पूर्व मध्यकालीन ऐतिहासिक मंडरायल दुर्ग यदुवंशियों के शौर्य एवं वीरता का प्रतीक---



पूर्व- मध्यकालीन ऐतिहासिक  दुर्ग मंडरायल यदुवंशियों के शौर्य एवं वीरता का प्रतीक  ---

मंडरायल दुर्ग ई0 1145 से 1423 ई0 तक यदुवंशी जादों राजवंश की राजधानी रहा ।यह दुर्ग चम्बल नदी की सीमा पर एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। मंडरायल नगर  करौली जिला मुख्यालय  से 40 कि. मी. चम्बल नदी की सीमा पर दक्षिण पूर्व में पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य एक आयताकार पहाड़ी के नीचे बसी मध्यकालीन एक बस्ती है जो दो प्रान्तों को विभक्त करते हुए चम्बल नदी के किनारे मंडरायल नाम से जानी जाती है। यह बस्ती जहाँ कभी बागों के वास्ते ख्याति हासिल किये हुये थी, वहीं यहाँ का सेठीयाना चम्बल पार इलाके पर अपना प्रभुत्व जमाये हुये था। करौली के इस क्षेत्र में आने का कोई प्रशस्त मार्ग नहीं होने के कारण यहाँ का सारा व्यापार, लेनदेन, शादी ब्याह आदि चम्बल पार इलाकों से हुआ करता था। इस कारण क्षेत्र की संस्कृति पर करौली रियासत की छाप कम और मध्यप्रदेश की ज्यादा पड़ी।

मध्यकाल में यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रहा, चूंकि दक्षिण जाने के वास्ते बयाना के बाद माला दुर्ग के रूप में ग्वालियर था, जिसे हस्तगत करने के बाद ही दक्षिण भारत की ओर बढ़ा जा सकता था। यह क्षेत्र ग्वालियर के नजदीक पहाड़ी दुर्ग के साथ-साथ बन्दोबस्त और सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। दिल्ली तख्त ने दक्षिण को कुच करने से पहले ग्वालियर को अपने अधीन करने की गरज से इस दुर्ग पर अपना दबदबा बनाये रखा था। इसलिये ही मध्यकाल में मंडरायल दुर्ग को ग्वालियर की कुंजी कहा गया। साथ ही अनवरत फौजों के आने जाने और महीनों पड़ाव डालने के कारण भी इस क्षेत्र पर विभिन्न शासकों का कब्जा रहा।

बयाना  के महाराजा विजयपाल के पुत्र मदनपाल जी ने कराया था मंडरायल दुर्ग का निर्माण ----

यह किला राजस्थान ,मध्यप्रदेश की सीमाओं का प्रदर्शन करने वाली घाटियों के मध्य चम्बल नदी के बीहड़ों में लाल पत्थर से बना हुआ है ।  बयाना के महाराजा विजयपाल के एक पुत्र मदनपाल(मण्डपाल) ने मंडरायल को आबाद किया और वहां एक किले का निर्माण सम्वत 1184 के लगभग करवाया था जो आज भी खंडहर स्थित में मौजूद है।मेडिकोटोपो ग्राफिकल गजेटियर के अनुसार भी इस दुर्ग का निर्माण किसी यदुवंशी जादों राजा ने ही करवाया था जिससे  राजा मण्डपाल की ही सम्भावना की जा सकती है ।इसका निर्माण कार्य भी 11वीं सदी के आस-पास होने की सम्भवना है।क्षेत्रीय किवदंतियों के अनुसार इस दुर्ग का नामकरण मंडन ऋषि के नामपर हुआ जिन्होंने इस पहाड़ी पर कभी तपस्या की ओर बाद में ताल में समाधिस्थ हो गये।
वहीं स्थानीय बुजुर्गों का कहना है कि पूर्व में इस दुर्गपर मियां मकन का आधिपत्य होने के कारण ही कालान्तर में उसी के नाम से जोड़ दिया गया जो अपभ्रंश होकर बाद में मंडरायल हो गया जो  सत्य प्रतीत नहीं होता है।

अर्जुनपाल  [अनंगपाल ] का मडरायल पर कब्जा -------

ई0 1327 में गद्दी नसीन हुए । इन्होने अपनी बहादुरी एवं दूरदर्शिता से बुजर्गों के खोये राज्य को पुनः प्राप्त करने का दृढ़  निश्चय कर रीवा से निकल पड़े ।वहां से आकर पहले नीदर में गढ़ी बनाई उपरान्त मडरायल किले को  हस्तगत करने का प्रयास करते रहे । यह किला मियाँ मकन के कब्जे में था जो उस समय की परिस्थितियों में मुग़ल सम्राट के वास्ते , बहुत ही महत्व पूर्ण भूमिका अदा कर रहा था ।डांग के राजपूतों के होसलों को परास्त किये हुए था । हस्तगत करने के इरादे से आँख गढ़ाए रहे ।समय पाकर अनंगपाल ने किले पर हमला बोल दिया ।और मियाँ मकन को मौत के घाट उतर कर मडरायल किले पर अधिकार कर  लिया ।
यहाँ एक रोचक किस्सा जो बुजर्गों से सुनाने को मिला जिसमें इस राजा अर्जुनपाल को देहली सम्राट [मुहमद तुगलक ]ने अपनी लड़की ब्याही और देव बहादुर का खिताव भी दिया जानकारी हेतु पेश है ।
देहली सम्राट को मंडरायल के किलेदार मियाँ मकन के मौत के घाट उतार कर यादवों द्वारा कब्जा करने के बारे में  जब यह समाचार मालुम हुआ तो बड़ा दुःख हुआ ।कारिन्दाओं ने सम्राट को उकसाते हुए कहा  कि देखो हुजुर  काफिरों ने हमारा आदमी मार दिया । किले पर कब्जा कर लिया  उपरांत भी वे लोग सलाम बजाने तक भी दरबार में हाजिर नहीं हुए ।सम्राट ने नीतियों के सभी पहलुओं पर गरिमा से विचार करने के उपरांत उक्त आशय का एक खलीता जरिये हलकारों के मंडरायल दुर्ग के यादवों के पास भेजा जिसे हलकारों ने युवा अनंगपाल को दिया ।अनंगपाल जहाँ बुजर्गों से सम्राट द्वारा भेजे खलीते पर विचार –विमर्श कर रहे थे वहीं दुसरी तरफ यवन सम्राट के कारिंदे कौमियत के आईने में खुशीयाँ मना रहे थे । देखते है वे लोग [राजपूत ] कैसे बच कर जाते है ।युवा अनंगपाल  या अर्जुनपाल ने विचार विमर्श के उपरांत देहली जाने का निर्णय लिया ।
युवा अनंगपाल अपने दस जवानों के साथ देहली को चल दिए । विश्राम दर विश्राम करते सम्राट के दरबार में पहुंचे जहां इन्हें अलग आसन देकर बैठाया गया ।सम्राट का दरबार खचाखच भरा हुआ था ।महलों के झरोखों से बेगम बड़ी उत्सुकता से उस बहादुर को देखना चाहती थी जिसने मंडरायल के किले पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लिया । कारिन्दाओं ने सम्राट से अर्ज की हुजूर , ये लोग बगैर किसी परीक्षा के किलेदार हो गये ,परीक्षा तो होनी चाहिए । परीक्षा की शर्त रखी , जो नुकीले निशान को केवल छाती के बल से दुसरे के सीने में पार करदे वही विजयी माना जायगा । मेघावी अनंगपाल इस परीक्षा के वास्ते वगैर किसी हिचक के तैयार हो गए ।दरवार की तरफ से सबसे बड़े पहलवान को जहाँ पुरे व्ख्तरबंद कसे उतारा वहीं अनंगपाल सीधा अंजान सा कपड़े खोले धोती की लाँग बांधे मैदान में आगये । सम्राट इस असमानता पूर्ण युद्ध के पक्ष में नहीं था , परन्तु अनंगपाल के यह कहने पर कि मैं ऐसे ही लडूंगा सम्राट ने आज्ञा देदी ।
दोनों योद्धा अपने –अपने निशानों को गाथ में साधे पिछले हिस्से को अपनी छाती से लगा आमने सामने डट गये । दोनों तरफ से एक दुसरे की छाती पर निशान का नुकीला भाग अड़ गया । निशान खुले वदन में जब घुसने लगा , पीछे हटने की वजाय राजपूत अडिग रहा , दूसरी तरफ जब निशान बख्तर चीर कर अंदर प्रवेश करने लगा तो पहलवान गश खाकर गिर पड़ा । इस आश्चर्य पूर्ण बहादुरी से सम्राट खुश हो गया और ‘ देव ‘ नाम से संबोधित कर स्यावासी देने लगा परन्तु होहल्ला में अनंगपाल ने सम्राट की आवाज नहीं सुनी वहीं खड़ा रहा । कारिन्दाओं  ने झेंप को छुपाते हए पुनः  परीक्षा के वास्ते प्रार्थना कर सम्राट को राजी कर लिया । युवा बहादुर अनंगपाल पुनः तैयार हो गया ।अब की बार किले की सुदृढ़  प्राचीरों में भाले को अनंगपाल ने जोर से फैंक के गाड दिया और प्रतिद्वन्दी  को वापिस निकालने को ललकारा ।एक –एक  करके सभी यवनों ने भारी भरकम जोर लगाया परन्तु कामयावी हासिल नहीं कर सके ।अनंगपाल ने उसी भाले को झटके के साथ बाहर निकल कर जमीन में गाड दिया ।अनंगपाल की इस अद्भुत वीरता को देख कर सम्राट से नहीं रहा गया तुरंत सिंहासन से उठ कर ‘ देव बहादुर ‘ नाम से संबोधित करते पीठ पर हाथ फेरते हुए अपनी बगल में अनंगपाल को आदर से बैठाया ।
अनंगपाल की इन परीक्षाओं ने सम्राट को मजबूर कर दिया कि सम्राट इसे किलेदार की हैसियत से स्वीकार करे । राजपूत बहादुरी का परिचय देकर वापिस अपने खेमों में चल दिए ।
सम्राट की लडकी जो उस समय अनंगपाल की बेहद खूबसूरती, बहादुरी पर मोहित हो चुकी थी ।उसने अनंगपाल के जाने के बाद खाना पीना छोड़ दिया और मायूसी हालात रहेने लगी ।यह क्रम लगभग पांच सात रोज़ बगेर किसी की जानकारी के चला । जब उसकी माँ को मालूम चला तो लडकी ने पूरी दास्तान पेश कर प्राथना की माँ ने सब कुछ विचार करने के उपरांत सम्राट को लडकी की मायूसी हालात से अवगत करा अनंगपाल से शादी का प्रस्ताव भी पेश किया ।सम्राट इस अनहोनी घटना को सुनकर कर्तव्यविमूढ़  हो गया । वैसे सम्राट अनंगपाल की प्रत्येक हरकत पर बहुत  खुश था । परन्तु सवाल कौमियत का था । सम्राट ने नीतियों की तमाम गरिमाओं को ध्यान में रखते हुए बेगम के विशेष आग्रह पर एक खलीता मंडरायल किलेदार को भेजा  जिसमे लडकी को स्वीकार करने की पेशकश थी ।
किलेदार ने उस खलीते को बुजुर्गों के समक्ष राय हेतू पेश किया । देर लम्बी वार्तालापों के उपरांत यह निर्णय लिया गया  कि राजपूत वैसे तो कई रानियाँ रख सकतें हैं  परन्तु बात फेरों की हैं, हाँ , यदि सम्राट लडकी का डोला भिजवा दें तो हमे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हैं । सम्राट ने दास- दासियों को  हीरे जबारातों के साथ सैनिकों  के हाथ भिजवा दिया । राजपूतों ने रास्ते में बेगम के डोले को रोक फेरों की सभी रस्मे पूर्ण कर डोला लेकर मंडरायल आ गये । बेगम राजा को बेहद प्यार करती, समय पाकर बेगम ने संतान को जन्म दिया जिसका नाम “ गहवरदान ’’ रखा गया । ग्यारह वर्ष जीवित रह संसार से चल बसा  जिसे किले की बगल में ऊपर दफनाया गया  जिसकी मजार के भगवनावेशों को अस्त-व्यस्त हालातों में अब भी देखा जा सकता है ।
समय के थपेड़ों ने बेगम की विचार धारा को बदला उसे शंका पैदा हो गयी कि राजा उसे अब इतना प्यार नही देता  जितना हिन्दुवानी रानी को देतें हैं ।मौका पाकर बेगम ने राजा से प्रार्थना की महाराज आजकल मुझसे नाराज़ रहते हो  यदि  नही, तो आज में खुद खाना बनाकर खिलाऊँगी बोलो तैयार हो । राजा शुद्ध ह्रदय था , कहा ऐसी बात नही कहो ।मै तैयार हूँ । सेंकडों दास -दासियों के मध्य बेगम ने खाना तैयार कर राजा को परोसा और अपनी थाली से स्वयं राजा को खाना खिलाने लगी । राजा भी अपनी थाली से बेगम को खिलाने लगे, बेगम ने अगाध प्यार के इस दृश्य  से व्याकुल हो गद -गद कंठ से छमा मांगी । दोनों में प्रेम के अटूट सम्बन्ध और मजबूत हो गये ।
जहाँ अटूट प्रेम बढ़ रहा था , वहीं एक दुर्भाग्य पूर्ण घटना घटित हो गयी । राजा अनंगपाल का अन्तकाल हो गया । राजा के मृत  शरीर को जलाया जाये अथवा दफनाया जाये इस विवाद को लेकर राजपूतों और मुग़ल समुदाय में विवाद उठ गया  । बेगम ने मौके की तस्वीर खींच अपनी दूरदर्शिता का परिचय देती हुई मृत शरीर की परिक्रमाएं  दी और बाद में  अल्लाह मियाँ से राजा की पवित्र आत्मा के लिए दुआं मांगने लगी । मृत शरीर ढका हुआ था ।जब दुआए मांगने की हरकत समाप्त हुई और कपड़ा उघाड़कर अपने खामिद के दर्शन करना ही चाहती थी तो आश्चर्य भरा दृश्य देखती है कि राजा का दाहिना हाथ शरीर से अलग पड़ा हुआ है । बेगम ने तुरंत राजपूत सरदारों को जहाँ राजा की दाह क्रिया की आज्ञा दी वहीं स्वयं को दफनाने का आदेश दिया ।
राजा का अग्नि दाह-संस्कार किया गया ,  वहीं बेगम पूरे श्रंगार के साथ कब्र में समा गयी ।कब्र के भग्नावेशो का उपलभध नही होना चर्चा एवं आश्चर्य का विषय है ।

सिकन्दर लोदी का  मंडरायल दुर्ग पर आधिपत्य ---

ई0 1504 में सिकन्दर लोदी ने बयाना से इस किले पर आक्रमण किया। किलेदार ने बिना किसी खून -खराबे के  किला सौंप दिया । कहते हैं लोदी ने अधिकार करने के बाद बहुत  सारे मंदिरों को तोड़ दिया गया  और वहां पर  मस्जिदें खड़ी करवाई ।वहीं किले का भार मियां मकन और   मुजाहित खाँ को संभलवाते हुये स्थानीय बर्गीचों को नष्ट करता हुआ  बयाना वापिस चला गया।

गुजरात के तातार खां का अधिकार---

ई0 1534 में गुजरात के सेनापति तातार खां ने करौली पर आक्रमण करते समय इसी दुर्ग को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाया ।उपरान्त हुमायूँ की सेना ने यह किला तातार खां से छीन  कर अपने कब्जे में कर लिया। तत्पश्चात् सवलगढ़ के साथ यह दुर्ग महाराजा गोपालदास एवं उसके वंशजों  के अधीन रहा। महाराजा ने अपने शासनकाल में इस दुर्ग की सुरक्षा के लिये 7 जरब तोपों के साथ 100 बन्दूकची जवान रखे हुये थे। हरबक्सपाल ने अपने कार्यकाल 1814-37 में इस दुर्ग के मध्य बाला किला बनवाया , साथ ही बस्ती  को लूटपाट  और  जंगली जानवरों के भय से मुक्त करने की नीयत से बस्ती के तीनों तरफ ऊंचा पक्का परकोटा मय दो बड़े दरवाजों के निर्माण कराया।  परकोटे के अन्दर बाग और कुआ खुदवाया, जिसे वर्तमान में थाना कचहरी के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। उस समय वहां की आबादी मात्र 1000 घर थी। यह दुर्ग अमरगढ़ के ठाकुर जो महाराजा हरबक्सपाल  की फौज में सिपहसालार थे  को संभला दिया  गया।  ठाकुर ने चम्बल पार से सम्बन्ध कायम कर रियासत के खिलाफ बागायत की योजना बनाई, जिसे समय पर दबा दिया गया, साथ ही किला इससे छीन लिया गया। इसके बाद रियासती दस्तावेजों के अनुसार इस किले का भार चौधरी रामचन्द्र को दिया गया। महाराजा मदनपाल के समय पर इस किले पर चौ. श्यामलाल और लाला नन्दकिशोर बतौर किल्लेदार की हैसियत से रहे।कुछ समय बाद लाला नन्दकिशोर ने पुत्र शोक के कारण इस दुर्ग का इन्तजाम पुनः रियासत को संभलवा दिया जो रियासत के पास अन्त तक रहा।

वर्तमान मंडरायल दुर्ग की स्थिति ----

इसकी सभी प्राचीरें जहाँ क्षत-विक्षत होती जा रही हैं जो हर एक फलांग की दूरी पर बुर्जों  से सटी हुई है। मुख्य दरवाजे के ऊपर दूर तक नजर रखने के लिये दो गोलाकर गुम्बर है। दूसरा दरवाजा सूर्यपोल के नाम से है जो रानीपुरा इलाके की तरफ उतरता है, इस दरवाजें की खासियत है कि इसकी पौर में प्रातः से सायं तक सूर्य का प्रकाश रहता है। दुर्ग के मध्य में वाला किला है जो स्थापत्य की दृष्टि से शून्य रहा इसमें कभी जनानी रहवास रही। इसकी प्राचीरें जहां पूर्ण सुरक्षित हैं वहीं अन्दर से फावड़े व गैतियों से नष्ट किया जा रहा है। अन्दर एक सुरक्षित टांका और बाहर दो तालाब हैं। मुख्य दरवाजे के पास सूखा वाला किले के पीछे जलयुक्त है। इसी तालाब के किनारे त्रिदेव भगवान के मन्दिर और बारहद्वारी है। मुख्य दरवाजे के पश्चिम में तलघर के ऊपर कचहरी के अवशेष हैं जो कभी कोडी चूना के बेहतरीन काम और नीली चित्रसारी से सुसज्जित थी, साथ ही इसकी दीवारों पर उर्दू में कुछ घटनायें लिपिबद्ध थीं जो अब समूल नष्ट की जा चुकी हैं। एक दीवार पर भादौ वदी सम्वत् 1890 प्रतापसिंह राठौड़ रंग महल बनौ, साथ ही नीचे काली स्याही में कुछ अपठनीय दोहे अंकित थे।
महाराजा भंवरपाल ने इस इलाके पर कड़ी नजर बनाये रखने की दृष्टि से सर्वप्रथम सड़क मार्ग का निर्माण शुरू कराया, जो महाराजा भूमिपाल के शासन में आमदरपन्त बना। इस सड़क मार्ग में करीब 22 विकट घाटी मोड़ है जहाँ जरा सी असावधानी के कारण दुर्घटना घट सकती है।

पर्याप्त संरक्षण के अभाव में सम्पूर्ण दुर्ग नष्ट होता जा रहा है। किले से करीब आधा कोस पश्चिम में गहवरदान की गुफा और दरगाह में एक कब्र के अवशेष हैं। यह वस्ती रियासत की पाँच तहसीलों में तीसरे नम्बर की थी। 1941 की जनगणना के अनुसार आबादी 19244 और गांवों की संख्या 55 थी ।  मन्दिर 108 और मस्जिद 2 थी।

सन् 1991 की जनगणनानुसार इसका क्षेत्रफल 74324 हैक्टर है। यहाँ प्रत्येक शनिवार को हाट लगती है। सभी जातियों के साथ रानीपुरा में राजपूतों की बाहुल्यता है। नीदर बांध जल योजना से यहां की खेती पर प्रभावी असर पड़ा है। रास्तों के अभाव में यहाँ का व्यापार ज्यादातर ऊँटों के माध्यम से चम्बल पार से आज भी हो रहा है। सड़कों और नालियों के अभाव में समूचे कार्य में गन्दगी और धूल उड़ती नजर आती। यहाँ तकरीबन सभी आवश्यक सेवाओं के महकमें होने के उपरान्त भी विकास की दौड़ में बहुत पीछे हैं। यह कस्बा औँड़, रोधई, करौली, धौलपुर के सड़क मार्गों से जुड़ा हुआ है। शैली वाले एवं बाग वाले हनुमान मन्दिरों के साथ-साथ सीताराम जी और बिहारी जी के मंदिर प्रमुख हैं।चम्बल नदी यहां से 5 कि0मी0 की दूरी पर बहती है।

संदर्भ---

1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं
करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
14-यदुवंश -गंगा सिंह
15-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
16-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली
17-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा
18-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता
19-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग
20-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन
21-बयाना-ऐ कांसेप्ट ऑफ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी -डा0 राजीव बरगोती
22-प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह
23-आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60--कनिंघम
24-रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.--कनिंघम
25-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.
26--राजस्थान का जैन साहित्य 1977
27-जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक
28-,राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा
29-हिस्ट्री ऑफ जैनिज़्म -कैलाश चन्द जैन ।
30-ताहनगढ़ फोर्ट :एक ऐतिहासिक  सर्वेक्षण -डा0 विनोदकुमार सिंह
31-तवारीख -ए -करौली -मुंशी अली बेग
32-करौली ख्यात एवं पोथी अप्रकाशित ।
33- करौली का यादव राज्य, रणवाकुरा मासिक में (जुलाई 1992) कुंवर देवीसिंह महावा का लेख ।
34-राजपूताने का इतिहास पृ० 308, ले० डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ।

लेखक--–

डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लाढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001

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