मध्यकालीन त्रिभुवनगिरि दुर्ग का गौरवशाली स्वर्णिम युग :सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर का प्रतीक ---

मध्यकालीन  त्रिभुवनगिरि दुर्ग का गौरवशाली स्वर्णिम युग : सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर का प्रतीक ---

त्रिभुवनगिरि दुर्ग --इस मध्यकालीन दुर्ग का निर्माता महाराजाधिराज त्रिभुवनपाल या तिहुणपाल के नाम पर ही "त्रिभुवनगिरि "रखा गया है ।इस दुर्ग को ताहनगढ़ , तिमनगढ़ ,थनगढ़ , थनगिरि आदि नामों से भी जाना जाता है ।जैसवाल जैन जैसलमेर का त्याग करके राजा त्रिभुवनपाल के समय में ही त्रिभुवनगिरि में आये और दुर्ग के बाहर पड़ाव डाल दिया ।लोगों के पूछने पर उन्होंने स्वयं को जैसलमेर वासी यदुवंशी ही बताया ।अतएव ये जैसवाल जैन कहलाये ।राजा त्रिभुवनपाल ने उनको जैसलमेर के होने के कारण सम्मान सहित अपने दुर्ग में रहने दिया ।
यदुवंशियों (जादों राजपूत) के मुगलों से वीरतापूर्ण संघर्ष का साक्षी ताहनगढ़ दुर्ग------

मध्यकाल में ताहनगढ़ का दुर्ग उत्तर भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से एक था ।बयाना से लगभग 23 किलोमीटर दक्षिण में एक उन्नत पर्वत शिखर पर स्थित है।दुर्गम पर्वतमालाओं  एवं घने जंगल से घिरा हुआ तथा  अद्भुत सौंदर्य से सुशोभित इस दुर्भेद्य दुर्ग की अपनी निराली ही शान और पहिचान है।यदुवंशी क्षत्रियों की वीरता और पराक्रम की अनेक घटनाओं के साक्षी इस दुर्ग में प्राचीन काल की भव्य और सजीव प्रतिमाओं के रूप में कला की एक अनुपम बहुमूल्य धरोहर बिखरी पड़ी है जिसके कारण इस दुर्ग को राजपूताने का खजुराहो कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
समुद्र तल से लगभग 1309 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित इस दुर्ग का निर्माण  ऐतिहासिक श्रोतों के अनुसार बयाना के जादौन राजवंशी महाराजा तिमनपाल या ताहनपाल  ने 11 वीं सदी के (1075-1100) मध्य कराया था जो कि बयाना के जादौन राजा विजयपाल के बड़े पुत्र थे ।अपने निर्माता के नाम पर यह दुर्ग ताहनगढ़ तथा किले वाली पहाड़ी त्रिभुवनगिरी कहलाती है।

त्रिभुवनगिरि के सम्बंध में जैन मुनियों के साक्ष्य ---
उदयचंद कवि ने अपनी सुगन्ध दशमी कथा में रचना स्थान का कोई उल्लेख नहीं किया है किन्तु उन्होंने अपनी दो रचनाओं " निर्झर पंचमी कथा और "चूनड़ी "को तिहुणगिरि  (त्रिभुवनगिरि ) में रचित कहा है।"सुगन्ध दशमी " कथा के कर्ता उदयचंद के शिष्य विनयचन्द ने जिस त्रिभुवनगिरि (तिहनगढ़ ) में अपनी उक्त दो रचनाएं पूर्ण की थी उनका निर्माण इस यदुवंश के राजा त्रिभुवनपाल ने अपने नाम से 1044 सन के कुछ समय बाद कराया था । कहा जाता है कि जायस जैनों का एक।बड़ा दल बयाना प्रदेश के त्रिभुवनगिरि में जा बसा ।ये सब लोग वणिक व्रत वाले थे और दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे ।यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि त्रिभुवनगिरि के यादव राजपूत राजा उस समय कन्नौज के गुर्जर -प्रतिहार राजपूतों के सामन्त थे ।जब ये स्वतंत्र हुए तो ये दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे ।अभय नरेंद्र के जिस राजविहार में रह कर उन्होंने "चूनड़ी " की रचना की थी , वह निःसन्देह उन्हीं अजयपाल नरेश बनवाया गया होगा , जिसका सन 1150 ई0 का उत्कीर्ण लेख महावन से मिला ।सन 1196 ई0 में त्रिभुवनगिरि उक्त यदुवंशी राजाओं के हाथ से निकल कर मुसलमानों के हाथों में चला गया ।अतएव त्रिभुवनगिरि में लिखे गये उक्त दोनों ग्रंथों का रचना काल लगभग सन 1150 और 1196 ई0 के बीच अनुमान किया जा सकता है ।सौभाग्य से तिहुयणगिरि आजकल का तिमनगढ़ (ताहनगढ़ ,थंनगढ़, थनगिरि ) है जो मथुरा से दक्षिण -पश्चिम की ओर लगभग 60 मील दूर राजस्थान के पुराने करौली राज्य व भरतपुर राज्य में पड़ता है ।विनयचन्द मुनि ने अपनी "चूनड़ी " नामक रचनाएं तिहुणगिरि में अजयनरेंद्र के राजविहार में रहते हुए की थी ।यह तिहुयणगिरि आजकल तिमनगढ़ है  ।यहां पर मध्यकाल में यदुवंशी राजाओं का शासन था ।भाटों के ज्ञातो व उत्कीर्ण लेखों पर से पता चलता है कि भरतपुर राज्य एवं मथुरा जिला के भूमि -प्रदेश पर एक समय यदुवंशी राजाओं का राज्य था ,जिसकी राजधानी श्रीपथ (आधुनिक बयाना , राजस्थान ) थी ।यहां 11 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जयेन्द्रपाल नामक राजा हुए ।उनके उत्तराधिकारी विजयपाल थे , जिनका उल्लेख विजय नाम से बयाना के सन 1044 ई0 के उत्कीर्ण लेख में भी पाया गया ।इनके उत्तराधिकारी त्रिभुवनपाल (तिहनपाल ) हुए जिन्होंने बयाना से 14 मील दूर तिहुणगढ़ का किला बनवाया ।इस वंश के अजयपाल नामक राजा की एक उत्कीर्ण प्रशस्ति महावन से मिली है , जिसके अनुसार सन 1150 ई0 में उनका राज्य प्रवर्तमान था ।इनके उत्तराधिकारी हरीपाल का भी सन 1170 ई0 का एक उत्कीर्ण लेख महावन में मिला है ।भरतपुर राज्य के अघपुर नामक स्थान से भी एक मूर्ति मिली है ,जिसका सन 1192 ई0 में उत्कीर्ण लेख में सहनपाल नरेश का उल्लेख है।इनके उत्तराधिकारी कुंवरपाल (कुमरपाल ) थे , जिनका उल्लेख मुसलमानी तवारीख ताजुल मआसिर में भी मिलता है ।

महाराजा कुंवरपाल जैनधर्म के अनुयायी---

त्रिभुवन गिरि वर्तमान राजस्थान के करौली नगर से 24 मील की दूरी पर स्थित है। 12 वीं शताब्दी में यादव राजा कुमरपाल वहाँ का शासक था। करौली और उसका निकटवर्ती क्षेत्र मध्य काल में ब्रजमंडल के अंतर्गत था, और वहाँ के यादव राजा शूरसेन जनपद (प्राचीन मथुरा राज्य) के उन यादवों के वंशज थे, जिनके नेता श्रीकृष्ण थे। त्रिभुवन गिरि के यादव राजा कुमारपाल ने जैन मुनि जिनदत्त सूरि जी से प्रतिबोध प्राप्त किया था, और उन्हें एक चित्रित काष्ठ फलक भेंट किया था। श्री जिनदत्त सूरि ने सं. 1169 में आचार्य पद प्राप्त किया था; अतएव उक्त काष्ठ फलक का निर्माण काल सं. 1175 के लगभग माना जा सकता है। उसका परिचय देते हुए श्री भँवरलाल नाहटा ने लिखा है,- इस फलक के मध्य में हाथी पर इन्द्र व दोनों ओर नीचे चामरधारी नवफण पार्श्वनाथ भगवान का जिनालय है, जिसकी सपरिकर प्रतिमा में उभय पक्ष अवस्थित हैं। दाहिनी ओर दो शंखधारी पुरुष खड़े हैं। भगवान के बायें कक्ष में पुष्प-चंगेरी लिये हुए एक भक्त खड़ा है, जिसके पीछे दो व्यक्ति नृत्यरत हैं। वे दोनों वाद्य यंत्र लिये हुए हैं। जिनालय के दाहिनी ओर श्री जिनदत्त सूरि जी की व्याख्यान सभा है। आचार्य श्री के पीछे दो भक्त श्रावक एवं सामने एक शिष्य व महाराजा कुमारपाल बैठे हुए हैं। महाराजा के साथ रानी तथा दो परिचारक भी विद्यमान हैं। जिनालय के वायीं तरफ श्रीगुणसमुद्राचार्य: विराजमान हैं, जिनके सामने स्थापनाचार्य जी व चतुर्विध संघ हैं। साधु का नाम पंडित ब्रह्माचंद्र है। पृष्ठ भाग में दो राजा हैं, जिनके नाम चित्र के ऊपरी भाग में सहण व अनंग लिखे हैं। साध्वी जी के सामने भी स्थापनाचार्य हैं, और उनके समक्ष दो श्राविकाएँ हाथ जोड़े खड़ी हैं। इस काष्ठ फलक में जिस नवफण पार्श्वनाथ जिनालय का चित्र है, सूरि महाराज की जीवनी के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह जिनालय नरहड़-नरभट में उन्होंने स्वयं प्रतिष्ठापित किया था। पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को नवफणमंडित बनवाने की प्रथा गणधर सार्ध-शतक वृत्यनुसार श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज से ही प्रचलित हुई थी। यह काष्ठ ब्रजमंडल की मध्यकालीन जैन चित्रकला का एक दुर्लभ उदाहरण है। इस समय यह जैसलमेर (राजस्थान) के ग्रंथ-भंडार में संख्या 241 के 'चंद्रपन्नति सूत्र' नामक ग्रंथ के साथ संलग्न है। नाहटा जी का कथन हैं, यह काष्ठ फलक पहिले उस ग्रंथ के साथ था, जिसे यादव राजा कुमारपाल ने लिखवाया था। वह ग्रंथ इस समय उपलब्ध नहीं है, और यह काष्ठ फलक अन्य ग्रंथ चंद्रपन्नति सूत्र के साथ लगा दिया गया है।

जैन साहित्य में त्रिभुवनगिरि ----

जैन साहित्य बयाना प्रदेश के त्रिभुवनगिरि में मुनि जिनदत्तसूरी के 1157ई0 में कुंवरपाल के शासनकाल में त्रिभुवनगिरि आगमन तथा एक कलशाभिषेक समारोह में भाग लेने व राजा कुंवरपाल से उनकी भेंट का उल्लेख मिलता है।
उदयचंद के शिष्य विनयचन्द ने अपनी " नरंग उतारी कथा "का रचना स्थल यमुनानदी के तटपर वसा महावन नगर बतलाया है कवि ने महावन को स्वर्ग कहा है , जिससे उसकी उन दिनों की महत्ता प्रकट होती है ।इससे सिद्ध होता है कि सभी यदुवंशी शासक जैन धर्म के अनुयायी थे।
न्यायचन्द्र सूरी -रचित हम्मीर महाकाव्य में भी रणथंभोर के पराक्रमी शासक हम्मीरदेव चौहान के दिग्विजय -अभियान के प्रसंग में त्रिभुवनगिरि के शासक द्वारा उसे भेंट दिए जाने का उल्लेख हुआ है ।उस समय यहां का शासक कौन था , निश्चित रूप से कहना कठिन् है।सम्भवतः त्रिलोकपाल थे।
कुंवरपाल एक धार्मिक सहिष्णु शासक थे ।उन्होंने सभी धर्मों का आदर किया लेकिन वह जैन धर्म के अहिंसावादी विचारधारा का दृढता से पालन करते थे ।उन्हें हिंसा बिलकुल पसंद नहीं थी ।इस कारण उनका शासनकाल समृद्ध एवं शांतिपूर्ण था ।उन्होंने जैन मुनियों से अहिंसा की शिक्षा ली और अहिंसा का पुजारी बन गए ।वह जनकल्याणकारी भावना से प्रेरित होकर अपने कल्याणकारी कार्यों में वह प्रसन्नता महसूस करता था ।किंतु उसका अहिंसा पुजारी होना समय के अनुकूल नहीं था क्यों कि इस समय भारत पर तुर्कों के हिंसक  आक्रमण शुरू हो चुके थे ।

मुहम्मद गौरी का त्रिभुवनगिरि पर आक्रमण --

राजा कुंवरपाल के शासनकाल में सन 1196 ई0 में मुहम्मद गौरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक व बहाउद्दीन तुगरिल के साथ एक विशाल सेना लेकर तिमनगढ़ पर आक्रमण किया ।कुंवरपाल ने अप्रितम साहस और पराक्रम का परिचय देते हुए आक्रांता का सामना किया परन्तु विजयश्री से वंचित रहा और तिमनगढ़ उसके हाथों से निकल गया ।डा0दशरथ शर्मा के अनुसार मुहम्मद गौरी द्वारा तवनगढ़ पर अधिकार कर लिए जाने के साथ ही यादवों की दूसरी राजधानी तवनगढ़ या त्रिभुवनगिरि के गौरवशाली स्वर्णिम युग का पटाक्षेप हो गया ।समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने अपनी तवारीखों में इस घटना का उल्लेख किया है ।हसन निजामी द्वारा लिखित " ताज-उल-मासिर " तथा "मिनिहाज सिराज द्वारा लिखित "तबकाते नासिरी " में तवनगढ़ के गौरी के अधिकार में आने तथा उसे बहाउद्दीन तुगरिल के अधीन रखने एवं उसके शासनकाल में वहां की व्यापारिक प्रगति का उल्लेख हुआ है ।इस विवरण के अनुसार हिन्दुस्तान के दुरस्थ प्रदेशों , मध्य एशिया तथा खुरासान आदि के व्यापारी वहां आते थे।
उपरोक्त दोनों फ़ारसी इतिहासकारों ने गौरी के इस अभियान के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है ।इनके मतानुसार गौरी ने अपनी शक्ति के बल पर दुर्ग को लड़ कर यहां के राजा से हस्तगत किया ।कुंवरपाल ने अपने आप को किले में घिरा पाकर वह घबरा गया तथा सुल्तान से क्षमायाचना की मांग की ।यहां के शासक कुंवरपाल ने  हालात को प्रतिकूल जानकर किले को तुर्कों को समर्पित कर दिया और सुल्तान से प्राणों की भीख मांगी ।इस प्रकार गौरी ने यादवों का यह राज्य छीन लिया और उसे अभयदान दे दिया ।फारसी इतिहासकारों का ये विचार एक पक्षीय है ।कुंवरपाल ने डट कर मुकावला किया था ।15 दिन तक भयंकर युद्ध चला था ।तिमनगढ़ किला गौरी की सेना ने चारों ओर से घेर लिया ।कुंवरपाल के पास बहुत कम सेना ही रह गयी थी ।युद्ध सामग्री का पूर्णतया अभाव होता गया था।अतः कुंवरपाल को किला भी शीघ्र छोड़ना पड़ा और वह चम्बल के बीहड़ों में विवश होकर चले गए ।सन 1196 ई0 में महाराजा कुंवरपाल ने चम्बल किनारे कुमरगढ़ बसाया और वहां से फिर एक बार राजपूताने में चौहानों के साथ तुर्कों की सत्ता को उखाड़ फेंकने की कोशिश की ।परन्तु योजना सफल नहीं हो सकी ।अन्त में महाराज कुमरपाल वापिस कुँवरगढ़ आ गये और अपने अंतिम दिनों में रीवा रियासत अपने रिश्तेदारों मामा के यहां जाकर रहने लगे ।वहीं उनका देहांत हिन्दू धर्म की रक्षा एवं देश की हालत सुधार की कामना लिए हुए सन 1197 में विक्रम संवत 1204 के लगभग हो गया ।

संदर्भ---

1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं
करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
14-यदुवंश -गंगा सिंह
15-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
16-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली
17-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा
18-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता
19-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग
20-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन
21-बयाना-ऐ कांसेप्ट ऑफ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी -डा0 राजीव बरगोती
22-प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह
23-आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60--कनिंघम
24-रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.--कनिंघम
25-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.
26--राजस्थान का जैन साहित्य 1977
27-जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक
28-,राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा
29-हिस्ट्री ऑफ जैनिज़्म -कैलाश चन्द जैन ।
30-ताहनगढ़ फोर्ट :एक ऐतिहासिक  सर्वेक्षण -डा0 विनोदकुमार सिंह एवं मानवेन्द्र सिंह

लेखक--– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लाढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001


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