मध्यकालीन जादों राजपूतों के दुर्ग तिमनगढ़ का स्वर्णिमयुगीन ऐतिहासिक अध्ययन--

मध्यकालीन जादों राजपूत दुर्ग तिमनगढ़  के गौरवशाली स्वर्णिम युग  का ऐतिहासिक अध्ययन----

यहां के यादव /यदुवंशी  क्षत्रिय राजा शूरसेन जनपद (प्राचीन मथुरा राज्य ) के उन चन्द्रवँशी यादवों के वंशज थे जिनके नेता श्री कृष्ण थे । सन 1146 ई0 के लगभग त्रिभुवनगढ़ में श्री जिनचंद्र सूरि पधारे थे ।त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुँवरपाल ने जैनमुनि जिनदत्त सूरि से प्रतिबोध प्राप्त किया था।सन 1196ई0 में शाहबुद्दीन गौरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक और बहाउद्दीन तुगरिल के साथ त्रिभुवनगढ़ पर आक्रमण किया ।
ताजुल-मआसिर में इस स्थान का नाम "थंगर " लिखा है और तबकाते -नासिरी उसे " थन कीर "लिखा है ।फरिश्ता ने उसे "बयाना "से अभिन्न माना है ।फरिश्ता के कथन को आधुनिक इतिहासकारों ने भी माना है ।वास्तविकता यह है कि "थनकीर  या "थंकर " त्रिभुवनगढ़ या ताहनगढ़ के लिए प्रयुक्त हुए है ।उससे 14 मील दूर यह नगर है जिसे बयाना कहा जाता है ।इसका मूल नाम श्रीपथ नगर था , उसे विजयगढ़ भी कहा जाता था ; वही बाद में बयाना कहलाया ।जिस प्रदेश में श्रीपथ और त्रिभुवनगढ़ नगर थे , उसे "भादानक देश "कहा जाता था (1).ताहनगढ़ , बयाना से 14 मील दक्षिण में है ।इसे तिमनपाल यादव (आधुनिक जादों ) राजा ने ग्यारहवी सदीं में बनवाया था और उसी गढ़ के आस -पास की बस्ती तिमनगढ़ कहलाने लगी ।यह गढ़ मध्यकाल में बड़ा सामरिक महत्व रखता था ।अतः यवनों के आक्रमण निरन्तर होते रहते थे और इसी कारण यह नगर शीघ्र उजड़ गया।यहाँ कई जैन व शैव मन्दिर थे लेकिन मुस्लिम आक्रमणों के कारण केवल खण्डहरों में ही तब्दील हो गए।

तिमनगढ़ का विनाश एवं वहां के तत्कालीन शासक राजा कुँवर पाल का आत्मसमर्पण ---

त्रिभुवनगढ़ या तिमनगढ़ के जिस राजा पर शाहबुद्दीन गौरी ने सन 1196ई0 में आक्रमण किया था उसका नाम ताजुल -मआसिर में "कुपाल "मिलता है ।अन्य इतिहासकारों के मतानुसार इसका वास्तविक नाम कुमारपाल या कुँवर पाल था ।सन 1146 ई0 के लगभग त्रिभुवनगढ़ (त्रिभुवनगिरि ) में श्री जिनचंद्र सुरि पधारे थे औऱ उन्होंने राजा कुँवरपाल को परिबोध दिया था (2 ) ।सन 1196 ई0 में कुँवरपाल अत्यंत वृद्ध हो चुके थे ।ताजुल-मआसिर के अनुसार "कुपाल "ने आत्मसमर्पण कर दिया औऱ अपने प्राणों की भिक्षा माँगी ।तुर्कों ने उसे प्राणदान देकर मुक्त कर दिया परन्तु उसका राज्य अपने अधीन कर लिया ।इसके बाद कुँवरपाल के राज्य से मूर्तिपूजा का विनाश कर दिया गया ;समस्त मुसलमानों , हर्बियों औऱ जिम्मियों से देय राज्य कर निश्चित करा दिया (3).
त्रिभुवनगढ़ के वृद्ध राजा कुँवरपाल द्वारा आत्मसमर्पण करने के बाद वहां की जनता पर बहुत अत्याचार हुए ।इसका कुछ वर्णन समकालीन कवि लाखू या लक्ष्मण ने अपने "जिनदत्त चरित " में किया है (4 )--
त्रिभुवनगढ़ के निवासी श्रेष्ठ आनन्द-विलास का जीवन बिता रहे थे ।मलेच्छवाहिनी ने बलपूर्वक उन्हें भगा दिया , वे विस्थापित हो गए ।लक्ष्मण को बिलरामपुर (बिलग्राम ) में आश्रय  मिल गया ।जब श्रेष्ठ पुरुषों की यह दुर्दशा हुई तब औरों का क्या हुआ होगा , यह कल्पना की जा सकती है ।
ताजुल-मआसिर ,खरतरगच्छ ,वृहदगुरवावलि और जिनदत्त चरित से तत्कालीन भारतीय समाज का कुछ स्वरूप सामने आ जाता है।उनके राजकाल में जैनधर्म का बहुत विस्तार हुआ तथा जैन श्रेष्ठि भी बहुत सम्पन्न हो गए ।ताजुल -मआसिर से यह ज्ञात होता है कि तुर्कों के आक्रमण के बहुत पहले ही त्रिभुवनगढ़ जैसे नगरों में पर्याप्त संख्या में मुसलमान बसे हुए थे ।वृद्ध राजा कुँवरपाल ने अपने प्राण बचाने के लिए आक्रामक के समक्ष घुटने टेक दिए और समस्त प्रजा को लुटेरों को सौंप दिया ।शाहबुद्दीन गौरी को , एक भी तुर्क सिपाही का रक्त बहाये बिना , अपार संपदा हाथ लग गयी।प्रजा में न प्रतिरोध की भावना थी ,न शक्ति ।राजा के साथ रहने वाले और प्रजा के धन और श्रम से पलने वाले असीजीवियों ने क्या किया , यह ज्ञात नहीं होता ।ताजुल-मआसिर में जिन "हर्बियों " का उल्लेख है , वे संभवतः असिजीवी ही थे ।उन्होंने तुर्कों को कर देने का वचन देकर अपने प्राण बचाये ।अन्य जातियों के लोग जिम्मी , यानी ऐसे गैर -मुस्लिम बन गए जिन्हें कुछ अधिक कर चुकाने पर हिन्दू बना रहने दिया जाता था ।पुराने भारतीय मुसलमानों को भी तुर्क सुल्तान को कर देने का वचन देना पड़ा ।बड़े -बड़े सेठ नगर छोड़कर भाग गए ,सम्भवतः उनके साथ पन्डे -पुजारी भी भाग गए होंगे।विश्रंखल , विभाजित और एकतंत्र छोटे -छोटे राजाओं के समूह उस भारत का यह अत्यंत दयनीय चित्र है ।

राजा कुंवरपाल के बाद तिमनगढ़ दुर्ग की स्थिति--  

यहां प्रासंगिक बात यह है कि शाहबुद्दीन गौरी की फतह हुई और त्रिभुवनगढ़  तथा विजयगढ़ (बयाना ) जैसे समृद्ध नगरों की श्री उनके चरणों में अर्पित हुई।गौरी ने अपने सेनापति बहाउद्दीन तुगरिल को त्रिभुवनगढ़ का प्रशासक बना दिया ।बहाउद्दीन तुगरिल ने लुटे हुये त्रिभुवनगढ़ को फिर से अपने ढंग से बसाया ।वहां उसने अपनी छावनी डाल ली और खुरासान तथा भारत के व्यापारियों को एकत्रित किया और उन्हें उजड़े हुए भवनों में बसाया ।कुछ समय बाद उसके अनुगामियों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि त्रिभुवनगढ़ उनके लिए अपर्याप्त ज्ञात होने लगा ।उसने अपनी छवनी पास ही सुल्तान कोट के नाम से बसा ली ।यहां से उसने ग्वालियर के विरुद्ध सेनाएं भेजना प्रारम्भ किया (4) ।यह दुर्ग अहमद खां जलवानी के पुत्र अशरफ को सौंपकर बहाउद्दीन ने अपना कार्यालय सुल्तानकोट में स्थानांतरित कर लिया (5) ।
   तिमनगढ़ दुर्ग के विषय में किसी भी इतिहासवेत्ता ने कुछ अधिक विवरण नहीं लिखा है ।राजा कुंवरपाल के बाद उसके उत्तराधिकारियों ने समय -समय पर दुर्ग पर पुनः अधिकार करने के प्रयास किये गए थे किन्तु वे इस पर स्थायीरूप से अधिकार नहीं कर पाये ।इस सम्बंध में मुंशी अकबर अली वेग ने " तवारीख -ए-करौली "में लिखा है "कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद राजपूताने में एक बार पुनः स्वतंत्र राज्य घोषित करने का अभियान चला था  इस क्रम में यदुवंशियों ने भी पुनः तिमनगढ़ को लेने का प्रयास किया लेकिन वे इस किले को प्राप्त करने में सफल नहीं रहे और इस दुर्ग पर इल्तुतमिश का अधिकार हो गया ।सुल्तान इल्तुतमिश ने नसरुद्दीन तापसी को इस किले का हाकिम नियुक्त किया तथा इस प्रकार यह किला तुर्कों के अधीन ही रहा (6) ।
   हमीरमहाकाव्य के अवलोकन से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि कुंवरपाल के बाद उनके वंशजों ने पुनः तिमनगढ़ पर आधिपत्य जमा लिया था ।इस महाकाव्य में यह वर्णित किया गया है कि रणथंभौर के चौहान शासक हम्मीरदेव , महाराष्ट्र , चंपानेर आदि नगरों को विजित करता हुआ जब वापस अपनी राजधानी लौट रहा था तब वह मार्ग में तिमनगढ़ पहुंचने पर वहां के यादव शासक ने उसका भारी स्वागत एवं सत्कार किया था ।यद्यपि उस ग्रन्थ में शासक का नाम इंगित नहीं है लेकिन करौली की ख्याति में तत्कालीन यदुवंशी शासक त्रिलोकपाल का नाम स्वीकार गया है ।
   चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यदुवंशी राजा अर्जुनपाल ने अपने पैतृक राज्य तिमनगढ़ पर पुनः अधिकार कर लिया और सरमथुरा के 24 गांव बसा कर क्षेत्र में फिर से यादव वंश की  पुनः सत्ता हासिल करने की पताका लहराई ।उसने सन 1348 ई0 में कल्याणजी का मन्दिर बनाकर कल्याणपुरी नगर वसाया जो कालान्तर में आधुनिक "करौली "कहलाया ।इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता खोने ने बाद भी तिमनगढ़ का महत्व बना रहा (7) ।
   निरन्तर आपसी झगड़ों में उलझे होने के कारण तिमनगढ़ के यदुवंशी शासक उत्तरभारत की राजनीति में कोई महत्वपूर्ण भाग नहीं ले सके ।यद्धपि तुगलक तथा सैयद राजवंश के अवसान तक उनकी स्वतंत्रता विद्यमान रही किन्तु शीघ्र ही यादव शासक चन्द्रपाल या चन्द्रसेन के शासनकाल में मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी ने 1454 ई0 में तिमनगढ़ किले पर आक्रमण कर उस पर अपना आधिपत्य कर लिया ।आगे चल कर इस विशाल वैभवशाली दुर्ग पर लोदी वंश के शासक सिकन्दर लोदी का आधिपत्य हो गया ।953 हि0 में शेरशाह सूरी के यह दुर्ग अधीन रहा तथा दुर्ग में शेरशाह के पुत्र शलीम शाह का अभिलेख मिलता है ।मुगलकाल में बाबर के शासनकाल में आलम खां तिमनगढ़ दुर्ग का दुर्गाध्यक्ष रहा था ।कालान्तर में अकबर सम्राट के शासनकाल में चन्द्रसेन के पौत्र गोपालदास ने अकबर को अपनी सेना से प्रसन्न कर अपने पैतृक राज्य के कुछ भागों को पुनः प्राप्त करने में सफलता अर्जित की जिसमें तिमनगढ़ भी शामिल था (8) ।
  सारांशतः इस दुर्ग के इतिहास के विषय में कहा जा सकता है कि तिमनगढ़ के जादों शासकों ने अपनी अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता को पुनः अर्जित करने के लिए अनेकों बार संघर्ष किये , परन्तु 16 वीं शताब्दी में अकबर के शासनकाल में बदलते हुए राजनीतिक परिवेश के कारण यहां के यदुवंशी शासक करौली की ओर स्थानांतरित हो गए और उन्होंने तिमनगढ़ दुर्ग के रख -राखव के लिए कोई ध्यान नहीं दिया जिससे इस गौरवशाली इतिहास , सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर के प्रतीक इस दुर्ग का पतन हो गया और यह दुर्ग खण्डहरों में तब्दील हो गया ।

बयाना एवं  तिमनगढ़ के यादवों की पराजय के कारण --

महाराजा विजयपाल के समय से तिमनगढ़ पतन तक यादव राज्य के इतिहास में बड़े -बड़े मोड़ आये ।अन्य राजपूतों की भांति यदुवंशियों ने भी रात्रिभर यवनों को उखाड़ने का भरसक प्रयास किया ।परन्तु देव को स्वीकार ही कुछ और था ।बयाना और  तिमनगढ़(ताहनगढ़ ,थनगर ,त्रिभुवनगढ़ ,त्रिभुवनगिरी )के यादवों (आधुनिक जादों ) के पास सुदृण दुर्ग एवं सुनियोजित सेना होने के बाद भी वे तुर्कों से युद्ध हारे इसके निम्नांकित कारण थे( 9) ----
  1-  राजपूतों की आपसी फूट प्रसिद्ध है ।धन एवं पद के लालच में वह शत्रुओं से मिलकर अपना अनिष्ट कर लेते थे।
  2-यादवों के पास पुराने समय के भद्दे हथियार थे जब कि यवनों के पास नये ढंग के अच्छे हथियार थे ।यादवों में नेतृत्व का अभाव था।यादवों की सेना का नेतृत्व उनके शासक कुँवरपाल ने नहीं किया बल्कि वह स्वयं दुर्ग में जाकर सुरक्षित हो गया ।उधर यवनों की सेना का नेतृत्व स्वयं मुजाहिद्दीन गौरी ने किया और उसने किले को घेरने की योजना बनाकर दुर्ग के चारों ओर ऊंची पहाड़ियों पर सेना के डेरे लगाये और दुर्ग को घेर लिया ।इस प्रकार नेतृत्व के अभाव में यादव सेना वेरतापूर्वक मुकाबला नहीं कर सकी और पराजय का मुंह देखना पड़ा।
  3-बड़ी -बड़ी तोपों का अभाव था ।
  4-यादव वाहिनियों की गति मन्द थी इनके मुकाबले यवन सेना शीघ्र गति वाली थी ।
  5-यवनों के पास काबुल के लड़ाकू और तेज दौड़ने वाले अच्छे घोड़े थे , सामान ढोने के लिये तेज गति वाले ऊंट थे जिससे सामान एक स्थान से दुसरे स्थान पर आसानी से पहुंच जाता था।
  6-तुर्क लोग मरने मारने पर उतारू रहते थे ।वह धर्म का जिहाद बोलकर युद्ध करते थे ।वह जानते थे कि यदि हार कर भागे तो मरना ही पड़ेगा ।अतः युद्ध में ही क्यों न मरें ।इनका नेतृत्व भी यादवों की अपेक्षा कुशल एवं उज्ज्वल था ।
  7-यादवों को पड़ोसी राजाओं से मदद नहीं मिलती थी ।
  8-यवन खुले मैदानों में रहते थे और जादों लोग पहाड़ों पर किले बनाकर लड़ते थे ।यवनों को पानी और लड़ाई के सामान की जरूरत पड़ने पर शीघ्र ही सहायता मिल जाती थी परंतु यादवों को विवश होना पड़ता था ।
  9-सभी राजवंशों की भांति जादों भी अपने राज्य में शक्तिशाली थे परन्तु कोई दृढ़ संकल्प नहीं बना सके ।
  10-कोई धार्मिक या राजनैतिक संगठन साहस एवं उत्तेजना पैदा करने वाला नहीं था।
  11-एशिया के नवीन युद्ध की चालों को नहीं जानते थे।
  12-स्वभाव से दयालु थे ।शरण में आने पर शत्रु का भी बुरा नहीं करते थे जो बाद में दुखदायी होता था ।
  13-यवनों के सैनिक युद्ध कला में निपुण होकर आते थे ।यवन सैनिक शिक्षित व नए होते थे।
  14-यादवों में दूरदर्शिता का अभाव था तथा उनके पास गुप्तचर सैनिकों की भी कमी थी ।इस कारण मुहम्मद गौरी के अचानक हुए हमलों का पता ये यादव नहीं लगा पाये और नहीं यवनों का सामना कर पाए तथा हार गये।ओर उनका पतन हो गया।
  15- जब पास के राजाओं पर हमला होता था न तो उनकी मदद करते थे और नहीं स्वयं की कोई तैयारी ही करते थे।
  16- बयाना एवं तिमनगढ़ के जादों शासकों पर जैन धर्म का प्रभाव था ।उन्होंने जैन मुनियों के धर्मोपदेशों को सुनकर उनके परम् भक्त बन गए ।इस यदुवंश के शासक पीढ़ी दर पीढ़ी अहिंसा परमो धर्म का पालन करते रहे और इस बजह से यहां के राजाओं ने हिंसक युध्द नहीं किये और नहीं साम्राज्य विस्तार की नीति को अपनाया ।
  कुछ इतिहासकारों के अनुसार दुर्ग के पतन का कारण एक नर्तकी का शाप भी बतलाया जाता है ।लोक मान्यताओं के अनुसार यहां के एक राजा ने एक बार एक नर्तकी से शर्त रखी थी कि यदि वह रस्से पर चलकर दुर्ग में आजायेगी तो आधा राज्य उसे दे दिया जायेगा ।नर्तकी शर्तों के मुताविक रस्से पर चलकर दुर्ग तक आने वाली ही थी कि राजा चिंतित हो गया और रस्सा कटवा दिया जिससे नर्तकी की मृत्यु हो गयी और उसने शाप दिया कि पूरा नगर पत्थर बनकर वीरान हो जाय ।तब से नगर वीरान हो गया (10)।
   संदर्भ ---
   1-जैन ग्रंथ -प्रशस्ति -संग्रह , भाग 2 ,पृष्ठ 61 तथा 81 ।
   2-खरतरगच्छ बृहद गुरवावलि (सिंधी जैन ग्रंथमाला ) पृष्ठ 19।
   3-इलियट एंड डाउसन , भाग 2 , पृष्ठ 227।
   4-जैन -ग्रन्थ -प्रशस्ति -संग्रह , भाग 2 , संपादक पंडित परमानन्द जैन शास्त्री (वीर सेवामन्दिर सोसायटी , दरियागंज , दिल्ली ) पृष्ठ 17।
   5-तबकाते -नासिरी , रिवर्ती , पृष्ठ 545।
   6-क गहलौत पूर्वोक्त भाग प्रथम , पृष्ठ 601-602 , राजपुताना गजे0 खण्ड 1 ,पृष्ठ 246-247
   7-दिल्ली सल्तनत -डा0 आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव , पृष्ठ 97-107
   8-पूर्व मध्यकालीन बयाना -दामोदरलाल गर्ग ,हस्तलिखित पृष्ठ 51-52
   9-करौली पोथी एवं करौली ख्यात , हस्तलिखित प्रति ।
   10-कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन तिमनगढ़ -रामजीलाल कोली ।
  

लेखक-डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी जनपद -हाथरस
उत्तरप्रदेश ।
एसोसिएट प्रोफेसर कृषि मृदा विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001
    

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