त्रिपुरानगरी (ताहनगढ़ दुर्ग ) के यदुवंशी महाराजा तहनपाल के वंशजों का ऐतिहासिक शोध --


त्रिपुरानगरी (ताहनगढ़ दुर्ग )के यदुवंशी महाराजा तिमनपाल के वंशज--

धर्मपाल एवं हरियाहरिपाल--

त्रिभुवनगिरि (ताहनगढ़) के यादव शासकों के बारे में अति विश्वसनीय श्रोत उपलब्ध नहीं है। इस लिए बाद के शासकों एवं उनके  वंशधरों के कालक्रम के  विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता ।

महाराजा तिमनपाल का ज्येष्ठ पुत्र धर्मपाल था जिसे तिमनपाल ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया लेकिन उसका  दूसरा पुत्र हरिपाल बड़ा ही साहसी व बहादुर था। उसकी प्रशासनिक कुशलता से प्रभावित होकर  महाराजा तिमनपाल ने उसे शासन की जिम्मेदारी सौंप दी थी। कहा जाता है कि वह (हरिपाल) गजनी के सुल्तान के घोड़े को तिमनगढ़ ले आया था  तथा बयाना (विजयमन्दिर गढ़) के आक्रमणकारी अबुवक्रकन्धारी से उसने बदला लिया। इस बहादुरी से प्रसन्न होकर तिमनपाल ने राज्य का शासन उसके सुपुर्द कर दिया था। यद्यपि बड़ा पुत्र होने के आधार पर तिमनपाल की मृत्यु के उपरान्त , धर्मपाल राज्य का उत्तराधिकारी बना तथा उसका राज्याभिषेक हुआ। किन्तु उसके राज्यारोहण की स्थिति के विषय में स्प्ष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं । यद्यपि धर्मपाल राजगद्दी पर आसीन हुआ , लेकिन राज्य के शासन की जिम्मेदारी हरिपाल के हाथों में ही थी। हरिपाल एक वीर तथा पराक्रमी योद्धा था। उसने धर्मपाल की अधीनता स्वीकार नहीं की और न ही अपने बड़े भाई धर्मपाल को शासक के रूप में स्वीकार किया। इस कारण धर्मपाल नाम मात्र का शासक बना रहा और हरिपाल का राज्य के शासन पर  आधिपत्य बना रहा। इसी समय दोनों भाईयों के मध्य आन्तरिक कलह पैदा हो गयी और सत्ता- संघर्ष निरन्तर बढ़ता रहा। इस आन्तरिक कलह के कारण राज्य की स्थिति छिन्न-भिन्न होती गई तथा प्रशासनिक व्यवस्था भी  कमजोर होती रही। आये दिन सत्ता हासिल करने के लिए षड्यन्त्र रचे जाते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि हरिपाल ने कुछ समय  बाद बलपूर्वक दुर्ग पर अधिकार कर स्वयं को महाराजा घोषित कर दिया। ऐसी परिस्थिति में धर्मपाल को अपनी जान बचाने के लिए तिमनगढ़ दुर्ग से निर्वासित होकर जंगलों में जाना पड़ा। इतिहासवेत्ताओं  के अनुसार धर्मपाल धोलदेवरा नामक स्थान पर जाकर एक किला बना कर रहने लगा। किन्तु कुछ समय के बाद धर्मपाल के पुत्र कुँवरपाल ने अपने चाचा हरिपाल को मारकर इस दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया।"

इस प्रकार कुंवरपाल (प्रथम) ने अपने पिता की खोई हुई विरासत पुनः प्राप्त कर ली और इस सता- संघर्ष का अंत कर दिया। धर्मपाल अब वृद्धावस्था से गुजर रहा था। इस कारण धर्मपाल ने अपने पुत्र कुँवरपाल (प्रथम) को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तथा शासन की जिम्मेदारी अपने पुत्र के हाथों में सौप दी। कुछ दिनों  बाद धर्मपाल की मृत्यु हो गई और कुँवरपाल (प्रथम) उसका उत्तराधिकारी बना।

कुँवरपाल प्रथम --

कुँवरपाल (प्रथम) शूरसैनी शाखा के यदुवंशी (जादों)  राजा धर्मपाल का ज्येष्ठ पुत्र था । धर्मपाल ने अपने पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित कर शासन की बागडोर उसके हाथों में साँप दी । धर्मपाल की मृत्यु के बाद तिमनगढ़ के सिंहासन पर कुँवरपाल बैठा । कुँवरपाल का बचपन घरेलू कलह में व्यतीत हुआ  लेकिन वह एक होनहार  वीर तथा महत्वाकांक्षी शासक था। उसने वयस्क होते ही पारवारिक कलह से बचने हेतु चम्बल नदी के पास  झिरी के नजदीक कुँवरगढ़  के किले का निर्माण कराया तथा अवसर पाकर उसने अपने चाचा हरिपाल का वध कर तिमनगढ़ को पुनः अधिकार में कर लिया। एक कुशल शासक की भाँति उसने दुर्ग में फैली अराजकता का अंत कर चारों ओर शाति स्थापित की।  तिमनगढ के सिंहासन पर बैठने के कुछ समय पश्चात् उसने बयाना पर आक्रमण कर अपना आधिपत्य कर लिया। बिजौलिया का शिलालेख वि0सं 0 1169 -1211 ( 1112-1154 ई0) के अनुसार अजमेर के चौहान राजा विग्रहराज चतुर्थ ने भादानक देश ( सम्भवत वर्तमान अलवर व गुड़गांव के आस-पास का क्षेत्र  ) पर आक्रमण कर तिमनगढ़ के शासक कुँवरपाल प्रथम के समय छीन लिया था।कुँवरपाल (प्रथम) भी कि अपने दादा महाराजा तिमनपाल की तरह धार्मिक सहिष्णु शासक था। उसने वैष्णव ,शिव धर्म के साथ-साथ जैन धर्म को भी संरक्षण दिया ।खतर्गगच्छ  पट्टावली व थिरुशाह ज्ञान भण्डार जैसलमेर की एक ताड़पत्रिय पांडु लिपि की काष्ट पट्टिका के अनुसार जैन मुनि आचार्य जिनदत्तसूरी ने तिमनगढ़  में अपने शिष्यों सहित विहार किया था तथा वहां के शासक कुँवरपाल सहित ब्राहचन्द , गुन समुद्राचार्य , सहनपाल एवं अनंगपाल  शिष्यों को धार्मिक प्रतिबोध दिया। इस विषय में "

" जिणि पड़िबोहउ  कुवरपालु नरवइ तिहुणगिरि।
पंच सत  मुणि नेम जेण वारिउ देसण करि।।"

इस प्रकार आचार्य जिनदत्त सूरि  ने यहाँ अपने शिष्यों के साथ पधारकर राजा कुँवरपाल (प्रथम) तथा अन्य आवक-श्राविकाओं को धर्मोपदेश दिया जिससे राजा ने दीक्षा पाकर अहिंसा का पालन किया पशुवली व मद्यपान  निषेध कर दिया। उन्होंने दादा साहब के उपदेशोपरान्त यहां दुर्ग में भगवान शांतिनाथ के एक जिनालय की स्थापना की तथा दादा साहब के कर कमलों द्वारा उसकी प्रतिष्ठा कराई थी। दादा साहब के उपदेश से कुँवरपाल पर इतना गहरा प्रभाव पडा कि वे मुनिवर के परम भक्त बन गये। विभिन्न धर्मों के मुनियों को यहा आश्रय दिया गया । यहां जीवहिंसा एवं मद्यपान पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया तथा गरीबों को दान दिया जाने लगा एवं कल्याणकारी कार्य कराना आरम्भ किया जाने लगा। अब दुर्ग धार्मिक दृष्टि से पवित्र माना जाने लगा तथा यह मूर्ति पूजा का एक केन्द्र बन गया। दुर्ग में नित्य प्रतिदिन धार्मिक उत्सवों व कार्यक्रमों का आयोजन बडी धूमधाम से किया जाने लगा तथा ईर्ष्या ,घृणा ,क्रोध एवं  हिंसा को पाप माना जाने लगा जिससे धार्मिक समन्वयता आने लगी। नगर में धार्मिक दृष्टि से शांति,  प्रेम , भाईचारा व अहिंसा का मधुरस चारों ओर फैलने लगा।

कुँवरपाल का मूल्यांकन -

यद्यपि कुँवरपाल (प्रथम) पराक्रमी व योद्धा शासक था तथापि जैन धर्म का उस पर इतना प्रभाव पहा कि उसने अहिंसा को अपना परम धर्म मान लिया और अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं को हमेशा के लिए विराम लगा दिया। उसके काल की एक मिश्रित धातु की मुद्रा दुर्ग से प्राप्त हुई है जिसके मुख भाग पर " श्री मत्कुमारपाल देव " देवनागरी लिपि में अंकित है तथा पृष्ठ भाग पर चतुर्भुजी लक्ष्मी चित्रांकित है। जदुनाथ ने वृत्त विलास में कुँवरपाक के सम्बन्ध में लिखा है "

"कुँवरपाल तिनके (धर्मपाल) भये. भूपति बष (ख)त विलास ।
अजयपाल प्रगटे बहुरि क्यों जगत प्रतिपाल ।।

अजयपाल--

कुँवरपाल (प्रथम) की मृत्यु के पश्चात् अजयपाल उसका उत्तराधिकारी बना तथा विधिवत राजगद्दी पर बैठा।मथुरा के पास महावन प्रसस्ति के अनुसार अजयपाल  सन 1150 ई0( विक्रम संवत 1207 ) में तिमनगढ़ के शूरसेनी यादव राज्य पर शासन कर रहा था तथा उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। वह एक कल्याणकारी राजा था। उसने दुर्ग में अनेक निर्माण कार्य कराये तथा सभी धर्मों का सम्मान किया। उसके शासनकाल में वि०स० 1214/1157ई० में जैन आचार्य जिनदत्त सुरि के शिष्य जिनचन्दसुरी ने यहां शांतिनाथ भगवान के जिनालय पर ध्वजदण्डारोपण के उत्सव में भाग लिया था। खरतरगच्छपट्टावली के अनुसार जिनचन्द सुरि यहां अपने गुरुवर दादा जिनदत्तसुरि द्वारा प्रतिष्ठित भगवान शांतिनाथ के जिनालय के शिखर पर कलशाभिषेक में भाग लिया तथा ध्वजदण्ड रोपित किया। इस अवसर पर उन्होंने तिमनगढ़ की हेमदेवी गणिनी को प्रवर्तनी का पद प्रदान कर यहाँ के शासक अजयपाल के जीवन पर एवं जैन धर्म के श्रावक-श्राविकाओं को धर्मोपदेश दिया तथा अपने गुरु की परम्परा बनाये रखी।

अजयपाल के जीवन पर जैन मुनियों के उपदेशों का गहरा प्रभाव पड़ा जिससे प्रभावित होकर महाराजा ने यहां जैन
मुनियों , विद्वानों व साहित्यकारों को उचित संरक्षण  प्रदान किया था। उन्होंने अपने नाम से एक विहार की स्थापना की जिसे अजय नरेन्द्र बिहार के नाम से जाना जाता था। समकालीन अपभ्रंश साहित्यकार व कवि विनयचन्द ने इस विहार में निवास कर चुनड़ी रास एवं कल्याण रासो नामक ग्रंथों की रचना की थी ।इसका उल्लेख चुनड़ी रास में इस प्रकार दिया है --

तिहुमणि गिरिपुरु जगि विक्खायउ ,
सग्ग  ख डुणा धरयलि आयउ ।
म्तहि निन्वसंते  मुणिवरण ,
अजयणरिद हो राय-विहार हिं ।
वेंगे विरइय चुनाडिया सोहहु ,
गुणिवर जे सुय धारहि ।।
इय चुनड़ीय मुणींद  -पयासी,
संपुणा जिण आगम भासी ।।

कवि ने अजयपाल  के समय इस दुर्ग को स्वर्ण  खण्ड के समान बताया है। इससे प्रतीत होता है कि यह दुर्ग इस जग में विख्यात था और धन-धान्य से परिपूर्ण था। कवि विनयचन्द माथुर संघ का भट्टारक था। इससे यह ज्ञात होता है कि उसके शासन काल में धार्मिक सहिष्णुता की भवना थी तथा सभी धर्मों का सम्मान किया जाता था। कवियों , साहित्यकारों  तथा जैन मुनियों को यहाँ उचित संरक्षण दिया जाता था। महाराजा अजयपाल एक कला प्रेमी थे  जिसने दुर्ग में अनेक इमारतों का निर्माण कराया ।यह एक धार्मिक , उदार  एवं न्यायप्रिय शासक था जो निष्पक्ष न्याय करता था। यह स्वयं एक कुशल प्रशासक था। उसका मूल्याकन करते हुए कवि  जदुनाथ ने उनके विषय अपने रचित ग्रन्थ वृतविलास में लिखा है -
"अजयपाल प्रगटे बहुरि , कर्यों जगत प्रतिपाल" 
अर्थात् उसने अपने पूर्वजों की तरह अहिंसा के सिद्धान्त का पालन किया तथा कभी युद्ध नहीं किया अपितु पड़ौसी राज्यों से अच्छे ताल्लुकात रखें।

हरिपाल -

अजयपाल की मृत्यु के पश्चात हरिपाल तिमनगढ़ के  यदुवंशी राज्य का उत्तराधिकारी बना तथा विधिवत तरीके से उसका तिमनगढ़ की गद्दी पर राज्याभिषेक हुआ । कविराज जदुनाथ के वृत्त विलास में हरिपाल के सम्बन्ध में लिखा है --
हरिपाल  तिनके (अजयपाल) भये , भूप मुकुट जिमि हीर ।" महावन प्रशस्ति के अनुसार हरिपाल तिमनगढ़ में विक्रम संवत 1227 (सन 1170ई0 ) शासन कर रहा था। वह एक कुशल प्रशासक था। उसने राज्य विस्तार की अपेक्षा अपने पूर्वजों द्वारा प्रदत राज्य को सम्पन्न, सुखी व शांत बनाने का पूरा प्रयास किया तथा जनहित के कार्य कराये ।वह धार्मिक से दृष्टिकोण से एक उदार  एवं सहिष्णु शासक था। उसने सभी धर्मों का सम्मान किया तथा उन्हें उचित संरक्षण दिया एवं उनके विकास में समान  धारणा को अपनाया ।

उसके शासनकाल का निर्मित माथुर संघ के मुनि बालचन्द के स्मारक के स्तम्भ पर वि0 स0 1232/1175 ई0 अंकित है जिसमें अनेक चित्रकारियां पत्थरों को उकेर कर की गई हैं  जिससे प्रतीत होता है कि वह   एक कला प्रेमी  शासक था। यह स्मारक उस समय की स्थापत्य कला व चित्रकला का एक मिश्रित एवं  सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह स्वभाव में एक दयालु व न्याय प्रिय तथा पवित्र विचारों का शासक था जिसने अपने यहाँ कलाकारों , व्यापारियों, श्रेष्ठियों को उचित संरक्षण दिया। कवि लक्ष्मण सैन ने अपनी अपभ्रंश कृति "जिनदत्त चरित "  में बतलाया है कि उसके पिता, पितामह  एवं अन्य पूर्वज  तिमनगढ़ में निवास करते थे। उनके पिता का नाम साहुल श्रेष्ठी था ।यह नगर व्यापारिक केन्द्र बन गया। उसने सभी धर्मों के आचार्यों, मुनियों, कवियों तथा विद्वानों को आश्रय दिया तथा वह उनका शास्त्रार्थ सुनता था। वह स्वयं एक कुशल सेनानायक था तथा उसने अपनी आत्मरक्षा हेतु सेना को संगठित किया।

सहनपाल -
हरिपाल की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी सहनपाल तिमनगढ़ की गद्दी पर  आसक्त हुआ।कविवर जदुनाथ ने सहनपाल के विषय में अपने ग्रन्थ वृतविलास में लिखा है -
" तिनके भये साहनुपाल नृपु ,साहस समुद्र गम्भीर "
अर्थात सहनपाल , हरिपाल के पुत्र थे तथा अपने पिता सहनपाल के देहान्त के पश्चात शासक बने ।सहनपाल एक साहसी ,वीर तथा समुद्र के समान गम्भीर था।भरतपुर के पास अघाटपुर गाँव से प्राप्त जिन प्रतिमा छायालेख के अनुसार वह संवत 1244 /  1187 ई0 में तिमनगढ़ पर शासन कर रहा था।पृथ्वीराज तृतीय के समय सहनपाल बयाना एवं तिमनगढ़ का शासक था।उसने अपनी प्रशासनिक कुशलता के कारण राज्य में शान्ति व अमन चैन कायम किया और अपने पूर्वजों की भाँति धार्मिक सौहाद्र एवं शाहिष्णुता की नीति को कायम रखा।उसके शासनकाल में वैष्णव व शैव धर्म के साथ-साथ जैन धर्म भी उन्नति के शिखर पर था।खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार यहाँ जैन मुनि यशोभद्राचार्य के पास आचार्य जिनपति सूरि के  दो शिष्य जिनपाल गणि एवं धर्मशील गणि न्याय एवं तर्क शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के लिए तिमनगढ़ (त्रिभुवनगिरि ) में विक्रम संवत 1244 /1187-88 ई0 में आये तथा आचार्य श्री यशोभद्राचार्य की आज्ञा पाकर यहां के संघ के साथ तीर्थ यात्रा पर गए थे।इससे विदित होता है कि तिमनगढ़ एक शिक्षा का केन्द्र विन्दु बन गया था।राजा सहनपाल पर भी जैन धर्म का अच्छा-खासा प्रभाव था इस वजह से उसने कभी हिंसात्मक लड़ाई नहीं लड़ी । इतिहासकार डॉ0 दसरथ शर्मा के अनुसार सहनपाल के समय पृथ्वीराज तृतीय ने
विक्रम संवत 1234 से  1239 (1182 से 1187 ई0 ) के मध्य भदानक देश पर आक्रमण कर संभवतः  यदुवंशियों से दिल्ली के आस-पास का भूभाग महावन एवं मथुरा  तक का क्षेत्र छीन लिया। उसके राज्य में केवल यदुवाटी क्षेत्र (बयाना ,कामां एवं तिमनगढ़ ) के आस-पास का पहाड़ी पठारी एवं डांग क्षेत्र  रह गया। उसके शासन काल का एक शिलालेख वर्तमान में  तिमनगढ़ दुर्ग के मुख्य प्रवेश द्वार (जगनपोर) पर लगा है जिस पर वि 0 स0  1244/ 1187 ई0 अंकित  है जिस पर शैवधर्म  के मुनि अचयन्तधज योगी का नाम लिखा है तथा नीलकण्ठ महादेव अंकित है। इससे विदित होता है कि भी उन्नति के शिखर पर था। सहनपाल ने दुर्ग में भवनों,  मन्दिरों का  भी निर्माण कराया था जिससे यहां  सभी  धर्मों के मुनि धर्मोपदेश देने  के लिए आते थे। सहनपाल ने तिमनगढ़ में व्यापारियों, आचार्य मुनियों , विद्वानों  तथा कवियों को आश्रय दिया। इस पर तिमनगढ़ में  दूर- दूर से व्यापारी आकर निवास करने लगे जिससे यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र बन गया।कवि जदुनाथ ने अपने ग्रन्थ  वृत्त विलास में उसके उत्तराधिकारी के रूप में अनंगपाल को बतलाया है लेकिन समकालीन साहित्य स्रोतों से विदित  होता है कि अनंगपाल  तिमनगढ़ का शासक नहीं था  अपितु  कुँवरपाल (द्वितीय) सहनपाल के बाद तिमनगढ़ का शासक बना ।

संदर्भ

1 कवि जदुनाथ वृत विलास , ओझा निबन्ध संग्रह पृष्ठ  1-5 ।
2-डा0  दशरथ शर्मा, राजस्थान थ्रू द एजेज , पृष्ठ 561 ।

3-डॉ० ओझा , ओझा निबन्ध संग्रह , भाग- 3 ,पृष्ठ 1-2 "कुंवरपाल कुमारपाल का अपभ्रंश नाम है "।

4-करौली राज्य की ख्यात (टंकित  प्रति ), पृष्ठ  5 ।

5-डॉ० दशरथ शर्मा, राजस्थान थ्रू  द एजेज,  पृष्ठ  143 ।

6-दामोदर लाल गर्ग, करौली इतिहास के झरोखे से , पृष्ठ  30-31

7-गहलोत, राजपूताने का इतिहास भाग  प्रथम , पृष्ठ  579 ।
8-दामोदर लाल गर्ग, करौली इतिहास के झरोखे से करौली से ,पृष्ठ 35-36 ।

9-डॉ० के.सी. जैन, ऐन्शियन्ट सिटीज एण्ड टाउन्स ऑफ राजस्थान, पृष्ठ 57।
10- गोपीनाथ शर्मा, राजस्थान का इतिहास 1978.पृष्ठ  104।
11-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
12-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
13-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
14-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
15-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
16-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
17-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
18-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली
19-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
20-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
21-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं
करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
22-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
23-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
24-यदुवंश -गंगा सिंह
25-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
26-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली
27-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा
28-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता
29-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग
30-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन
31-बयाना-ऐ कांसेप्ट ऑफ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी -डा0 राजीव बरगोती
32-प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह
33-आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60--कनिंघम
34-रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.--कनिंघम
35-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.
36--राजस्थान का जैन साहित्य 1977
37-जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक
38-,राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा
39-हिस्ट्री ऑफ जैनिज़्म -कैलाश चन्द जैन ।
40-ताहनगढ़ फोर्ट :एक ऐतिहासिक  सर्वेक्षण -डा0 विनोदकुमार सिंह
41-तवारीख -ए -करौली -मुंशी अली बेग
42-करौली ख्यात एवं पोथी अप्रकाशित ।

लेखक--– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लाढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001

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