युग - युगीन नगर बयाना (श्रीप्रथ) यदुवंशियों की ऐतिहासिक राजधानी का शोध ---

  युग -युगीन नगर बयाना  (श्रीपथ) यदुवंशियों की ऐतिहासिक एवं  सांस्कृतिक राजधानी----


भरतपुर क्षेत्र के प्राचीन स्थलों में बयाना नामक नगर भी एक प्राचीन  एतिहासिक एवं  सांस्कृतिक नगर है जो कि दिल्ली से 220 किमी , आगरा से 95 किमी  तथा भरतपुर से लगभग 48 कि० मी० दक्षिण पश्चिम में स्थित है। बयाना भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण  स्थान रखता है । इसका जितना महत्व हिन्दू काल में था उससे भी अधिक मुस्लिम काल में हो गया था । 


विविध नामों से विख्यात है बयाना नगर  --- 


इतिहास में बयाना को विवध प्राचीन नामों बाणपुर , वाराणसी , श्रीप्रस्थ , या श्रीपुर से जाना जाता है ।उत्तर वैदिक काल में इस नगर को भंडका जनपथ कहते थे।महाजनपद काल में यह शूरसेन प्रदेश में स्थित था जिसकी राजधानी मथुरा थी। बयाना का  नाम समय-समय पर बदलता रहा है। पाणिनी  ने बयाना को श्री प्रस्थ कहा, गुप्तकाल में श्रीपथ या श्रीप्रस्था नाम से बयाना को जाना जाता था।  956 ई o के अभिलेख में जो ऊषा मन्दिर से प्राप्त हुआ था यहां के राजा लक्ष्मणसेन का उल्लेख है ।महाराजा विजयपाल के काल में (ई o  1043 ) विजयमंदिर गढ़ कहलाया ।कुछ मुस्लिम आधारों द्वारा ज्ञात होता है कि 12 वीं शताब्दी में यह बयाना नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुस्लिम काल में बयाना का नया नाम (मुस्लिम नाम ) सुल्तान कोट' था। 15 वीं शताब्दी 16 वीं तथा 17 वीं शताब्दी में इसका नाम  ब्रह्मवाद माना गया ।कुछ लेखक बाणासुर के नाम पर इसका नाम बाणपुर तथा बाणपुर से बयाना होना मानते हैं ।



बयाना के वि० स० 1012 के एक अभिलेखानुसार मन्दिर के निर्माण करवाये जाने के शिल्पआधार मिले हैं। बयाना नगर की स्थापना चन्द्रवंशी राजा वाणासुर ने की जो कि राजा बली का पुत्र था। वाणासुर की पुत्री का नाम ऊषा था जिसका विवाह कृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध से हुआ। अतः उक्त अभिलेख में बाणासुर की पुत्री ऊषा के नाम पर ही उनके द्वारा यहाँ एक मन्दिर बनवाया गया ऐसी पुष्टि होती है। अतः इस प्रकार अभिलेखों में बयाना को अलग-अलग नामों में जाना जाता रहा है। उदाहरण स्वरूप एक जनश्रुति के अनुसार इसका नाम शान्तिपुर और श्रीपथ नाम पन्द्रहवीं शताब्दी तक चला है जिसके आधार आत्मप्रबोधन की प्रस्तिम्० तथा ग्यारहवीं शताब्दी के दो अभिलेखों में मिलते हैं। यहाँ के राजा विजयपाल ने किला बनवाया जिसके कारण इसे विजयमन्दिरगढ़ नाम से भी जाना जाता है। इस विजयगढ़ किले में लाल बलुये पत्थर से निर्मित एकाश्य स्तम्भ पर एक अभिलेख अंकित है। संवत् 428 के इस लेख में वारिककुल के विष्णुवर्धन नामक राजा द्वारा पुण्डरीक यज्ञ करवाने एवं यज्ञ समाप्ति के पश्चात् यूप ,   ( याश्रिक स्तम्भ)   स्थापित कराये जाने का उल्लेख है जो कि वैष्णव प्रभाव का द्योतक है जिसमें यज्ञकर्ता का नाम विष्णुवर्धन बताया गया है। इससे यह पुष्टि होती हैं कि विष्णु की तत्कालीन समाज में लोकप्रियता प्रतिष्ठित हो चुकी थी, जिससे प्रेरित होकर लोगों में उनके नाम पर नवजात शिशु का नाम रखना प्रारम्भ कर चुके थे। उक्त लेख में किसी भी  संवत विशेष का उल्लेख नहीं हुआ है। किन्तु अक्षरों के स्वरूप तथा लेख के प्राप्ति स्थान के क्षेत्र को देखते हुये इसे मालव या विक्रम संवत् में रखना समीचीन जान पड़ता है। जिसके अनुसार उक्त अभिलेख की तिथि ई० सन 317-372 होगी। इस तिथि के अनुसार यह संकेत मिलता है कि सम्भवतः विष्णुवर्धन प्रारम्भिक गुप्त शासक समुद्रगुप्त का सामन्त रहा होगा, ऐसा प्रमाणित होता है। इसके अतरिक्त बयाना के दक्षिण पूर्व में दल्लनपुर (नाग्लाचेला) नामक गाँव से सन् 1946 में गुप्तकालीन सिक्कों के हेर भी" प्राप्त हुये हैं।


 बयाना ( श्रीपथा )जैनधर्म का एक केन्द्र  ----


  बयाना के यादव वंशीय  राजपूत शासक जैन धर्म के अनुयाई थे , इस लिए बयाना मथुरा के पास होने केकारण भी जैन धर्मके प्रचार प्रसार का एक केन्द्र था।बयाना से वि० सं० 1100 के एक अभिलेख में जैनाचार्यों के नाम जैसे विष्णुसूरी तथा महेश्वरसूरि अंकित हैं। इसके अतिरिक्त 1157 ई. में जब कि शूरसेन के अन्तिम राजा कुमरपाल का राज्य था तो उस समय में जिनदत्तसूरि द्वारा शान्तिनाथ मन्दिर में सुनहरे कलश एवं झण्डा फहराने की रस्म की पुष्टि की है। तथा अभिलेख में शूरसेन शासक फलक की गणना सबसे पहले की गयी है जिससे प्रतीत होता है कि मथुरा जब शक-क्षत्रपों, नागों एवं गुप्तों की गतिविधियों का केन्द्र बन गया तब कदाचित परिवर्तित राजनीतिक परि स्थितियों के कारण मथुरा का स्थान कामां ने ग्रहण कर लिया । सम्भवतः कामां के साथ-साथ बयाना भी शूरसेन के उपनगरों में से एक रहा होगा। शूरसेनी लोग प्रारम्भ से भागवतमता नुयायी थे अतः कामां एवं बयाना के निवासियों पर उनके धार्मिक प्राचरणों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था ।

     इसके साथ ही मथुरा के सन्निकट होने से बयाना में भी मथुरा के साथ-साथ जैन धर्म का प्रभाव पड़ा। अतः यहाँ जैन प्रतिमाओं का प्राप्त होना स्वाभाविक था। यहाँ सबसे पहले का 10 वीं शताब्दी का एक अभिलेख मिला है। इसके साथ ही वि० सं०1100 का एक ऐसा अभिलेख मिला जिसमें श्वेताम्बर के गुरु काम्यकागच्छ का पता चलता है तथा विजयपाल राजा के राज्य में माहेश्वर सूरि की मृत्यु का पता चलता है वैसे काम्यकागच्छ मुख्य रूप से कामा के थे।विजयपाल के बाद तहनपाल , धर्मपाल तथा कुंवरपाल बयाना के राजा हुआ । 


बयाना में यादव वंशीय राजपूत शासकों की सत्ता का अन्त एवं  बयाना  से पलायन ------


ई. 1192 में मोहम्मद गोरी ने तराइन के मैदान में चौहानों की शक्ति को काफी कम दिया। इस विजय के बाद गौरी अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में छोड़कर ग गया। ई. 1195 में मुइज्जुद्दीन पुनः भारत आया। उसने बयाना पर आक्रमण किया। ब राजा कुंवर पाल अपनी राजधानी खाली करके तहनगढ़ के दुर्ग में जाकर बंद हो गया में उसे समर्पण करना पड़ा। उसके बहुत सारे क्षेत्र बहाउद्दीन तुरगिल के अधीन आ दीन ऐबक की मृत्यु के बाद बयाना पर से तुर्कों का आधिपत्य कमजोर हो गया तथा य कड़ बनानी शुरू कर दी किंतु शीघ्र ही इल्तुतमिश ने फिर से उन्हें परास्त किया तथा ब तहनगढ़ पर अधिकार कर लिया। इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी कमजोर निकले । इसका लाभ उठा कर मेवात के कोह पाया लोगों ने अपनी सत्ता जमानी आरम्भ कर दी। मेव लोग  मथुरा गुनगांव, अलवर तथा भरतपुर क्षेत्र में रहते थे तथा दिल्ली सलतनत के लिये विद्रोहियों के रूप में  कुख्यात थे। मेवों के राजा खानजादा कहलाते थे। खानजादा वंश की स्थापना बहादुर नाहर ने कीथी। बयाना और तहनगढ़ के यदुवंशी वीर भी अपना राज-पाट खोकर मेवातियों के क्षेत् में जा बसे । पृथ्वीराज चौहान के वशंज भी शासन और सत्ता से च्युत होकर इस क्षेत्र में रहने वाले लोग राठ कहलाते थे। कामां, तिजारा तथा सरहट्टा क्षेत्र में जादोन भाटियों ने जमावाड़ा किया । मेव, खानजादा, राठ, यादव तथा भाटी लोग सम्मिलित रूप से मेवाती कहलाने लगे।ये लोग दिल्ली सल्तनत के प्रबल शत्रु थे। ये लोग सिवालिक, हरियाणा तथा बया न्ली सल्तनत के विरुद्ध गोरिल्ला युद्ध किया करते थे। जब दिल्ली सल्तनत पर न हुआ तो उसने मेवातियों को बुरी तरह से कुचला। खिलजियों के काल में भी सल्तनत के अधीन रहा। बयाना पर मुस्लिम शासक आ जमे । अल्लाऊद्दीन के काजी मुगीसुद्दीन से धार्मिक मामलों पर सलाह-मशवरा किया करता था। तुगलकों  के शासन काल में मेवाती लोग और अधिक बड़ी समस्या बनकर दिल्ली सल्तनत के सामने खड़े हो गए ।


मुस्लिम आधिपत्य में बयाना के हिन्दू मन्दिरों का विध्वंश 


इस  मुस्लिम काल  में मुस्लिम आक्रमण के तहत हिन्दुओं के मन्दिर तथा प्रतिमाऑ को नष्ट किया गया। और यहाँ मुस्लिम साम्राज्य हिन्दू धर्म पर हावी हो गया। इस कारण वश हिन्दू और जैन मन्दिरों को तोड़कर मस्जिद का रूप दिया गया। इसी प्रकार का वि० सं० 1377 का एक अभिलेख प्राप्त हुया जिसमें वि० सं० 1012 में बनवाये गये ऊषा मन्दिर को मस्जिद का रूप कुतुबद्दीन मुवारक द्वारा दिया गया तथा सिकन्दरशाह के बेटे इब्राहिम साह ने ऊषा मन्दिर के निकट ही प्रार्थना के समय (नमाज पढने के समय) की आवाज लगाने के लिये वि० सं० 1574 में मीनार बनवा दी ।इस ऊषा मन्दिर-मस्जिद के शिल्प आधार हिन्दू शिल्पकला युक्त हैं। दूसरे तोरण- युक्त तथा दाबड़ी एवं स्तम्भों में लटकती हुई घण्टियाँ श्रादि उत्कीर्ण हैं तथा स्तम्भ प्राचीन हिन्द वास्तुकला के अनुरूप, जिनके मध्य में एवं ऊपरी ओर पत्थरों पर अलंकरण गोलवृत्ताकार , आयताकार में किया गया है। उक्त मस्जिद को भरतपुर के जाट शासक ने मन्दिर के रूप में परिवर्तित कर दिया। इस मन्दिर के स्तम्भ राजपूतकालीन परन्तु जैन धर्म से अति प्रभावित हैं।


सिकन्दर लोदी के अधिकार में बयाना -----


सिकन्दर लोदी की विस्तार की नीति के कारण बयाना के मुस्लिम गवर्नर का उससे विशेष हो गया। सिकन्दर 1492 में ग्वालियर पर अधिकार के बाद बयाना की ओर बढ़ा। सिकन्दर की शक्ति के भय से बयाना के गवर्नर ने बयाना किले के एवज में साकित और चन्द्रबार लेना स्वीकार किया। लेकिन गवर्नर द्वारा शर्तें मन्जूर न किये जाने पर सिकन्दर ने पुनः बयाना पर अधिकार कर लिया।


राणा सांगा के आधिपत्य में बयाना -----


इब्राहिम लोदी ई० 1117 में सल्तनत का शासक बना। मेवाड के राणा सांगा ने सल्तनत में चले आ रहे विद्रोह का फायदा उठाते हुये शक्ति का विस्तार किया। लेकिन राणा सांगा ने धौलपुर के निकट उसे लड़ाई में हरा दिया। सुल्तान ने उसके प्रति दूसरा अभियान भी छेड़ा परन्तु वह भी असफल रहा, और सेना बयाना तक लौट आई। पानीपत की लड़ाई सन् 1526  के बाद राणा सांगा की बढ़ती शक्ति को देखते हुये बाबर ने लड़ाई शुरू कर दी। इस दौरान राणा का बहुत से महत्वपूर्ण स्थानों पर अधिकार रहा। बाबर ने भी बयाना शहर को कोशिश कर लेना चाहा और निजामखान से अधिकार लेकर मेंहदी ख्वाजा को दे दिया। उसके बाद राणा रणथम्भौर की ओर बढ़ा और बयाना के किले को अधिकार में ले लिया। राणा सांगा ने बाबर को चकमा देते हुये शत्रु के खिलाफ रास्ता बदल दिया। उसने बयाना से गुजरते हुये भुसावर का रास्ता लिया और खानवा गाँव में रुका जो कि।भरतपुर जिले की रूपवास तहसील में है लेकिन खानवा की लड़ाई (1527ई0 ) में राजपूत सैनिक बाबर के आगे टिक नहीं सके और हार का सामना करना पड़ा , सांगा भी घायल हुआ।

  

 मुगल बादशाह बाबर के आधिपत्य में बयाना ----


खानवा के बाद बाबर बयाना की ओर बढ़ा और उसने बयाना पर अधिकार कर लिया। हुमायूं के देश निकाले के दौरान शेरशाह सूरी शक्तिशाली हो गया था, उसके समय शेखअली जो कि शेख हसन का पुत्र था और जो कि बंगाल का एक सम्माननीय धार्मिक शिक्षक था , का उदय हुआ। शेखअली ने स्वयं को बयाना में स्थापित किया। शेरशाह की मृत्यु के पश्वात जलालखान इस्लामशाह के नाम से शासक बना। इस्लामशाह ने अपने भाई को ताज को स्वीकारने व आगरा आने को लिखा। उसको भाई के इरादों के प्रति संदेह था । अतः बयाना को लेना स्वीकार किया। अकबर के शासनकाल में इस जिले के विभिन्न भाग जैसे- आमेर, बयाना के महल, बैर, टोडाभीम, खानवा, धौलपुर आदि आगरा के सरकार और सूबा केअन्तर्गत आ गये । 


बयाना में विविध स्मारक  ----


 राजनैतिक एवं ऐतिहासिक उथल-पुथल के कारण बयाना में स्मारकों की संख्या अधिक है जिनमें से काजीपारा मस्जिद, फौजदारी मस्जिद, सईदवारा मस्जिद, मुफतन की मस्जिद, केजोर की मस्जिद तथा भीतरी बाहरी मस्जिद आदि हैं। इनके अतिरिक्त

अबूबक्र की कब्र जिसमें बारह स्तम्भ है जिसके हिन्दूकला के अनुरूप गुम्बज तथा स्तम्भ चौकोर हैं। अतः यहाँ हिन्दू कला के दर्शन होते है। इसी प्रकार ओहदखान के समय का बयाना से ही प्राप्त लेख के अनुसार किले में बनी तलेटी में 1420 में लेख के मालिक-ए-मुअज्जम मुहताफ खानी द्वारा अपने धन से एक मस्जिद बनवाने का उल्लेख है। एक अन्य शिल्पाधार में कालेखां तथा गोरेखां का मकबरा है तथा इसी के निकट ही अकबर के सम्मान में 1601 ई०

छतरी बनवाइ गई  जो कि वर्तमान में भी देखी जा सकती है।


बयाना  दुर्ग( विजयमन्दिरगढ़) -----


भारतपुर से लगभग  48  किलोमीटर दक्षिण में बयाना का किला प्राकृतिक पहाड़ियों के सौन्दर्य से घिरा हुआ सबसे ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व बयाना के किले पर मथुरा के शूरसैनी शासकों का अधिकार था। सन् 360 ई० में इस नगर पर तथा किले पर भी  मथुरा के शूरसेनी शासकों का अधिकार था। इसके पश्चात् ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ में यहाँ पर मथुरा के यदवंशी राजा जिन्दपाल /जयेन्द्र पाल का शासन हो गया, उसके बाद विजयपाल यहाँ का शासक रहा ।मैदानों में बनी राजधानियां उस काल में असुरक्षित थी, अतःमथुरा  के यादव वंशीय शासक विजयपाल अपनी राजधानी को मानी पहाड़ी पर ले गया  और सन 1043 ई० में एक किले का जीर्णोद्धार  या निर्मान कराया। अपने निर्माता विजयपाल के नाम। पर यह किला विजयमन्दिरगढ़ या विजयगढ़  कहलाया।यह किला यद्धपि एक साधारण ऊंचाई की पहाड़ी पर बना हुआ है,लेकिन चारों  ओर से  पर्वतमालाओं तथा वनसंपदा से घिरे होने के कारण यह किला सामरिक दृष्टि से बहुत उपयुक्त है । इसकी विशाल बुर्जे तथा ऊंची प्रचीरों ने इसकी सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ता प्रदान की है ।इनकी प्रामाणिकता के लिये भिन्न-भिन्न स्थानों से शिलालेख प्राप्त हुये हैं। उनमें "महाराजाधि- राज" "परम् भट्टारक" लिखा है। विजयपाल के शासन के पश्चात् 1196 ई० में बयाना को वहां  के यादव वंशीय शासक कुंवरपाल से मुहम्मद गौरी ने जीत लिया। इसके बाद दुर्ग पर इल्तुतमिश, बलवन आदि सुलतानों का अधिकार रहा। 1348 ई ० में यादव वंशीय राजा अर्जुनपाल ने पुनः इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया ,लेकिन फिरोज तुगलक  (1351-88 ई ०) ने पुनः यहां मुस्लिम आधिपत्य स्थापित कर लिया।इसके पश्चात् सन  1527 ई o में चित्तौड़गढ़ के शासक राणासांगा के आधिपत्य में आ गया,  उसके बाद एक बार यह किला पुनः मुगलों के हाथ आ गया।  मुगल साम्राज्य कमजोर होने पर 18 वीं शताब्दी में इस पर भरतपुर के सिनसिनवार जाट राजपरिवार का आधिकार हो गया ।इस प्रकार किले में हिन्दू और मुस्लिम शिल्पकला के स्मृति चिन्ह देखे जाते हैं। बर्तमान में किला उतनी अच्छी दशा में नहीं है किन्तु वास्तुकला में लोमहर्षक अतीत की अनुगूजे हैं। यहाँ बनवाये गये महल, बुर्ज, बारादरियां, मन्दिर-मस्जिद, बावड़ियाँ आदि हैं। जिनमें ऊषामंदिर, भीमलाट , राजप्रसाद, सैनिक आवास गृह , तथा अन्य देव मंदिर प्रमुख हिन्दू स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।साथ ही इब्राहिम लोदी के शासनकाल में बनी लोदी मीनार, बारहदरी, सराय सादुल्ला, अकबरी छतरी ,तथा जहंगीर दरवाजा आदि मुस्लिम वास्तुकला के उदाहरण हैं । सन्371  ई० का यूपस्तम्भ आज भी देखा जा सकता है । सन्।1457 ई० में निमित तीन मन्जिल की मीनार मुगल शिल्पकला का एक नमूना है जिसका निर्माण सुल्तान  नसीरुद्दीन मुहम्मदशाह के सुल्तान नसीरुट्टीन के शासनकाल में दाऊखां , गवर्नर द्वारा करवाया गया था। वर्तमान में इसकी तीसरी मन्जिल ध्वस्त हो चुकी है। इसके अतरिक्त जहांगीर द्वारा बनवाई गई बावडी शिल्पाधारयुक्त है। बयाना के किले में प्राप्त मुख्य शिल्लआधारों का विवरण इस प्रकार है।


स्तम्भयुक्त तोरण  ---


बयाना के किले का द्वार तोरण से सुसज्जित हैं। किले पर चढ़ने के रास्ते बहुत दुर्गम संकड़े और चक्करदार है। रास्तों के के दोनों तरफ चौडी प्राचीरें हैं। मुख्यद्वार पर वे आस पास की प्राचीरों की मोटाई और ऊंचाई देखने योग्य हैं। इसके सामने का भाग अर्धचन्द्राकार बुर्ज से सुरक्षित है। मुख्यद्वार से किले की दूसरी रक्षा पंक्ति प्रारम्भ हो जाती है। इसमें किले की भव्यता के रूप में स्तम्भयुक्त तोरण तीन बनाये गये हैं तथा तीनों को शिल्पी ने बारीकी से खिले हुए पुष्प, बेल आदि उकेर कर बनाया है। उक्त  अलंकरण कार्य अन्य भरतपुर जिले के किले ,राजप्रासादों आदि के स्तम्भ व तोरणद्वार से भिन्न है।


बयाना अभिलेख ----


 (आठवीं शताब्दी) - यह बयाना से प्राप्त अभिलेख अन्य प्राप्त अभिलेखों से अलग महत्व रखता है जिसकी विशेषता यह है कि तक्षणकार ने शिलापट्ट पर लेखानुसार दृश्यांकित किया है। जिसमें ऊपर, एक ओर जाती हुई चार गौओ को तथा सबसे पोछे एक पुरुषाकृति को उनको ले जाते हुये (हाँकते हुये) उत्कीर्ण किया है। शिलापट्ट को आठवीं शताब्दी का माना जाता है जो कि राजपूताना संग्रहालय अजमेर में प्रदर्शित है।


बयाना के किले में अलकरण के अतिरिक्त मूर्तिकला के क्षेत्र में भी कार्य होता रहा जिसके प्रमाण यहाँ से प्राप्त मूर्तिशिल्प है जिनका विवरण इस प्रकार है ।


सरस्वती -----


सुत्रधार मण्डन ने सरस्वती को "एकवस्त्रा" और "चतुर्हस्ता" के साथ ही शीष पर मुकुट कानों में कुण्डल, और पार्श्व में प्रभामण्डल बनाने का विधान बताया है तथा इन सामान्य लक्षणों के बाद महाविद्या के आयुष अक्ष, अब्ज, वोणा और पुस्तक होते हैं। इसी प्रतिमा लक्षण के अनुरूप बयाना से प्राप्त देव गवाक्ष खण्ड में दो स्तम्भों के मध्य लाल पत्थर पर उत्कीर्ण सरस्वती की प्रतिमा है तथा पैर खण्डित है। सुसज्जित केशबन्ध, हार व हारसूत्र खण्डित वनमाला, कंगन, कटि से नीचे वस्त्रों एवं अलंकरण तथा पादवलय से अलंकृत है। प्रतिमा के दायें नीचे है सरस्वती का वाहन हंस व प्रतिमा के शीर्ष के दोनों ओर भी मयूराकृतियाँ उत्कीर्ण है। उक्त प्रतिमा को ग्यारहवीं शताब्दी का माना जाता है।


पार्श्वनाथ -----


उक्त पार्श्वनाथ की प्राप्त प्रतिमाओं में सबसे बड़े आकार की प्रतिमा है जिसका मूर्तन अन्य पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं के समान ही है। पदमासन मुद्रा में बैठे पार्श्वनाथ के छल्लेदार बाल तथा मस्तक, ग्रीवा , नेत्र और ऊर्ध्व भाग ध्यानमुद्रा में है। एवं शीष के पीछे सर्पफण निशान  है जिसके सर्पों का मुख खण्डित साथ ही वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह तथा दोनों हाथ अक के बीच में एक दूसरे पर रखे हैं। पार्श्व नाथ की प्रतिमा के बास पास खण्डित प्रतिमाओं का भी हल्का-हल्काअंकन दिखाई दे रहा है। आसन पर लेखन कार्य भी स्पष्ट हैं।


परिकर ----


मुख्य मूर्ति के आस पास सुशोभन-युक्त बलंकरण को परिकर कहते हैं। बयाना 7 कि० मी० पूर्व में ब्रह्मबाद से प्राप्त यह संगमरमर का जैन परिकर है जिसके मध्य में तीर्थकर के दोनों ओर गज आकृतियाँ एवं उसके साथ ही दोनों ओर स्तम्भों के मध्यम पद्‌मासन मुद्रा में तीर्थकर एवं मुख्य प्रतिमा के खाली स्थान को उन्मुख मालावर तया परिकर के मध्य भाग के स्तम्भों में स्थानक तीर्थकर व आस पास अन्य मानवाकृतियाँ देखी जा सकती हैं। पीठिका भाग के मध्य देव आकृति व क्रमशः दोनों ओर गज, सिह सहित देवाकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। इस परिकर के तोरण में लिखित आधारों से ज्ञात होता है कि जहाँगीर के शासन काल के 17 वें वर्ष में उक्त परिकर का निर्माण ब्रह्मवाद में हुआ। तत्कालीन समय ब्रह्मवाद मुगल साम्राज्य का ही भाग था। अतः परिकर में मुगल सम्राट का नाम उल्लेखित होना स्वाभाविक है। सूत्रधारों एवं निर्माणकर्ताओं के नाम से संचित बह परिकर है जिसके बायीं ओर "बोहर गौत्र लिखा है।


इस प्रकार बयाना की राजनैतिक परिस्थितियों में उतार-चढ़ाव तथा यहाँ के किले एवं अभिलेखों अनुसार ऐतिहासिकता का ज्ञान, बयाना की सांस्कृतिक स्थल की पुष्टि कराता है तथा मूर्तिशिल्पआधार प्राप्त होने से धार्मिक भावनाओं का ज्ञान व समृद्धता के अतिरिक मूर्ति शिल्पकला का एक केन्द्र भी रहा होगा ऐसी पुष्टि होती


सन्दर्भ -----


1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0

2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा

3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा 

4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत

5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी 

6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग

7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी 

8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली 

9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता

10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास 

11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं 

करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190

12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह

13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र 

14-यदुवंश -गंगा सिंह

15-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर

16-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली

17-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा

18-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता

19-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग

20-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन

21-बयाना-ऐ कांसेप्ट ऑफ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी -डा0 राजीव बरगोती

22-प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह

23-आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60--कनिंघम

24-रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.--कनिंघम

25-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.

26--राजस्थान का जैन साहित्य 1977 

27-जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक 

28-,राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा 

29-हिस्ट्री ऑफ जैनिज़्म -कैलाश चन्द जैन ।

30-ताहनगढ़ फोर्ट :एक ऐतिहासिक  सर्वेक्षण -डा0 विनोदकुमार सिंह एवं मानवेन्द्र सिंह 

31-तवारीख -ए -करौली -मुंशी अली बेग 

32-करौली ख्यात एवं पोथी अप्रकाशित ।

33-नियमतुल्ला कृत तवारीखे अफगान ।

34-बी0 एस0 भार्गव कृत राजस्थान का इतिहास ,पृष्ठ ,270 ।

35-मुन्शी ज्वालाप्रसाद कृत बकाए राजपुताना ।

36-मां के साथ   ( काव्य संग्रह )लेखक पवित्र कुमार शर्मा ।

 37- ब्रज विभव ,लेखक गोपाल प्रसाद व्यास ,1987 ।


लेखक--– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन  

गांव-लढोता, सासनी 

जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश 

प्राचार्य,राजकीय कन्या स्नातकोत्तर  महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001

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