दास्ताने पारस पत्थर ,नटनी की छतरी एवं वीराने खण्डहर दुर्ग तिमनगढ़--

दास्ताने पारस पत्थर , नटनी की छतरी एवं वीराने खण्डहर दुर्ग तिमनगढ़--

बयाना के यदुवंशी  महाराजा विजयपाल की मृत्यु के बाद यादव राजवंश छिन्न -भिन्न हो गया ।इनके पुत्र छोटे -छोटे दल बना कर इधर -उधर डोलने लगे , परन्तु कहीं पर उपर्युक्त स्थान नहीं मिला ।कुछ को अपना राज्य जमाने का अवसर मिल गया ।महाराजा विजयपाल के ज्येष्ठ पुत्र महाराजकुमार तिमनपाल थे ।वे कुछ समय   तक तो बयाना के आस -पास पहाडी भागों में भटकते फिरे ।कुछ समय पश्चात इन्होंने पुनः विजयगढ़ (बयाना ) को आबाद करने का प्रयास किया , परन्तु सफलता नहीं मिली ।चारो तरफ इस क्षेत्र पर मुस्लिम आधिपत्य स्थापित हो चुका था ।इस लिए इन्होंने उसे छोड़ दिया और पुनः राज्य स्थापना के लिए दूर -दराज सहायता हेतु भृमण किया ।कलिंजर एवं ग्वालियर भी गए लेकिन कोई लाभप्रद संतोष नहीं मिला ।यवनों के छुट-पुट आक्रमण निरन्तर उत्तरी-पूर्वी भागों पर हो रहे थे ।हिन्दू जाति में गहरा विशाद वातावरण था।यद्यपि कई हिन्दू राजवंश अपने उत्कर्ष काल में थे , तथापि वे अपने आपसी झगड़ों और वैमनस्यता के कारण वे यवनों के झगडे रोकने में असमर्थ थे।
बयाना पतन के बाद तिमनपाल ने अपने आप को गुप्त रूप में इसी क्षेत्र में छुपाये रखा और अनुकूल समय की प्रतीक्षा करते रहे ।बारह वर्ष बाद यानी संवत 1115 सन 1058 ई0 में वह पुनः बयाना में मीणा जाति की अपनी धाय माता के घर कुछ समय तक शिकार आदि के बहाने अपना समय व्यतीत करने लगे।

तिमनपाल जी को एक तपस्वी साधू मेढकीनाथ का मिला था आशीर्वाद ---

एक किवदंती के अनुसार तिमनपाल जी एक दिन आखेट यानी शिकार खेलने के लिए जंगल में पधारे थे तो बयाने से 22 मील के फासले पर पश्चिम की तरफ डाँग क्षेत्र में चले आये , वहां पर बड़े -बड़े शिकार थे ।दरख्तों की बहुतायत थी ।महाराजा की दृष्टी में एक हिरन आया तो उसके पीछे घोड़ा डाल दिया तो वह हिरन भाग कर एक पहाड़ी की कंदरा में घुस गया , राजा भी घोड़े से उतर कर उस हिरन के पीछे कन्दरा में चले गए ।वहां पहुंच कर देखते क्या है कि एक साधु बैठा है और वह मृग गायब होकर गाय रूप में बैठा है।तब राजा ने उस तपस्वी महात्मा को दण्डवत प्रणाम किया ।तब साधु ने आशीर्वाद दिया और पूछा कि राजपुत्र यहां पर आना कैसे हुआ ।तिमनपाल जी ने साधू के भारी व्यक्तित्व को देखते हुए सोचा कि ये कोई करामाती सन्त है ।तब राजा ने विनयपूर्वक कहा कि हे महाराज (साधु) आपके अनुग्रह से आज यह स्थान देखा , तब साधू ने कहा कि हे राजपुत्र तुम यहाँ स्थान बनाओ ।राजा तिमनपाल ने अपनी दुखभरी दासता साधु को सुनाते हुए कहा कि महाराज मेरे पास तो कुछ नहीं है ।यदि आप दया कर देंगे तो तथा द्रव्य की व्यवस्था एवं जल की अनुग्रह करेंगे तो यहां पर एक स्थान बन सकता है। अप्रकाशित करौली ख्यात ,करौली पोथी तथा स्वर्गीय जगा कुलभानसिंह ,ठिकाना अकोलपुरा ,करौली की पोथी के अनुसार तपस्वी साधू का नाम  "मेढकीनाथ " था ।राजा तिमनपाल की दर्द भरी प्रार्थना  को सुनकर तपस्वी मेढकीनाथ /मेढकीदास पिघल गया और उसे राजा पर दया आ गयी ।

साधू मेढकीदास ने दिया था तिमनपाल को "पारस पत्थर "--

उस तपस्वी साधू ने राजा को एक पारस पत्थर का टुकड़ा दिया जिसे छूने मात्र से ही लोहा सोना हो जाता है । किसी ने इस विषय में भी कहा है कि --
अमृत सर देखौ नहीं , पारस कौ न पहार ।
काग उलूक सबनै देखे , नहीं देखी हंस कतार।।

साधू ने कहा कि राजपुत्र तुम एक किला तैयार कर बड़े राजा बनोगे ।जब तुम्हें रुपये की जरूरत पड़े उस समय इससे (पारस पत्थर ) लोहा छू कर सोना बना लेना , उससे  काम चलाते रहना ।फिर जल के बारे में कहा कि हे राजपुत्र आप घोड़े पर सवार होकर जिस शिखर की ओर चले जाओ ।आप के पीछे से जल चला आएगा । पीछे लौटकर देखोगे तो जल उसी स्थान पर रुक जायगा ।महात्मा के वरदान को मानते हुए तिमनपाल जी चलते -चलते सीलौती गांव पर रुक गए और पीछे मुड़कर देखा तो  वहीं पर जल भी रुक जाता है ।

तपस्वी साधू मेढकीदास की आज्ञा एवं आशीर्वाद से हुआ था तिमनगढ़ दुर्ग का निर्माण ---

तिमनपाल जी ने इसी स्थान पर पहाड़ी खण्ड में उपर्युक्त एवं सुरक्षित स्थान देख कर विक्रम  सम्वत 1115 में जो एक किला का निर्माण कराया  जो उन्हीं के नाम से तिमनगढ़ ,ताहनगढ़ ,त्रिभुवनगढ़ ,त्रिभुवनगिरि  कहलाने लगा । कुछ फारसी इतिहासकारों ने इस दुर्ग को थनगढ़ , थनगिरि , आदि नामों से भी वर्णित किया है ।इसी दुर्ग के नीचे ही दो पहाड़ियों के बीच में सागर नामक एक विशाल झील या तालाब का निर्माण कराया ।सुदृण परकोटा लाल पत्थर का बनवाया ।यहां से लगभग चार मील दूर उनके अनुज मदनपाल का किला गढ़ मंडोरा था जिसमे समस्त यादव राजपूतों को बुलाया गया ।उनका राज्यभिषेक उसी वर्ष फाल्गुन सुदी 5 स्वाती नक्षत्र में हुआ ।शीघ्र ही इन्होंने आस -पास के राज्यों पर शासन स्थापित कर दिया ।विजयमन्दिरगढ़ जो यहां से 15 मील दूर था उस पर भी इनका अधिकार हो गया ।इनके राज्य की सीमा वर्तमान धौलपुर राज्य तक पहुंच गयी ।इनके समय में कोई महत्वपूर्ण युद्ध नहीं हुआ।समय -समय पर होने वाले छुट -पुट आक्रमणों को इन्होंने आसानी से दबा दिया ।तिमनगढ़ किले के अंदर उन्होने विकास की बहुमुखी प्रणाली क्रियान्वित की ।पानी की समस्या सागर नामक झिल से सुलभ की गयी ।किले में छोटे -छोटे तालाब बनवाये , तिजस्मी मकान एवं गुप्त मार्गों का निर्माण करवाया ।सात राजगिरी नामक चक्रों की नींव के गोल गुम्मदाकार छतरियों का निर्माण करवाया जो लगभग 20 फुट व्यास के पत्थर  के गोल चक्रों की नींव के ऊपर आधारित है।नींव की गहराई अनुमानत 10 फुट है नीचे अक्षय धन या गुप्त महल या मार्ग का कोई भी आश्चर्यजनक वस्तु हो सकती है।खुदाई करनेपर दो चक्र 25 फुट तक की गहराई तक मिले है ।

पुरातन मूर्तिकलक के सौन्दर्य की अनुपम धरोहर है दुर्ग तिमनगढ़--

यह दुर्ग मध्ययुग में बड़ा सामरिक महत्व रखता था ।तिमनगढ़ दुर्ग को राजस्थान का खजुराहो कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति भी नहीं होगी ।यह दुर्ग  जैन एवं शैव  मन्दिर एवं कला कृतियों का अनुपम धरोहर है ।उपलब्ध शिलालेखों एवं प्रमाणों के आधार पर यह किला लगभग 1000 वर्ष प्राचीन है।इसकी वास्तुकला के आधार पर इसकी प्राचीनता अधिक है। राजगिरियों के ऊपर के भाग सुन्दर मूर्ति कला एवं स्थापत्य कला के नमूने है जो बोद्धय युग की कला से प्रभावित है ।वर्तमान युग में भी मूर्तियों का काफी संख्या में दर्शन होता है ।सब हिन्दू धर्म सम्बन्धी मूर्तियां गणेश ,नारद ,सरस्वती तथा ,लक्ष्मी आदि है।अपने पिता की भांति महाराज तिमनपाल भी शिव के अत्यंत उपाशक थे ।तिमनगढ़ में तिमनपाल जी ने तिमनबिहारी जी की प्रतिमा पधरवायी।यह तिमनबिहारी जी का मन्दिर तेली की हवेली से एक जरीव पूर्व की तरफ तिमनगढ़ में है।इस दुर्ग में कई हवेलियां विद्यमान थी जिनमें तेलन की हवेली ,पासवान श्री चन्द की हवेली ,सेठ करणीदान महाराज ओसवाल की हवेली ,सुआपाल की हवेली , चौड़रान की हवेली। इसके अतिरिक्त ननद -भौजाई का कुंआ , बाजार , तेल कुंआ , बड़ा चौक , आमखास , प्रसाद मन्दिर ,किलेदार का महल ,खास महल तथा प्रधान छतरियां और उनसे जुड़े भीतरी गर्भगृह तथा तहखाने अवलोकन योग्य है ।यह दुर्ग पौराणिक काल की पुरातन प्रतिमाओं के सौन्दर्य का बड़ा भंडार था जो मुस्लिम आक्रमणों एवं उनके शासकों ने ध्वस्त करदी ।अंजनी मन्दिर से पूर्व की तरफ एक जरीव के फासले पर कुल पुरोहित बिहारीलाल तिवाड़ी का मकान है।वर्तमान में इस दुर्ग का पूर्वी एवं पश्चिमी प्रवेश द्वार सुरक्षित हैजिन्हें जगन पौर एवं सूर्य पौर के नाम से जाना जाता है।मुसलमानों के आक्रमण बराबर होते रहते थे इस कारण यह नगर शीघ्र उजड़ गया और खण्डहर हो गया।

तत्पश्चात इन्होंने एक विशाल रणवाहिनी  तैयार की ।इन्होंने चम्बल नदी तक यदु की डाँग तक अधिकार कर लिया था ।मथुरा ,अलवर, भरतपुर  ,गुणगांव , तथा आगरा एवं ग्वालियर का कुछ भाग भी इनके अधिकार में आ गया था ।
वर्तमान में तिमनगढ़ खण्डहर के रूप में पड़ा हुआ है जो घोर जंगल सिंहों और जंगली जानवरों का क्रीड़ा स्थल बना हुआ है ।दुर्ग की भीतरी मकनादि के भग्नावशेष है ।परकोटा अब भी अपने बल पर खड़ा हुआ अतीत की स्मृतियों को मूक भाषा में सुनाता है।महाराज तिमनपाल की मृत्यु सन 1160 ई0 में हो गयी थी।

महाराजा तिमनपाल ने किया था राजसूय यज्ञ  एवं दक्षिणा में पुरोहित को दिया पारस पत्थर--

ख्यातों के अनुसार महाराज तिमनपाल मेढकीनाथ नामक तपस्वी के वरदान से परम् पराक्रमी सम्राट हुए ।शिलालेखों में उन्हें "परम् भट्टारक महाराज धिराज परमेश्वर के विरुद अंकित मिले है ।
मिती वैसाख शुक्ल अष्टमी को संवत 1142 की साल में महाराज तिमनपाल जी ने यज्ञ किया था जिसका हाल इस प्रकार है कि साह गजनी से फैली अशुद्धि को शुद्ध करने वास्ते हवन करने के या अपना तेज बढ़ाने के वास्ते यज्ञ आरम्भ किया था ।लक्ष्मीनारायण ब्राह्मण सारस्वत कानपुरा निवासी आचार्य थे ।101 ब्राह्मण यज्ञशाला में थे मंत्र जपते सात सौ पन्द्रह रोज में यज्ञ सम्पूर्ण हुआ था ।ब्राह्मण लोगों को बहुत सा द्रव्य देकर आशीर्वाद लिया । लेकिन यदुकुल पूज्य राजपुरोहित बिहारीलाल तिवाड़ी ने आशीर्वाद पर विनयपूर्वक कहा कि राज यदुकुल भानु तिमनपाल मुझे वो चीज दीजिये कि जिससे आपके सुयश की कीर्ति पृथ्वी पर बनी रहे।तब महाराज ने परमात्मा के सिवाय इस पारस पत्थर के और क्या बड़ी चीज है जो इनको देवें ।लेकिन राजपुरोहित से महाराज ने फरमाया कि तिवाड़ी साहिब आप 20 गांव ले लीजिए प्रसन्न होकर आशीर्वाद दीजिये ।इस संदर्भ में एक छन्द व दोहा प्रचलित था--
जिह अश्वमेघ अरभकीन , द्वविज बोल सात सौ ग्राम दीन ।
ऋषिराज आप मत है प्रवीन , वहु विधि शुभ कारज कीन , दुर्ग दीन मत तुमरे अधीन ।।
तुम सिंधु महाग्राहा मीन ।
पद पूज पुरोहित
कीनै प्रसन्न , वहु द्रव्य संग पारस दीन ।।
दोहा -
पुरोहित राज राजी भये , लीनों थाल उठाय ।
हो प्रसन्न टीको कियो, तिमनपाल के आय।।

राजा तिमनपाल ने थाल में बहुत से द्रव्य एवं पारस पत्थर अपने पुरोहित को दान में दिए।राज्य पुरोहित ने प्रसन्नता के साथ राजा का तिलक किया और  थाल में पारस और  बहुत सा द्रव्य था उसे लेकर पुरोहित अपने भवन पधारे ।उनकी पत्नी बहुत प्रसन्न हुई और जो थाल में द्रव्य था उसे देखने लगी ।तब देखते -देखते वह पारस पत्थर निगाह में आया तो अपने स्वामी से कहने लगी कि पत्थर थाल में क्यों आया है।तब पुरोहित ने पारस को देखा और थाल से उठा कर अपने पास रख लिया ।पुरोहित जी को ये भेद मालूम नहीं था कि इस पत्थर का नाम पारस है और इसको लोहे से लगाने पर सुवर्ण बन जाता है ।कई दिनों तक वह पारस पुरोहित जी के पास रहा ।एक दिन श्री सिद्ध महाराज मेढ़कीनाथ ने महाराजा तिमनपाल को स्वप्न दिया कि हे राजन ये पारस विप्र को क्यों दिया ।श्री महाराज ने विनयपूर्वक कहा कि सिद्धनाथ जी वह ब्राह्मण कुल पुरोहित है तब श्री महाराज ने फरमाया कि हे राजन तुम्हारी इच्छा स्वपना होने का कारण यह है  कि सम्वत 1141 में सिद्धनाथ  तपस्वी मेढकीनाथ समाधि ले गये थे।
पारस जाने का हाल तरीके पर है कि महा सुदी 5 को महाराज तिमनपाल का जन्मदिन था यानि साल ग्रह का दिन था ।संवत 1145 को उसी दिन साल ग्रह का आमखास दरबार लगा हुआ था।पुरोहित तिवाड़ी जी भी राजदरबार में गये हुये थे।बाद में आमखास बर्खास्त होने के बाद श्री यदुकुलनाथ महाराज तिमनपाल जल गुर्ज पर आ विराजे थे ।उस वक्त एक सागर की तरफ शेर मोरी पर बैठा हुआ नजर में आया इधर -उधर किलोल करने लगा ।थोड़ी देर बाद एक नाहर गिरि पर से उतरता हुआ पहले से 10 गज के फासले पर आकर पानी पीने लगा।पहले का शेर तो किलोली कर रहा था , सभा के सरदारों ने कहा कि अब तो दो नाहर इक्कठे हो रहे है ।पुरोहितराज तिवाड़ी बिहारीलाल जी के नजर एक ही नाहर (शेर ) आया था तो तिवाड़ी जी बोले नाहर तो एक ही है ।सभा के सरदारों ने कहा कि मोरी से किस तरफ को है ।तिवाड़ी जी ने कहा कि जो हम शेर का ठीक पता बतादें तो हमको क्या इनाम मिलेगा ।उक्त वक्त श्री महाराजकुमार धर्मपाल जी ने फरमाया कि पुरोहितजी इतना देने पर भी आप की इच्छा बड़ी प्रबल बनी हुई है ।तब बिहारीलाल तिवाड़ी नाराज होकर बोले कि यज्ञ की भेंट में एक तो पत्थर दीया था सो लीजिये। इतना कह कर तालब में फैंक दिया ।बड़े जोरसे महाराज तिमनपाल ने कहा तिवाड़ी जी आपको हमने पारस दीया था सो सागर में फेंक दिया ।उस पारस के अच्छे गुण तो आप ने जाने ही नहीं। नारायण की इच्छा बड़ी प्रबल होती है ।उस रोज पुरोहित जी पारस को राजसभा में नहीं ले जाते तो तालाब में क्यों जाता ।राजा ने उसी वक्त 21 हाथियों के पैर में लोहे की सांकल बंधवाकर तालाब में घुमाए ।चंचल गज नामक हाथी की सांकल सोने की हो गयी लेकिन पारस नहीं मिला।फिर उसी दिन महा सुदी 5 को तीसरे पहर को वसंत का दरबार लगा था पुरोहित तिवाड़ी जी सर्मिन्दा थे तो उन्होंने अपने भानज किशनलाल को भेज दिया ।राजा तिमनपाल ने पांव पूज कर किशनलाल हरदेनिया को पुरोहित बनाया।अर्थात हरदेनिया को संवत 1145 की साल में पुरोहित माना ।

नटनी का वाक्या --

सम्वत 1159 की साल में कर नाटक नटनी गुल चमन बेगम ने वरत रोपा था जिससे ये शर्त (बदन ) ठहरी थी कि जो तू सौ जरीव का रस्सा लम्बा बांध कर उस पहाड़ से किले के अंदर आ जाएगी तो तुझे चौथाई राज्य की मालगुजारी देंगे ।नटनी ईश्वर का ध्यान करके वरत पर चढ़ी तथा अपनी विद्या के अनुसार चली आयी ।ठिकाना कुल 20 हाथ रह गया था लेकिन किले में से वरत को काट दिया ।उस नटनी से बड़ा दगा हुआ था।वरत कटने से नटनी मर गयी ।राजमहल से डोंगरी के तरफ पश्चिम की ओर नटनी की छतरी बनी हुई है ।उसी डोगरी (पहाड़ी ) से गढ़ तक वरत (रस्सा ) बांधा था।कहते है कि नटनी ने मरने से पहले शाप भी दिया था कि यहां अब सब कुछ वीरान हो जायेगा।

संदर्भ---

1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं
करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
14-यदुवंश -गंगा सिंह
15-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
16-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली
17-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा
18-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता
19-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग
20-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन
21-बयाना-ऐ कांसेप्ट ऑफ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी -डा0 राजीव बरगोती
22-प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह
23-आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60--कनिंघम
24-रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.--कनिंघम
25-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.
26--राजस्थान का जैन साहित्य 1977
27-जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक
28-,राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा
29-हिस्ट्री ऑफ जैनिज़्म -कैलाश चन्द जैन ।
30-ताहनगढ़ फोर्ट :एक ऐतिहासिक  सर्वेक्षण -डा0 विनोदकुमार सिंह एवं मानवेन्द्र सिंह
31-तवारीख -ए -करौली -मुंशी अली बेग
32-करौली ख्यात एवं पोथी अप्रकाशित ।

लेखक--– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लाढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001




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