मथुरा के प्राचीन यादवों (आधुनिक जादों ) राजपूतों का ऐतिहासिक अध्ययन ---

मथुरा के प्राचीन यादवों (आधुनिक जादों ) राजपूतों का ऐतिहासिक अध्ययन---

ब्रज की इस प्राचीन जाति के लोग चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं इनका मूल पुरुष यदु था, जिसके नाम पर इस वंश के लोग यदुवंशी या यादव कहे जाते थे , जो आजकल  जादों ठाकुर (राजपूत ) बोले जातें हैं ।

चन्द्रवंशीय राजा यदु के राज्य की सीमायें ---

यदु चंद्र वंश के विख्यात राजा नहुष के पुत्र ययाति सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र था।जब ययाति ने अपने विशाल साम्राज्य को अपने पुत्रों में विभाजित किया , तब भारत का दक्षिण-पश्चिमी भाग यदु को प्राप्त हुआ था।इस प्रकार यदुवंशियों का आरंभिक निवास-स्थल भारत का वह भाग था ,जहाँ उन्होंने दर्शाण ,माहिष्मती ,अवंति और चेदि के प्रसिद्ध राज्य स्थापित किये थे।
यदुवंशियों के एक प्राचीन राजा का नाम कीर्तवीर्य अर्जुन या सहस्त्रार्जुन था । उसके राज्य का विस्तार नर्मदा से हिमालय की तराई तक हो गया था उसके वंशज हैहयवंशी यदु कहलाये और उनकी राजधानी महिष्मति थी ।

यदुवंश को यादव  के अलावा माधव एवं वार्ष्णेय नाम से भी जाना जाता हैं----

कार्तवीर्य अर्जुन के सौ  पुत्र थे ।सहस्त्रार्जुन के शूर या शूरसेन, वृषसेन,मधु और जयध्वज आदि प्रधान पुत्र  थे । जयध्वज का पुत्र तालजंग हुआ । तालजंग के अनेक पुत्रों मैं वीतिहोत्र सबसे बड़ा था और उनमे से एक का नाम भरत था जो बड़ा प्रतापी था ।भरत के वृष,वृष के मधु और मधु के वृष्णि आदि अनेक पुत्र हुए । वृष्णि के कारण यह वंश वृष्णि/वार्ष्णेय कहलाया । मधु के कारण इस वंश की संज्ञा मधु/माधव भी हुई ।यदु के नाम पर इस वंश को यादव वंश तो पहले से ही कहा  जाता था । इस वंश का यादव नाम अधिक व्यापक और सामान्य रहा है ।

शूरसेन प्रदेश का नामकरण--

  कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्र शूरसेन के नाम पर ही यमुना तट का यह प्रदेश जिसे अब ब्रज कहते हैं, प्राचीन काल मैं शूरसेन प्रदेश कहलाता था ।इस प्रकार  यादव (जादों  ) जाति का ब्रज से अत्यंन्त प्राचीन सम्बन्ध रहा है । यादवों की कई शाखाएं थी , जिनमे उक्त हैहय वंशियों के अतिरिक्त वृष्णि , अंधक , कुकुर और भोज विशेष प्रसिद्ध थे । इनके कई राज्य थे , जिनमे आधिकांश मे राज्यतन्त्र नहीं होकर गणतंत्र प्रचलित था ।उनका अधिपति कोई परमपरागत राजा ना हो कर उक्त राज्यों के निवासियों द्वारा निर्वाचित होता था ।

अन्धक-वृष्णि संघ----

    श्री कृष्ण के जन्म से पहले शूरसेन प्रदेश के कई यादव  राज्यों ने अपना एक संघ बना रखा था । जो ‘’ अंधक-वृष्णि संघ  “ कहलाता था ।श्री कृष्ण के कारण यदुवंश गौरवशाली हुआ । श्री कृष्ण के समय मे भी यह अंधक-वृष्णि संघ बना हुआ था । यह संघ अंधक और वृष्णि गोत्रों में पैदा हुए यदुवंशियों  का था ।
   
मथुरा अन्धकवंशी यादवों की राजधानी---

अंधक संघ के अधिपति उग्रसेन उस संघीय गणराज्य के राज प्रमुख( राष्ट्रपति ) निर्वाचित हुए थे ।और मथुरा उनकी राजधानी थी ।उग्रसेन की भतीजी ( उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री ) देवकी का विवाह वृष्णि संघ के अधिपति  वसुदेव जो शूरसेन के पुत्र थे, के साथ हुआ था ।

शौरिपुर (आधुनिक वटेश्वर ) वृष्णि यादवों की राजधानी ----
शूरसेन यदु की वृष्णि शाखा में उत्पन्न हुए थे । शूरसेन ने जूनागढ़ से आकर अपने नाम पर शोरिपुर ( वर्तमान वटेश्वर ) बसा कर  अपना प्रथक राज्य स्थापित किया था । यह शूरसेन महाराज  , अंधक वंशीय उग्रसेन के समकालीन थे ।वसुदेव के देवकी से भगवान श्रीकृष्ण तथा दूसरी पत्नी रोहिणी से बलराम ( बलभद्र जी ) दो पुत्र  हुए | उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था , जिसका विवाह उस समय  के सर्वाधिक शक्तिशाली मगधराज जरासंध की दो बेटियों के साथ हुआ था  |

कंस का अन्धक -वृष्णि संघ का राजप्रमुख बनना ---
   कंस बड़ा शूरवीर और महत्वकांशी योद्धा था उसने अपने ससुर जरासंध की सहायता से अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया और उन्हें राज्य प्रमुक के पद से हटा कर स्वयं अंधक-वृष्णि राज्य का स्वेछाचारी राजा बन गया था | अंत में , स्वयं के ही भांजे देवकीनंदन वासुदेव श्रीकृष्ण के द्वारा उसका अंत हुआ ।

जरासंध का मथुरा पर आक्रमण---  

कंस के वध का बदला लेने के लिए मगध-सम्राट जरासंध ने यदुवंशियों के विरुद्ध अठारह  बार भीषण आक्रमण किये थे । यधपि उनमे जरासंध को पूरी सफलता प्राप्त नहीं  हुई , तथापि उनसे यदुवंशियों की शक्ति का बड़ा हास हुआ था ।

समस्त यादवों का मथुरा परित्याग एवं  द्वारिका गमन --

अंत में मगध नरेश जरासंध के आक्रमणों से बचने के लिए श्रीकृष्ण ने बड़ा नितिज्ञतापूर्ण कदम उठाया । उन्होंने सजातियों बंधुओ को सम्बोधित  करते हुए कहा कि  जिन जातियों ( यदुवंशियों की शाखाएं ) की वजह से जरासंध के आक्रमण होतें हैं ।उन्हें मथुरा छोड़ देनी चाहिये।

महाभिनिष्क्रमण काल --

श्रीकृष्ण तो परमज्ञानी , दूरदर्शी एवं चतुर राजनीतिज्ञ  थे । उनकी यह राय बहुत से यादवों  को पसंद आयी और थोड़े से कुकुर , महा-भोजियों के अतरिक्त  समस्त अंधक-वृष्णि संघ के यादव इस सुझाव से सहमत हुए  तथा अधिकांश प्रमुख यदुवंशी श्रीकृष्ण के साथ मथुरा का परित्याग  करने को सहमत हो गये । इस योजना को इतिहास मैं महाभिनिष्क्रमण काल कहते  हैं ।

आनर्त एवं सौराष्ट्र प्रदेश की द्वारिका नगरी में पुनर्वास ----

पुनर्वास के लिए सुदूर पश्चिम की और जाने का निश्चय किया था ।  
मथुरा से निष्क्रमण करने वाले यादवों को राजस्थान के पथरीले एवं रेतीले भाग में बसना उचित ज्ञात नही हुआ । वे और भी पश्चिम की और बढ़ते हुए आनर्त ( उत्तरी गुजरात ) और सौराष्ट्र की समतल एवं उपजाऊ भूमि में जाकर बस गए । आनर्त का राजा रेवत    श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का ससुर था । अत: लोगो को वहां बसने में सुविधा थी ।उन्होंने उस भू-भाग में समुद्र के तट पर द्वारका नामक एक रमणीक पुरी बसाई और उसे अपनी राजधानी बनाया तथा वहां उग्रसेन के लिए सुधर्मा सभा का निर्माण कराया।

महाभारत युद्ध ---
महाभारत के युद्ध में जब  इस देश के अनेक राज्यों और उनमें  निवास करने वाली अनेक जातियों का सर्वनाश हो गया था, किन्तु द्वारका का यादवराज वंश का  राज्य तब भी बड़ा शक्तिशाली था ।उसका कारण श्रीकृष्ण जैसे युगांतरकारी महापुरुष का  कुशल नेतृत्व था ।
श्री कृष्ण एवं बलराम जी का तिरोधान गमन का समय एवं यादवों का सर्वनाश ---

जब श्रीकृष्ण के तिरोधान का समय आया; तब गांधारी के श्राप से द्वारका के यदुवंशियों  मे भीषण गृह – कलह हुआ; जिसके कारण उनमे से अधिकांश आपस मे ही लड़ कर मर गये । उस समय वहां वृद्धजन , विधवा स्त्रियाँ और बालकगण ही शेष रहे थे ।
जब अर्जुन को यादवों के उस सर्वनाश का समाचार  श्री कृष्ण जी के सारथी दारुक द्वारा मिला ,तब वह द्वारका जाकर वहां बचे शेष यादवों को श्री कृष्ण जी के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ जी के नेतृत्व में  हस्तिनापुर लिवा लाये ।

श्रीकृष्ण जी के प्रपौत्र वज्रनाभ जी का मथुरा में पुनः यदुवंश का उत्तराधिकारी बनना--

अर्जुन ने सभी यदुवंशियों को पंजाब ,इंद्रप्रस्थ ,तथा मथुरामण्डल में बसा दिया और श्री कृष्ण के वाद वज्रनाभ जी को व्रज (मथुरा) यदु वंश के उत्तराधिकारी हुए।  इस प्रकार इस क्षेत्र पर फिर से शुरसैनी शाखा के  यादवों की बस्तियाँ बस गई।

शूरसेनी यादवी शाखा के राजाओं का राज्य ब्रज प्रदेश में सिकंदर के आक्रमण के समय भी होना पाया जाता है ।समय -समय पर शक, हूण , मौर्य,गुप्त और सिएथियन आदि ने यदुवंशियों के इस मथुरा राज्य को दबाया /छीना गया , लेकिन अवसर  पाते ही यदुवंशी फिर स्वतंत्र हो जाते थे ।जब चीनी यात्री हुएनसांग सन 635 ई 0 में भारत में  आया था उस समय में  मथुरा के आस पास के क्षेत्र जैसे  मेवात ,भदानका / श्रीप्रस्थ (आधुनिक बयाना) ,कामवन (कामा )पर 6 वीं तथा 8 वीं सदी के शासक मूल शूरसैनी शाखा के ही यदुवंशी क्षत्रिय  थे जिनके नाम भी प्राप्त है । इस काल में मथुरा पर शासन कनौज  के गुर्जर -प्रतिहार  राजपूतों था ।इस काल में शूरसेन प्रदेश के मूल पौराणिक यादव राजपूत  उनके अधीनस्थ  सामन्त रहे थे ।लेकिन गुर्जर -प्रतिहार राजपूतों की शक्ति क्षीर्ण होने पर इस प्रदेश के यदुवंशी सामन्त पुनः स्वतंत्र हो गए और अपना नवीन राज्य बयाना स्थापित करके उसके निकटवर्ती अपने पूर्वजों के पौराणिक राज्य मथुरा पर भी पुनः सत्ता हासिल करली । इसी समय में बयाना के  यदुवंशी ( जादों ) शासक राजा धर्मपाल , भगवान श्रीकृष्ण के 77वीं पीढ़ी में मथुरा के आस पास के क्षेत्र के शासक रहे है ।कहा जाता है कि इन्होंने द्वारिका से पुनः आकर अपने पैतृक राज्य मथुरा के निकटवर्ती क्षेत्र को जीत कर बयाना पर राज्य स्थापित किया था ।बाद में  इनके कई प्रमुख वंशजों  के नाम इच्छापाल ,ब्रह्मपाल , ,जयेंद्र पाल मथुरा के शासकरूप में 9 वीं एवं 10 वीं सदी तक मिलते है ।
जब महमूद गजनबी ने स.1074 (1018 ई. )ने मथुरा ( महावन ) पर आक्रमण किया था तब वहाँ के राजा कूलचंद ( कुलचंद) से उसका भीषण युद्ध हुआ था ,। यद्धपि कुलचंद की वंशावली उपलब्ध नहीं हुई हैं , तथापि ऐसा प्राप्त स्रोतों से ऐसा अनुमान होता है कि वहाँ कोई यादव  (जादों ) ही राजा था ।सम्भवना व्यक्त की जाती है कि कुलचन्द महावन में  कामा के पुरानी शूरसेनी शाखा के यदुवंशी शासकों में से  कोई स्वतंत्र सामन्त हो। इस युद्ध में कूलचंद की मृत्यु हुई थी और उसका विशाल सैन्य बल  एवं राज्य महमूद गजनवी ने नष्ट कर  दिया था । जो यदुवंशी उस भीषण विनाश के बाद भी बच गयें थे , उन्होंने  विजयपाल के नेतृत्व में मथुरा से हट कर श्रीप्रस्थ ( वर्तमान बयाना ) में एक नयें यादव  राज्य की स्थापना की थी । विजयपाल सम्भवतः कुलचन्द का भाई-बन्ध ही था जो मूल बयाना के शासकों का वंशज होगा जिन्होंने बयाना के अलावा मथुरा के निकटवर्ती क्षेत्र पर भी अपना अधिकार कर लिया था ।
उक्त विजयपाल के वंशजों ने ही कालान्तर में कामबन तथा बयाना में पुनः यादव राज्यों की स्थापना की  और वहां  अनेक दुर्ग एवं देवालय बनवाएं | शूरसेन शाखा के , महावन ,भदानका /श्रीप्रथ (आधुनिक बयाना ), त्रिभुवनगिरी (आधुनिक तिमनगढ़ ) पर कई  यादव शासकों  का 12 वीं सदी तक शासन रहा था । मुग़ल शासन  के अंतिम काल में बयाना और कामबन पर भरतपुर के ही जादों सिनसिनवार जाट राजवंश  ने अधिकार कर लिया था । किन्तु करौली में यादवों का ही राज्य बना रहा ।अंग्रेजी शासनकाल तक ब्रज में करौली ही यादवों (आधुनिक जादों ) राजपूतों का एक मात्र प्रसिद्ध राज्य था , जिसकी परम्परा भगवान श्रीकृष्ण तक जाती थी। देश के स्वाधीन होने पर अन्य राज्यों के साथ करौली भी राजस्थान में विलीन हो गया |
इस समय मथुरा के पौराणिक शूरसेनी यादवों को जादों ठाकुर ( राजपूत ) कहा जाता है , जिनकी संख्या राजस्थान में करौली , धौलपुर  एवं  भरतपुर जिलों में ,  मध्य प्रदेश के भिंड , मुरैना( सबलगढ़ एवं सुमावली – जौरा क्षेत्र ),  गुना , अशोकनगर , विदिशा ,होसंगावाद , ग्वालियर , रायसेन ,श्योपुर आदि जिलों में  बहुतायत में पाई जाती हैं ।। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के मथुरा , अलीगढ़ , आगरा , हाथरस , एटा , फिरोजाबाद , बुलंदशहर  , कासगंज , कानपुर ,इटावा ,कालपी , महोवा , बांदा , हमीरपुर एवं कोशाम्बी आदि जिलों में बहुत अधिक मात्रा में पाए जातें हैं | बिहार के भागलपुर , मुंगेर , बांका जमुई , पूर्णिया तथा सुल्तानगंज के कुछ गावों में पाए जाते है जो 18 वीं सदी के पूर्वाध में सबलगढ़ (मध्यप्रदेश ) से विस्थापित हुए है ।पंजाब तथा हरियाणा तथा जम्बू में कुछ जिलों में भी शूरसेनी जादों पाएं जातें हैं ।

जादों भाटी राजपूत ---

राजस्थान के  जैसलमेर ,बीकानेर ,हनुमानगढ़ ,जोधपुर जिलों  में बहुतायत में  पाये जाते है।
इसके अलावा भाटी राजपूत  हरियाणा (हिसार )एवं पंजाब ( भटिण्डा , नाभा ,जींद ,पटियाला ,आंवला जिलों में भी पाये जाते है जिनमें अधिकांश पंजाबी जाट भी अब कहलाते है जो मूलतः भाटी राजपूत ही थे ।
हिमाचल प्रदेश में भाटी राजपूत सिरमौर ,बालसन ,लियोगर ,कलसी तथा जुब्बल जिलों   में भी है ।
इसके अतरिक्त उत्तरप्रदेश के गौतमबुद्धनगर , गाजियावाद एवं बुलन्दशहर  जिलों में भी भाटी राजपूत पाए जाते है।बदायूं ,एटा और प्रतापगढ़ जिलों में भी कम संख्या में भाटी पाये जाते है।
गुजरात के कच्छ एवं जामनगर जिलों में भी भाटी पाये जाते है।
यहां ये उल्लेखित करना आवश्यक है कि भारतीय इतिहासकारों एवं विदेशी लेखकों ने "यादवा या यादव " शब्द को संस्कृति भाषा का शब्द लिखा है जिसका हिन्दी में अनुवाद "जादव या जादों " है।ब्रज भाषा में" य" वर्ण का उच्चारण "ज" बोला जाता है
हिन्दी साहित्य का  अध्ययन करने पर पाया गया कि  है कि " यादवा या यादव " शब्द का अपभ्रंशरूप 16 वीं - 17 वीं शताब्दी के भक्ति काल में  दिखाई देता है। कुछ विद्वानों के अनुसार "यादव" संस्कृति का शब्द है जिसका  हिंदी  "जादव " है जिससे "जादों " हुआ ।भक्ति रचनाओं में तुलसीदास एवं सूरदास जैसे कवियों   ने अपनी  श्रेष्ठ रचनाओं जैसे रामायण ,सूरसागर ,आदि में जदुवंश ,जादों ,जदुपति ,जादवपति ,जादोंराय आदि शब्दों का प्रयोग बहुतायत से किया है ।
तुलसीदास जी ने रामायण में कुछ इस प्रकार लिखा है---
         जब जदुबंस कृष्न  अवतारा।
           होइहि हरन महा महिभारा।।
        कृष्न तनय होइहि पति तोरा ।। .
        बचनु अन्यथा होइ न मोरा।
  इसी प्रकार  इस चौपाई में भी यद्धपि के स्थान पर जद्धपि शब्द लिखा गया है ।     
जद्धपि जग दारुन दुःख नाना।
सबते कठिन जाति अपमाना ।।

   इसी प्रकार कुछ अन्य कवियों के छंदों में भी "य"के स्थान पर "ज" शब्दावली का प्रयोग किया गया है जो इस प्रकार है---
उग्रसेन नृप के तपत , यह न सभा तुम योग्य।
अव मथुरा भेजहु अरहि ,भुव पति जदुकुल योग्य।।
तुमसौं कौं रन एरियो , जदुवंश नारद हूं कहो।
जवनेस सो सुनि इक्क ,संकु अनीक लै दूत उम्महो।।
जिहिं आयकैं मथुरापुरी ,जरदाय जादव बुल्लये ।
जव वेश माधव रात, सुब्बहि जानि माधव नै लये।।
वसुदेव जादव को तनुज ,रु कृष्ण नामक नाम है।
बृंयहू कहो तब विष्णु हो ,मम बेर -बेर प्रनाम है।।
हमसों जुगान्तर  मैं पूरा मुनि वृद्ध गर्ग यहें कही।
जदुवंस मैं बसुदेव ग्रह ,अवतार हरि लैहिऐं सही ।।

इतिहास से सिद्ध होता है कि शब्द व्युत्पति के क्रम में यदु ,जादव ,जादों ,यादव सभी एक ही है जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर नए रूप में जाने गए ।वस्तुतः सभी का मतलब एक ही है ।संस्कृत शब्द "यादवा " या 'यादव "का हिन्दी में अर्थ जादों ही है ।सर हैनरी इलियट के अनुसार" जादों "शब्द की  उत्तप्ति "यदु और यादव से हुई किन्तु सही रूप से तो जादों ,जदु ,यादव सभी शाब्दिक रूप से समान है और मूलतः" यादव "शब्द के विकृत रूप है ।वेदों एवं पुराणों में मनु, पाणिनी , कौटिल्य  जैसे विद्वानों के अलावा भी विख्यात इतिहास लेखक - टॉड ,  कनिंघम ,रेनॉल्ड्स ,ताजुलमासिर , ग्राउस ,पौलेट , इलियट , पार्जिटर के अतिरिक्त विभिन्न जाने-माने भारतीय इतिहासकारों जिनमे मजूमदार ,रायचौधरी , जगदीश सिंह गहलौत , दशरथ शर्मा ,ओझा जी , प्रो0 इरफान हबीब , हबीबुल्ला , मथुरा के प्रभुदयाल मीतल एवं बाजपेयी तथा विभिन जैन धर्म के इतिहास लेखकों ने भी आधुनिक जादों ,भाटी ,जडेजा ,जाधव आदि को वंशानुगतरूप से मथुरा एवं द्वारिका का "पौराणिक यादव या यदुवंशी " ही माना है ।इसके विस्तृत एवं सटीक प्रमाण भारत सरकार द्वारा लिखवाये गए विभिन्न प्रान्तों उत्तरप्रदेश के (मथुरा ,आगरा ,अलीगढ़ एटा ,मैनपुरी , बुलन्दशहर ) ,राजस्थान के (करौली ,अलवर ,भरतपुर ,धौलपुर ,जैसलमेर ) हरयाणा के (गुणगांव  एवं हिसार ) एवं पंजाब , गुजरात एवं महाराष्ट्र के डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स में आज भी मौजूद है जिन्हें कोई बदल नहीं सकता और झुठला भी नहीं सकता ।  लेकिन सन 1920 के बाद कुछ पशुपालक जातियों ने अपना सामाजिक स्तर ऊंचा उठाने के लिए  यदुकुल शिरोमणि वसुदेव -देवकी के पुत्र श्री कृष्ण जी को गौपालक मानते हुए उनके पूर्वज यदु के वंश में अपना मनगढ़ंत इतिहास बना कर अन्य समाजों को भी भृमित कर रहे है  जो असत्य है।पौराणिक शुरसैनी  "यादवा " एक  क्षत्रिय /राजपूत वंश है न कि कोई जाति विशेष ।भाषाविदों के अनुसार यदि  "यादव " शब्द के "य"को  "ज"में परिवर्तित किया जाता है तो "जादव ",शब्द मिलेगा । यादव और जादव दोनों ही रूप जायज है और अन्तःपरिवर्तनीय है ।
विभिन्न प्रान्तों के गजेटियर्स जो उन्नीसौ के दशक से पूर्व या बाद में भी लिखे गए है उनमें  में भी वर्णित भारतीय वंश एवं जातियों (Tribes &Castes ) का वर्णन किया है जिनके अंतर्गत भी वर्तमान करौली राज्य जादों राजवंश ,जैसलमेर राज्य के भाटी यदुवंशी राजवंश ,देवगिरि राज्य के जाधव/ जादव राजवंश ,कच्छ एवं भुज के जडेजा राजवंश ,जूनागढ़ के चुडासमा ,रायजादा ,रा खगार ,सरवैया राजवंशो, द्वारसमुद्र के होयसल राजवंश ,विजयनगर साम्राज्य के राजवंश , तथा मैसूर के ओड़ियार या बढियार राजवंश के राजाओं के वंशजों को "यादवा या यदुवंशी चन्द्रवंशी क्षत्रिय  ही लिखा है ।इन सभी चन्द्रवंशी "यादवा राजवंशों " के विवाह -सम्बन्ध भी स्थानीय एवं दूरदराज के अन्य क्षत्रिय /राजपूतों से हुए है जिनके प्रमाण इतिहास में इंगित भी है ।स्वयं कर्नल जेम्स टॉड नें अनाल्स ऑफ जैसलमेर में भाटी वंश के इतिहास में समस्त यदुवंशियो के लिए यदु और जादों  शब्दों का प्रयोग किया  है। अनेकों विख्यात भारतीय इतिहासकारों ने भी इन राजवंशों के वंशजों के नाम के साथ "यादव या यदुवंशी " वंश उपनाम भी लिखा है जिसके अनेकों प्रमाण भारतीय इतिहास की पुरातन पुस्तकों में भी इंगित  है। शोधों से ये ज्ञात होता है कि इतिहासानुर भक्तिकाल से पूर्व चन्द्रवंशीय क्षत्रिय यदुवंशीयों के लिये "यादवा "शब्द का प्रयोग हुआ है ।यादव कोई जाति विशेष नहीं है ।यह एक पुरातन चन्द्रवंश की एक शाखा है ।कुछ जाति विशेष के कथाकथित इतिहासकारों ने अपने द्वारा लिखी गई  अपनी इतिहास की पुस्तकों में अपने मूल वंशजों के इतिहास को न लिख कर यदुवंश में अपना इतिहास समाहित करने का प्रयास कर रहे है जिसे कोई भी समाज उनके अतरिक्त सत्य भी नहीं मानता ।सत्य तो सत्य ही होता है ,उस को असत्य के पर्दे से नहीं छिपाया जा सकता । आजकल  यदुकुल में जन्मे श्री कृष्ण के परदादा शूरसेन के भाई के रूप दूसरी  वैश्य माता से जन्मे पर्जन्य का नाम गोपों के अधिपति नन्द जी के पिता के रूप में जोड़ कर या उग्रसेन के पिता आहुक का नाम अपने पूर्वजों के नाम के  साथ जोड़कर कुछ विशेष समाज के लोग अपना  मनगढ़ंत इतिहास बना रहे है जिसका कोई भी प्रमाण मान्यता प्राप्त  किसी भी वेद ,उपनिषद तथा पुराणों में कहीं  भी नहीं  बताया गया है। उनके कथाकथित इतिहासकारों द्वारा लिखित  पुस्तकों का अध्ययन करने पर पाया गया है कि उन्होंने बड़ी ही चतुराई से "यादव "शब्द को जातिगत बनाते /मानते  हुए वास्तविक यदुवंशियों -करौली के जादों ,जैसलमेर के भाटी ,कच्छ एवं भुज के चुडासमा एवं जडेजाओं , देवगिरि के जादवों ,होयसल एवं विजयनगर के यादवों ,मैसूर के वड़ियारों तथा कलचुरियों ,हैहयों आदि सभी को अपने इतिहास में समाहित कर लिया है जो बिल्कुल असत्य है।इन सभी यदुवंशियों के राजपरिवारों के पास आज भी श्री कृष्ण से आज तक अपने पूर्वजों की जगाओं ,चारणों एवं भाटों द्वारा लिखी हुई वंशावलियाँ भी  उपलब्ध है  जो वास्तविक वंशज होने का प्रमाण देती हैं ।  इन कथाकथित इतिहास वेत्ताओं के पास  अपनी श्री कृष्ण से जुड़ी कोई भी वंशावली है ही नहीं जिसके आधार पर कृष्ण के वंशज होने का यथार्थ में दावा प्रेषित कर सकें ।सभी भारतीय एवं विदेशी  विख्यात इतिहासकारो द्वारा लिखित पुस्तकों एवं विभिन्न प्रान्तों के जनपदों के  गजेटियर्स में इनको वही लिखा है जो वे  वास्तविक रूप में है ।इनके लिए यादवा या यदुवंशी संबोधन कहीं भी नहीं लिखा है ।

सन्दर्भ---
1-ऋग्वेद -दयानद संस्थान ,दिल्ली
2-यजुर्वेद -दयानन्द संस्थान ,दिल्ली
3-मनुस्मति -मनु कृत-वेंकटेश्वर प्रेस ,बम्बई
4-श्रीमद्भागवत महापुराण -गीताप्रेस ,गोरखपुर
5- संक्षिप्त महाभारत-गीता प्रेस ,गोरखपुर
6-वायुपुराण
7-विष्णुपुराण
8-हरिवंश पुराण
9-मत्स्यपुराण
10-अग्नि पुराण
11-रामायण तुलसी एवं बालमिक कृत
12-सूरसागर महात्मा सुरदास
13-राजस्थान का इतिहास -कर्नल जेम्स टॉड
14-हिस्ट्री ऑफ दी राजपूत ट्राइब्स -मेटकाल्फ़
15-हैंडबुक आफ राजपूतस -कैप्टन बिंगले
16-भारत का वृहत इतिहास (भाग 1,2,3)-रमेश चंद्र मजूमदार
17-राजपूताने का प्राचीन इतिहास -पं0 गौरीशंकर ओझा
18-गजनी से जैसलमेर -हरि सिंह भाटी
19-राजपूताने का इतिहास -जगदीस सिंह गहलोत
20-यदुवंश का इतिहास - महावीर सिंह यदुवंशी
21-ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास प्रथम भाग -प्रभु दयाल मित्तल
22-मथुरा -ए डिस्ट्रिक्ट मेमॉयर -ग्रोउस
23-ब्रज का इतिहास प्रथम खण्ड-कृष्णदत्त वाजपेयी
24-मथुरा जनपद का राजनैतिक इतिहास-प्रो0 चिन्तामणि शुक्ल
25-प्राचीन भारतीय इतिहास का वैदिक युग-,सत्यकेतु विद्याशंकर
26-विद्याभवन राष्ट्रभाषा ग्रंथमाला पुराण -विमर्श -आचार्य बलदेव उपाध्याय
27-प्राचीन भारत में हिन्दू राज्य -बाबू बृन्दावन दास
28-प्राचीन भारत का इतिहास रमाशंकर त्रिपाठी
29-पाणिनीकालीन भारतवर्ष -डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल
30-दकन का प्राचीन इतिहास -जी0 यजदानी
31-राजपूत आफ सौराष्ट्र -वीरभद्र सिंह
32-सुर वंश का इतिहास -डा0 शिव बिन्देश्वरी प्रसास
33-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट - पी 0 पोवलेट
34-भारतीय पूरा -इतिहास कोश-अरुण
35-ऐष्यन्त इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिसन -पाजितर
36-अर्ली हिस्ट्री ऑफ राजपूत -सी0 वी0 वैद्य
37-जादों वंशियों का इतिहास -करौली का विजयपाल ,न019/27 ,अलवर पुरालेखय ,राजस्थान ,आर्काइव्ज आफिस ,बीकानेर
38-यादव वंशों  का इतिहास  संवत 867 विक्रमी से 1094 तक ,न0 269,8/27 ,अलवर पुरालेखीय , राज0 आर्काइव्ज आफिस ,बीकानेर
39-जैसलमेर ख्यात --डा0 नारायण सिंह भाटी
40-करौली ख्यात एवं करौली पोथी
41-जाटों का नवीन इतिहास -उपेन्द्नाथ शर्मा
42-कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन तिमनगढ़ दुर्ग -रामजी लाल कोली
43-वीरविनोद करौली की तवारीख-श्यामलदास
44-मथुरा के यमुना तटीय स्थलों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास 12 वीं शताब्दी तक-जयन्ती प्रसाद शर्मा
45-सल्टनतकाल में हिन्दू प्रतिरोध -अशोक कुमार सिंह
46-मुंशी अकबर अली बेग कृत तवारीख-ए-करौली
47-भरतपुर एवं सवाईमाधोपुर जिला गज़ेटियर
48-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन -मोहनलाल गुप्ता
49-भरतपुर जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन -मोहनलाल गुप्ता
50-जाटों का नया इतिहास -डा0 धर्मे चंद्र विद्यालंकार
51-यदुवंश -गंगा सिंह
52-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली
53-हिन्दी विश्वकोश संपादक नागेन्द्रनाथ वसु

लेखक – डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001

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