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Showing posts from December, 2021

दास्ताने पूर्व मध्यकालीन जादों राजवंश का बयाना (विजयमन्दिरगढ़ ) किला ---

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दास्ताने पूर्व मध्यकालीन जादों राजवंश का बयाना (विजयमन्दिरगढ़ ) किला--- बयान भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसका जितना महत्व हिन्दू काल में था ।उससे भी कहीं अधिक मुस्लिम काल में हो गया। इसका नाम श्रीपथ था। अब तक जितने भी शिला लेख यहाँ से प्राप्त हुए हैं उनसे यही ज्ञात होता है। इस नगर का प्राचीन नाम वाणासुर नगरी भी बतलाया जाता है, किन्तु इसका प्रमाण नहीं मिलता ।ऐसा कहा जाता है कि वाणासुर यहीं का निवासी  था। यहीं उसकी पुत्री ऊषा का मंदिर है जो कई बार मस्जिद व मंदिर के रूप में तब्दील हो चुका है। इस नगर का प्राचीन इतिहास अनेक पौराणिक गाथाओं से भरा पड़ा है। वैदिक काल में यह किला मतस्य जनपद का श्रेष्ठतम सामरिक महत्व का दुर्ग था। ईसा से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व इस किले पर मथुरा के शूरसेन (यदुवंशी ) शासकों का अधिकार था । बयाना का किला नगर से लगभग चार मील दक्षिण में 800 फीट ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। इसका  क्षेत्रफल लगभग 10 वर्गमील होगा। इसमें किसी समय अनेक महल, तालाब, बाबड़ी व बाँध थे जिनमें से कुछ अभी तक शेष हैं। इस दुर्ग में अनेक स्थल ऐतिहासिक महत्व के हैं जिनमें पत्थर की लाट (जि

करौली के जादों राजवंश के पूर्वजों के शौर्य ,वीरता एवं संघर्ष का प्रतीक है मध्यकालीन ऐतिहासिक दुर्ग तिमनगढ़ (ताहनगढ़ )---

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करौली जादों राजवंश के पूर्वजों के शौर्य , वीरता एवं संघर्ष का प्रतीक  ऐतिहासिक मध्यकालीन  दुर्ग तिमनगढ़(ताहनगढ़)--- - "अपनी बहुमूल्य सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर तथा यदुवंशियों के मुगलों से वीरतापूर्ण गौरवशाली  संघर्ष के इतिहास का प्रतीक है तिमनगढ़ /ताहनगढ़ दुर्ग "।इसे तत्कालीन इतिहासकारों एवं लेखकों ने विभिन्न नामों तमनगढ़ , त्रिभुवनगढ़ ,थंनगढ़ से वर्णित किया है तथा इस दुर्ग को प्राचीन कलाओं एवं संस्कृति का अदभुत खजाना एवं राजस्थान का खजुराहो भी कहा जाता है।इस किले के अन्दर बसे नगर को उस समय त्रिपुरारि /त्रिभुवनगिर नगरी आदि नामों से भी सम्बोधित किया गया है। बयाना से लगभग 23 कि0 मी0 दक्षिण में तथा  करौली जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर उत्तर -पूर्वी क्षेत्र में मासलपुर के पास एक उन्नत पर्वत शिखर माला (अरावली पर्वत माला) पर मध्यकाल का प्रसिद्ध ऐतिहासिक दुर्ग तिमननगढ़ /ताहनगढ़/त्रिभुवनगढ़ स्थित है ।दुर्गम पर्वतमालाओं से आवृत ,वन संपदा से परिपूर्ण तथा नैसर्गिक सौंदर्य से सुशोभित इस  दुर्भेद्य दुर्ग की अपनी  निराली ही शान और पहिचान है।वीरता और पराक्रम की अनेक घटनाओं के साक्षी इस दुर्ग म

मध्यकालीन जादों राजपूतों के दुर्ग तिमनगढ़ का स्वर्णिमयुगीन ऐतिहासिक अध्ययन--

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मध्यकालीन जादों राजपूत दुर्ग तिमनगढ़  के गौरवशाली स्वर्णिम युग  का ऐतिहासिक अध्ययन---- यहां के यादव /यदुवंशी  क्षत्रिय राजा शूरसेन जनपद (प्राचीन मथुरा राज्य ) के उन चन्द्रवँशी यादवों के वंशज थे जिनके नेता श्री कृष्ण थे । सन 1146 ई0 के लगभग त्रिभुवनगढ़ में श्री जिनचंद्र सूरि पधारे थे ।त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुँवरपाल ने जैनमुनि जिनदत्त सूरि से प्रतिबोध प्राप्त किया था।सन 1196ई0 में शाहबुद्दीन गौरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक और बहाउद्दीन तुगरिल के साथ त्रिभुवनगढ़ पर आक्रमण किया । ताजुल-मआसिर में इस स्थान का नाम "थंगर " लिखा है और तबकाते -नासिरी उसे " थन कीर "लिखा है ।फरिश्ता ने उसे "बयाना "से अभिन्न माना है ।फरिश्ता के कथन को आधुनिक इतिहासकारों ने भी माना है ।वास्तविकता यह है कि "थनकीर  या "थंकर " त्रिभुवनगढ़ या ताहनगढ़ के लिए प्रयुक्त हुए है ।उससे 14 मील दूर यह नगर है जिसे बयाना कहा जाता है ।इसका मूल नाम श्रीपथ नगर था , उसे विजयगढ़ भी कहा जाता था ; वही बाद में बयाना कहलाया ।जिस प्रदेश में श्रीपथ और त्रिभुवनगढ़ नगर थे , उसे "भादानक देश

पूर्व मध्यकालीन ऐतिहासिक मंडरायल दुर्ग यदुवंशियों के शौर्य एवं वीरता का प्रतीक---

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पूर्व- मध्यकालीन ऐतिहासिक  दुर्ग मंडरायल यदुवंशियों के शौर्य एवं वीरता का प्रतीक  --- मंडरायल दुर्ग ई0 1145 से 1423 ई0 तक यदुवंशी जादों राजवंश की राजधानी रहा ।यह दुर्ग चम्बल नदी की सीमा पर एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। मंडरायल नगर  करौली जिला मुख्यालय  से 40 कि. मी. चम्बल नदी की सीमा पर दक्षिण पूर्व में पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य एक आयताकार पहाड़ी के नीचे बसी मध्यकालीन एक बस्ती है जो दो प्रान्तों को विभक्त करते हुए चम्बल नदी के किनारे मंडरायल नाम से जानी जाती है। यह बस्ती जहाँ कभी बागों के वास्ते ख्याति हासिल किये हुये थी, वहीं यहाँ का सेठीयाना चम्बल पार इलाके पर अपना प्रभुत्व जमाये हुये था। करौली के इस क्षेत्र में आने का कोई प्रशस्त मार्ग नहीं होने के कारण यहाँ का सारा व्यापार, लेनदेन, शादी ब्याह आदि चम्बल पार इलाकों से हुआ करता था। इस कारण क्षेत्र की संस्कृति पर करौली रियासत की छाप कम और मध्यप्रदेश की ज्यादा पड़ी। मध्यकाल में यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रहा, चूंकि दक्षिण जाने के वास्ते बयाना के बाद माला दुर्ग के रूप में ग्वालियर था, जिसे हस्तगत करने के बाद ही दक्षिण भारत

सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर है मध्ययुगीन जादों क्षत्रियों का ताहनगढ़ दुर्ग--

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सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर है   मध्ययुगीन  जादों क्षत्रियों  का ऐतिहासिक ताहनगढ़ दुर्ग--- बयान से लगभग 23 कि.मी दक्षिण में एक उन्नत पर्वतशिखर पर मध्यकाल प्रसिद्ध दुर्ग ताहनगढ़  (तिमनगढ़) या त्रिभुवनगढ़ स्थित है। दुर्गम पर्वतमालाओं से आवृत , वन सम्पदा  से परिपूर्ण तथा नैसर्गिक सौन्दर्य से सुशोभित इस दुर्भेद्य दुर्ग की अपनी अदभुत निराली ही  शान और पहिचान है। शौर्य, वीरता और पराक्रम की अनेक घटनाओं के साक्षी इस किले में प्राचीन काल की भव्य और सजीव प्रतिमाओं के रूप में कला की एक बहुमूल्य  धरोहर  बिखरी पड़ी है जिसके कारण इसे राजस्थान का खजुराहो कहा जाता है। समुतल से लगभग 1309 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस दुर्ग का निर्माण बयाना के जादों राजा विजयपाल के पुत्र ताहनपाल (तिमनपाल  / त्रिभुवनपाल)  ने 11वीं  शताब्दी (1058 ई0)  ईस्वी के उत्तरार्द्ध में कराया था। अपने निर्माता के नाम पर यह किला ताहनगढ़( तिमनगढ़ ,तवनगढ़ ,थनगढ़,  त्रिभुवनगढ़ )  तथा दुर्ग वाली  पहाड़ी त्रिभुवनागिरि कहलाती है। इतिहास में  ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि मुस्लिम आधिपत्य के बाद इसका नाम इस्लामाबाद कर दिया गया  था। विदित इतिहास

छटी शताब्दी ई0 पू0 के सोलह महाजनपदों का ऐतिहासिक अध्ययन---

छठी शताब्दी ई० पू० के सोलह महाजनपदों  का ऐतिहासिक अध्ययन - -- भारत के सांस्कृतिक इतिहास का प्रारम्भ अति प्राचीन काल में हो गया था ।राजनीतिक इतिहास का प्रारम्भ बहुत बाद में हुआ था क्यों कि राजनीति इतिहास का  प्रारम्भ सुनिश्चित तिमिक्रम (Chronology) होता है  और इस दृष्टि से भारत के राजनीतिक इतिहास का प्रारम्भ सातवीं सदी के मध्य (650) ई0 पू0 ) के पहले नहीं मान सकते। उत्तर वैदिक काल में हमें विभिन्न महाजनपदों का अस्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस काल तक पूर्वी उत्तर प्रदेश व पश्चिमी बिहार में लोहे का व्यापक रूप में प्रयोग किया जाने लगा था, जिससे लोगों के भौतिक जीवन में बहुत क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। कृषि, व्यापार वाणिज्य में विकास की प्राचीन जनजातीय व्यवस्था को जर्जर कर दिया और छोटे-छोटे जनों का स्थान जनपदों ने ग्रहण कर लिया और ई० पूर्व  छठी शताब्दी तक जनपद महाजनपदों में परिवर्तित हो गये, जिनका उल्लेख बौद्धग्रंथ अंगुत्तर निकाय में मिलता है, जिसके अनुसार महात्मा बुद्ध के उदय से कुछ समय पूर्व समस्त उत्तरी भारत 16 बड़े राज्यों में विभक्त था। इन्हें सोलह महाजनपद (पोडश महाजनपद) कहा गया है,

जैसलमेर के यदुवंशी भाटी राजपूतों के राजचिन्ह एवं ध्वज का ऐतिहासिक वर्णन

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जैसलमेर के यदुवंशी भाटी राजपूतों के राजचिन्ह एवं ध्वज का ऐतिहासिक वर्णन --- जैसलमेर राज्य के यदुवंशी /पौराणिक यादव राजपूतों के राजचिन्ह में एक ढाल है ,जिस पर खंजन चिड़िया (सुगन चिडी ,पलंब )बैठी है।ढाल के दोनों तरफ एक -एक हिरन  चित्रित है।ढाल के बीच में किले की एक बुर्ज है और एक बलिष्ठ पुरुष की नंगी भुजा में एक तरफ से टूटा हुआ भाला आक्रमण करते हुये दिखाया गया है।यह राज्य चिन्ह किसी संन्यासी का बताया हुआ कहा जाता है और यह दरबार के झंडे पर ही लगा रहता है।यहां का शाही झंडा भगवा रंग का है क्यों कि कनफते योगी रतन नाथ ,रावल देवराज का गुरु था और उसने अपने शिष्य को कई प्रकार से लाभ पहुंचाया ।कुछ इतिहासकार कहते है कि यह राजचिन्ह जोगी रतननाथ द्वारा प्रदान किया गया था और दरबार के भगवे रंग के झंडे पर लगा रहता है।    ढाल का रंग नारंगी  है,लेकिन उस पर किले की बुर्ज जो काले रंग की है वे जैसलमेर किले को सूचित करती है और इस राज्य चिन्ह पर भाले के निशान् से इस वंश की कुल देवी स्वांगीयाजी सूचित होती है।भाले का निशांन ,कुलदेवी सांगियाजी की मगध के राजा जरासंध पर विजय का सूचक है।सांगियाजी का अर्थ है ,स्वांग

यदुकुल शिरोमणि योगीश्वर श्री कृष्ण , उनका समय एवं जदुवंशियों का विनाश --

मथुरा के प्राचीन   पौराणिक यदुवंशी जादों क्षत्रिय  राजवंश का ऐतिहासिक अवलोकन ----- श्री कृष्ण के पूर्व शूरसेन जनपद पर जिन राजवंशों ने शासन किया उनके सम्बन्ध में कुछ विवरण पौराणिक तथा अन्य साहित्य में मिलते हैं। सबसे प्राचीन सूर्यवंश मिलता है, जिसके प्रथम राजा-वैवस्वत मनु से इस वंश की परम्परा मानी गयी है। मनु के कई पुत्र हुए, जिन्होंने भारत के विभिन्न भागों पर राज्य किया। बड़े पुत्र इक्ष्वाकु थे, जिन्होंने मध्य देश में अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया। अयोध्या का राजवंश मानव या सूर्य वंश का प्रधान वंश हुआ और इसमें अनेक प्रतापी शासक हुए। मनु के दूसरे पुत्र का नाम नाभाग मिलता है और इनके लिए कहा गया है कि इन्होंने तथा अंबरीष  आदि इनके वंशजों ने यमुनातट पर राज्य किया। यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि नाभाग तथा उनके उत्तराधिकारियों ने कितने प्रदेश पर और किस समय तक राज्य किया। चंद्रवंश-- --- मनु की पुत्री का नाम इला था, जो चन्द्रमा के लड़के बुध को व्याही गयी। उससे पुरुरवा का जन्म हुआ और इस पुरूरवा ऐल से चन्द्रवंश चला। सूर्य वंश की तरह चन्द्र वंश का विस्तार बहुत बड़ा और धीरे-धीरे उत्तर तथा