः 50,000सैनिक उस युद्ध में मारे गये , अथवा यमुना में डूब गए।तब कुलचन्द ने हताश होकर पहले अपनी पत्नी को और फिर स्वय अपने आप को भी तलवार से समाप्त कर दिया , लेकिन यवनों के हाथों मृत्यु को स्वीकार नहीं किया ।उस अभियान में महमूद को लूट के अन्य सामान के अतिरिक्त 185 विशालकाय सुन्दर  हाथी भी प्राप्त हुए थे ।
फरिस्ता ने भी उस युद्ध का उत्वी से मिलता हुआ वर्णन किया है।

कुलचन्द का मूल्यांकन --

वह कुलचन्द नामक योद्धा मथुरा राज्य का कोई स्वाधीन राजा था अथवा किसी दूसरे राजा की ओर से यहां का रक्षक सेनापति अथवा सरदार -सामन्त था ।इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता।यदि वह यहां का स्वाधीन शासक या राजा था , तब किस वंश का था और उस वंश का मथुरा राज्य पर कब से अधिकार रहा था तथा उसके राज्य की सीमाएं कहां से कहाँ तक थी ,उसकी वंश परम्परा से सम्बंधित सिक्के ,ताम्रपत्र, अभिलेख आदि कोई पुरातात्विक सामग्री क्यों नहीं मिलती -इन सब प्रश्नों के उत्तर देने वाला कोई प्रमाणिक साधन अभी तक उपलब्ध नही हो सका।ऐसा मान पड़ता है ,मुसलमानी शासनकाल में यहां अनेक वार विध्वंश होने से अन्य ऐतिहासिक महापुरुषों की तरह कुलचन्द की गौरव-गाथा के सूत्र भी दुष्प्राप्य हो गए है ,फिर भी न तो कुलचन्द के अस्तित्व को अस्वीकार किया जा सकता और न मथुरा की रक्षा के लिए किए गए उसके वीरतापूर्ण बलिदान की ही उपेक्षा की जासकती है।ऐसी दशा में उनका शोध करना अत्यंत आवश्यक है।

कुलचन्द के अस्तित्व और वंश का अनुसंधान--

श्री युगल किशोर चतुर्वेदी ने करौली के यादवा (आधुनिक जादों ) राजाओं का उल्लेख करते हुए उनकी वंश परम्परा मथुरा के यदुवंशी राजाओं से सम्बंधित बतलाई है ।यदि वह ठीक है ,तब उससे कुलचन्द के अस्तित्व और उसकी वंश परम्परा पर प्रकाश पड़ सकता है।श्री चतुर्वेदी ने लिखा है :----प्राचीन ख्यातों से सिद्ध होता है कि विक्रम संवत 936 (सन 879 ई0) में इच्छपाल नामक एक यदुवंशी ( जादों ) नरेश मथुरा के राजा थे ।उनके दो पुत्र ब्राह्नपाल तथा विनायक पाल हुए।इच्छपाल की मृत्यु के बाद ब्रह्मपाल मथुरा का शासक हुआ और उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र जायेंद्रपाल (इन्द्र पाल ) विक्रम संवत 1023 (ई0 966) में गद्दी पर बैठा और संवत 1049 में उसका देहान्त हुआ।उसके ग्यारह (11) पुत्रों में से ही एक महाराजा विजयपाल हुए थे ,जो वर्तमान करौली राजवंश के मूल संस्थापक माने जाते है ।उन्ही महाराजा विजयपाल ने अपनी राजधानी मथुरा से हटाकर वहां से 50 मील दूर पश्चिम की ओर प्राचीन श्रीपथ तथा वर्तमान भरतपर जिले के अंतर्गत बयाना के समीप की मानी पहाड़ी पर स्थापित की ।उन्होंने वहां विक्रम संवत 1097 (सन 1040 ई0) में "विजयमन्दिरगढ़ "नाम से एक सुदृण और विशाल दुर्ग का निर्माण किया ,  जो  आज भी वहां उसी स्थिति में सीना ताने अपने अतीत  की गौरवशाली -गाथा को वयां करते हुए अपनी अनुपम अजेयता का भी प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है ।

राजधानी के उस स्थानांतरण का कारण  उसको पर्वत श्रेणियों के मध्य एक सुरक्षित स्थान स्थापित करना ही था , ताकि वह आये दिन के तत्कालीन मुसलमानी आक्रमणों का आखेट बनने से बच सकें ।महाराजा विजयपाल अपने समय के एक प्रवल प्रतापी नरेश हुए , जिनका तत्कालीन शिलालेखों में "महाराजाधिराज परम् भट्टारक "लिखा है (ब्रजभारती , वर्ष 12, अंक 4 ,पेज 21-22 )।
प्राचीन ख्यातों के उक्त विवरण को यदि सही माना जाय तब जयेन्द्र पाल (इन्द्रपाल ) के 11 पुत्रों में से ही किसी एक का नाम कुलचन्द हो सकता है  या उनमें से ही किसी को कुलचन्द समझा जा सकता है।उसके भाई विजयपाल को यहां से हट कर अपनी राजधानी अन्यत्र बसाने की आवश्यकता ही इस लिए हुई कि उनका परम्परागत राज्य महमूद गजनवी के आक्रमण से संकटग्रस्त हो गया था ।इस प्रकार कुलचन्द को जदुवंशीय राजा जयेन्द्रपाल का पुत्र और सम्भवतः उत्तराधिकारी मानना समीचीन होगा ।वह मथुरा राज्य का स्वामी था और दुर्ग सहित उसकी सैनिक छावनी महावन में थी ।यद्धपि महमूद के आक्रमण से वह यदुवंशी राजवंश विखर गया ।कुलचंद का विशाल सैन्य दल एवं राज्य नष्ट हो गया था ।जो यदुवंशी (पौराणिक यादव) उस भीषण विनाश के बाद भी बच गए थे उन्होंने विजयपाल के नेतृत्व में मथुरा से हट कर श्रीपथ (वर्तमान बयाना ) में एक नए यादवा( आधुनिक जादों ) राज्य की स्थापना की थी। विजयपाल सम्भवतः कुलचंद का भाई ही था। उक्त विजयपाल के वंशजों ने ही कालांतर में कामबन तथा करौली में भी यादव राज्यों की स्थापना की थी ।
महावन से प्राप्त एक प्रशस्ति -अभिलेख से ज्ञात  होता है कि संवत 1207 में वहां पर अजयपाल और संवत 1227 में हरपाल नामक जादों राजाओं का शासन था। ये जादों शासक जैन धर्म के अनुयायी भी थे ।अजयपाल के समय में भी महावन में जैन धर्म गुरु निवास करते थे ।उदय चन्द कवि की  "सुगन्ध दशमी "कथा का रचना काल लगभग सन 1150 और 1196 के बीच अनुमान किया जासकता है ।इस रचना के वाद उदयचंद जैन मुनि हो चुके थे ।उनके शिष्य विन्यचन्द्र ने अपनी "नरग उतारी कथा "का रचना स्थल यमुना नदी के तट पर बसा महावन नगर बतलाया है ।कवि ने महावन को स्वर्ग कहा है , जिससे महावन की उन दिनों की महत्ता प्रकट होती है । ये सभी बयाना , कमन और तहनगढ़  के जादों शासक राजा कुलचन्द के ही वंशज होंगे ।उस काल में यदुवंशी राजवंश के भी व्यक्ति मथुरा से हटे थे , उन्होंने कामवन (कामा) ,बयाना और तिमनगढ़ /करौली क्षेत्र में विविध राज्यों की स्थापना की थी तथा वहां की पहाड़ियों पर उन्होंने सुदृण दुर्ग , दर्शनीय देवालय तथा सुन्दर सरोवर आदि का निर्माण कराया था ।कालान्तर में वे राज्य भी यवन आक्रमणकारियों द्वारा संकट ग्रस्त हुए थे ।मुगल शासन के अंतिम काल में बयाना और कामबन पर बयाना के जादों शाखा में से बने भरतपुर राजवंश के  सिनसिनवार जाट शासकों ने अधिकार कर लिया था , किन्तु करौली के यादवों का ही राज्य बना रहा ।अंग्रेजी शासन काल तक ब्रज में करौली ही पौराणिक यादवों का एक मात्र प्रसिद्ध राज्य था जिसकी परम्परा  भगवान श्री कृष्ण तक जाती थी।देश के स्वाधीन होने पर अन्य राज्यों के साथ करौली भी राजस्थान में विलीन हो गया ।

मथुरा  के पौराणिक यादवों का परवर्ती नाम जादों ठाकुर हुआ ----

आधुनिक  समय में मथुरा के पौराणिक वास्तविक यादवों को जादों ठाकुर या जादों राजपूत कहा जाता है , जिनकी संख्या करौली , सरमथुरा , सबलगढ़ तथा सुमाबली क्षेत्र के अतिरिक्त देश के विभिन प्रान्तों में भी है । लेकिन जादों राजपूतों की सर्वाधिक संख्या ब्रजभूमि के निकटवर्ती क्षेत्र मथुरा ,आगरा ,अलीगढ़ ,हाथरस ,एटा , फ़िरोजावाद , बुलन्दशहर , कासगंज,हापुड़, महोबा ,बांदा ,हमीरपुर ,कौशाम्बी ,कानपुर ,इटावा ,औरैया एवं जालौन जिलों में है । बिहार एवं मध्य प्रदेश के कई  जनपदों में भी जादों राजपूत बहुतायत संख्या में पाए जाते हैं ।
इतिहास से सिद्ध होता है कि शब्द व्युत्पति के क्रम में यदु ,जादव ,जादों ,यादव सभी एक ही है जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर नए रूप में जाने गए ।वस्तुतः सभी का मतलब एक ही है ।संस्कृत शब्द "यादवा " या 'यादव "का हिन्दी में अर्थ जादों ही है ।सर हैनरी इलियट के अनुसार" जादों "शब्द की  उत्तप्ति "यदु और यादव से हुई किन्तु सही रूप से तो जादों ,जदु ,यादव सभी शाब्दिक रूप से समान है और मूलतः" यादव "शब्द के विकृत रूप है ।वेदों एवं पुराणों में मनु, पाणिनी , कौटिल्य  जैसे विद्वानों के अलावा भी विख्यात इतिहास लेखक - टॉड ,  कनिंघम ,रेनॉल्ड्स ,ताजुलमासिर , ग्राउस ,पौलेट , इलियट , पार्जिटर के अतिरिक्त विभिन्न जाने-माने भारतीय इतिहास कारों जिनमे मजूमदार ,रायचौधरी , जगदीश सिंह गहलौत , दशरथ शर्मा ,ओझा जी , प्रो0 इरफान हबीब , हबीबुल्ला , मथुरा के प्रभुदयाल मीतल एवं बाजपेयी तथा विभिन जैन धर्म के इतिहास लेखकों ने भी आधुनिक जादों ,भाटी ,जडेजा ,जाधव आदि को वंशानुगतरूप से मथुरा एवं द्वारिका का "पौराणिक यादव या यदुवंशी " ही माना है ।इसके विस्तृत एवं सटीक प्रमाण भारत सरकार द्वारा लिखवाये गए विभिन्न प्रान्तों के डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स में आज भी मौजूद है जिन्हें कोई बदल नहीं सकता और झुठला भी नहीं सकता ।  लेकिन सन 1920 के बाद कुछ पशुपालक जाति के लोगों ने अपना सामाजिक स्तर ऊंचा उठाने के लिए श्री कृष्ण जी को गौपाल मानते हुए उनके पूर्वज यदु के वंश में अपना मनगढ़ंत इतिहास बना डाला जो असत्य है।पौराणिक शुरसैनी  "यादवा " एक  क्षत्रिय /राजपूत वंश है न कि कोई जाति विशेष ।भाषाविदों के अनुसार यदि  "यादव " शब्द के "य"को  "ज"में परिवर्तित किया जाता है तो "जादव ",शब्द मिलेगा । यादव और जादव दोनों ही रूप जायज है और अन्तःपरिवर्तनीय है । पुराणों एवं वेदों के अनुसार ययाति -नहुष के ज्येष्ठ पुत्र यदु के वंशजों को "यादव " या "यदुवंशी "कहा गया है  ।इस वंश में आगे चल कर मधु तथा वृष्णि दोनों विख्यात शासक हुए जिनके कारण इस वंश को "माधव या वार्ष्णेय भी कहा गया है जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत में इस्पष्ट लिखा हुआ है ।  श्रीकृष्ण  के दादा शूरसेन के नाम पर मथुरा क्षेत्र के यादवों या यदुवंशियों  (जादों ) को शुरसैनी भी कहा गया है ।कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्र शूरसेन के नाम पर इस मथुरा -बयाना -कमन (कामा ) के क्षेत्र को "शूरसेन देश " या " शूरसेन जनपद " भी कहते थे ।
यदुवंशी राजा कुलचन्द और उसके वंश का महत्व इस लिए अधिक है कि मथुरा के इतिहास में कृष्ण कालीन अथवा उनके परवर्ती यदुवंश की स्वतंत्र राजसत्ता का ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है और वह भी एक समकालीन विदेशी लेखक द्वारा किया हुआ। उस राजवंश से पहले मथुरा राज्य पर जिन महान राजाओं का शासन रहा था , वे नाग राजाओं को छोड़ कर सभी दूसरे स्थानों के थे ।मथुरा राज्य तो उनके विशाल साम्राज्य का एक भाग मात्र था ।इस भूले हुए देश भक्त ,साहसी तथा बलिदानी जादों शासक कुलचंद पर ऐतिहासिक शोध करना इतिहास वेत्ताओं के लिए एक रिक्त विषय भी है ।

संदर्भ--

1-टॉड , 1/72 -3;आर्के 0 सर्वे0 , 20/5-6;ब्रुकमैन ,29 ।
2-बलदेव सिंह (पांडुलिपि ) ,पृष्ठ 5 ;ब्रुकमैन , 29 ;इम्पी 0 गजे0 , 15 /26 ; *
*दीक्षित ,1 और जाट जगत ,10।
3-ए0 इ0 (लखीमपुर ) ,4/243 , मुंगेर 18/304 ;दृष्टव्य -भारतीय विद्याभवन ,4/5 -6, डा0 त्रिपाठी (हिस्ट्री आफ कनौज ) , 216-230 ; विस्तृत अध्ययन के लिए द्रष्टव्य -लेखक द्वारा युगयुगीन बयाना , अध्याय 4 ।
4-आर्के0 सर्वे0 20/6 का मत है कि श्री कृष्ण की 77 वीं पीढ़ी में धर्मपाल जादों राजपूत ने जन्म लिया था और उसने आठवी सदी में अपने नाम के साथ :"पाल "शब्द लगाया था ।
5-गहलोत ,597 (पा0 टि0 ) ।
6-मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार आगरा एक प्राचीन कस्वा था ,जहाँ महाभारत काल में राजा कंस ने राजनैतिक बन्दियों के लिए कारागार बनवाया था (तारीखे दाउदी ,पृष्ठ 42 ) ।सुल्तान महमूद गजनवी की स्तुति में मसूद के लिए कसीदा के अनुसार यहां पर एक फौलादी दुर्ग था ,जिसको महमूद ने मिट्टी में मिला दिया था (तुजुके जहाँगीरी ) ।
7-बलदेव सिंह ,5 ;वाक्या राज0 2/34 ,चौबे ,1 ;ब्रुकमैन ,316-7 ।
8-ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास (1966ई0) -लेखक डा0 प्रभुदयाल मितल ।

9-अलउत्तवी कृत तारीखे यामिनी (इ0 डा0) ,2/42-46;तबकाते अकबरी 10 ;अल्बदउँनी 22-25 ; फरिश्ता (इ0डा0 ) ,2 ,459-61 ; ओझा 1 /264-65 ;आशीर्वादी लाल (दिल्ली सल्तनत ) ,पृष्ठ 39-48 ;मथुरा महिमा , 61 ;डा0 मुहम्मद हबीब (सुल्तान महमूद ऑफ गजनी ) ।
10-नैणसी की ख्यात ,2/4 ;टॉड ,2/280-81 ;आमेर की ख्यातें (ओझा संग्रह );राय ,2/823 -24 ; माबेल डफ ,291 ;मार्शल 3;डा0 भार्गव (राजस्थान ) 115 ।
11-ब्रुकमैन ,317 ;दीक्षित , 1;चौबे 1;जाट जगत ,10 ;बलदेव सिंह ,5 ;वाक्या राज0 ,2/34 ।
12-इम्पी 0गजे0 , 7/137 ,15/26 ;आर्के 0 सर्वे0 ,6/54 ,20/6 ,62 ;गहलोत ,597 ;दीक्षित ,188 ;वाक्या राज0 ,2/26 ;वीर विनोद , 1497-8 ।
13-शिलालेख -इ 0ए0 ,भाग 6/55 ,14/9-10 ;काव्यमाला 129-30 ।
14-विजयमन्दिरगढ़ के दक्षिण में 14 मील , हिण्डोन के पूर्व में 14मील , करौली के उत्तर में करौली मांसलपुर राजमार्ग से 6 मील त्रिभुवनगिरि की उच्च श्रृंग पर ।शिलालेख के अनुसार इसका निर्माण 1058 ई0 में हुआ था ।
15-आर्के0 सर्वे 0 ,20/3 ( भूमिका ) 5 ;इम्पी0 गजे0 ,15 /26 ;गहलोत 600।
16-आर्के0 सर्वे0 ,6/54 ।
17-विजयपाल रासौ (कविरत्न माला ) ।
18- कविरत्नमाला ,पृष्ठ 23;ब्रज का इतिहास ,2/213।
19- इम्पी0 गजे0 ,17 /313 ;ब्रुकमैन ,
20 - दीक्षित ,7 ;आर्के0 सर्वे0 ,6/55, 20/60 ।
21- इम्पी0 गजे0 ,8 /137 ,ओड़ायर 3/24 ;वीर विनोद ,1498, बलदेव सिंह ,6 ;वाक्या राज0 ,2/35 ;दीक्षित ,2;गहलोत 599।
22-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध
23-व्रज नन्दिनी मासिक हिन्दी पत्रिका वर्ष 7,अंक 7-8, 2012 ।
24-मथुरा के यमुना तटीय स्थलों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास लेखक जयंती प्रसाद शर्मा ।
25-भरतपुर संभाग :जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन -लेखक डॉ0 एम0 एल0 गुप्ता ।
26-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स , भरतपुर (जयपुर 1971 )पृष्ठ 45-60 ।
27-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स ,सवाईमाधोपुर पृष्ठ 32-43 O
28-गजेटियर्स ऑफ करौली स्टेट  -पाउलेट ,पृष्ठ 2-12 ।
29-उत्तर प्रदेश गजेटियर्स  मथुरा भाग 10 -21 ,1959 ,पृष्ठ 54, 85
30-उत्तर प्रदेश गजेटियर्स आगरा ,1965, पृष्ठ 26-30
31-मथुरा मेमो -ग्रॉउस ।
32-राजस्थान का जैन साहित्य 1977
33-जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक
34-,राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा
35-आइन्ट सिटीज एंड टाउन्स ऑफ राजस्थान -लेखक कैलाश चन्द जैन
36-ब्रज संस्कृति विश्व कोष भाग 2
37-करौली पोथी एवं करौली ख्यात अप्रकाशित ।
38-पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ अनसैट इंडिया -एच0 सी0 रायचौधरी
39-हिस्ट्री एन्ड कल्चर ऑफ इंडियन पीपल ,भाग 1
40-महाभारत दीर्णपर्व  चैप्टर 144 ,पृष्ठ 6-7

लेखक-डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गाँव-लढोता ,सासनी
जनपद -हाथरस,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर कृषि मृदा विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001


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