करौली के महानतम शासक एवं संस्थापक महाराजा अर्जुनदेव तथा उनकी संतति--
करौली महानतम शासक एवं संस्थापक महाराजा अर्जुनदेव तथा उनकी संतति --
तिमनगढ़ पतन के बाद वहां के यदुवंशी शासक कुँवरपाल का कोई भी उत्तराधिकारी उस समय यह दुर्ग एवं अपना खोया हुआ पैतृक राज्य पुनः प्राप्त नहीं कर सका।इस कारण सन 1196 ई0 से 1327ई0 तक का इस वंश का तिथिक्रम संदिग्ध है तथा उपलब्ध भी नहीं है ।
मध्यकाल में इस क्षेत्र पर यवनों का आधिपत्य रहा जिससे भारी अशांति ,अत्याचार एवं हिंसा का माहौल रहा ।
ख्यातों के अनुसार अर्जुनदेव ई0 1325 तदनुसार विक्रम संवत 1383 हिजरी 754 में मध्यभारत के किसी राज घराने (सम्भवतः कुछ इतिहासकारों के अनुसार अंधेर कोटला ,रीवा रियासत ) के आश्रय में रहते थे ।मंडरायल एवं सबलगढ़ के पास के क्षेत्र में यवनों का शासन था ।परन्तु यहां पर डोर एवं परमार राजपूतों का बाहुल्य तथा प्रभाव था ।मंडरायल में एक फीसदी पर दुर्ग था जिसे इनके पूर्वज राजा विजयपाल बयाना के पुत्र मदनपाल ने बनवाया था , उन्ही के नाम पर इस नगर व किले का नाम मंडरायल पडा ।इस दुर्ग में मखन शाह नामक यवन सुवेदार रहा करता था ।यह बड़ा दुराचारी ,अत्याचारी एवं आलसी व्यक्ति था ।
एक किवदन्ती के अनुसार अर्जुनदेव और उनका परिवार मध्यदेश के ठिकाने अंधेर कोटला से या किसी अन्य स्थान से (ग्राम गुरजा में राव घुघलदेव एवं वीजलदेव दोनों भाई रहते थे ) अपने किसी रिश्तेदार से मिलने के लिए यहाँ आये थे , साथ में इनके पिता घुघलदेव जी तथा तीन छोटे भाई (सुर्जनदेव , तमसिंह तथा वागराज ) चलते -चलते चम्बल नदी को पार कटके अपने पूर्वजों के राज्य मंडरायल क्षेत्र के गांव" नीदर " में एक काकोरिया ब्राह्मण के घर रात्रि विश्राम किया ।यह नीदर गांव मंडरायल से 3 मील दक्षिण-पश्चिम में है ।जब अर्जुनपाल अपने परिवार सहित अपनी रियासत की हद में घुसे जब अपने को रियासत के नजदीक देखा तो इन्हें एक घोड़ी बावड़ी पर जो मौजा माँगरौल परगना सबलगढ़ हाल इलाका ग्वालियर में एक जमींदार की थी , बहुत ही दयनीय हालत में चरते देखी ।घोड़ी को उन्होंने बांध लिया ।घोड़ी के मालिक के विषय में गांव के लोगों से पता किया तो मालूम हुआ कि इस घोड़ी ने दो बछड़े दिए है सावन में ब्याही थी जिसे हिन्दू संस्कृति में अशुभ माना जाता है ।इस लिए मालिक ने इस घोड़ी को अशुभ मानकर छोड़ दिया ।वह घोड़ी रात में भूखी रही इस लिए जमीन में टाप देती रही ।सुवह के समय जब अर्जुनदेव जी ने घोड़ी को जाकर देखा तो वहां पर एक कढ़ाई द्रव्य की भरी मौजूद है।ये द्रव्य संवत 1379 की साल में मिला था।अर्जुनदेव को जगाती चौतरा से पिछे पश्चिम उत्तर कोण में भी बहुत सारा धन मिला । कहते है यहां खण्डहर थे जिनमें दबा हुआ धन मिला था।क्षेत्रीय लोगों को इस रहस्य से दूर रखा गया।उस खजाने से अर्जुनपाल ने अपना राज बढ़ाने लगे।उन्होंने समय रहते उस स्थान पर जहाँ धन मिला था एक बावड़ी बनवायी तथा विप्र लोगों की मदद से नीदर गांव में एक गढ़ी बनवायी यहीं पर रहने लगे। इनमें सभी राजसी गुण थे ।स्थानीय लोगों से अपने पूर्वजों का वीरतापूर्ण हाल सुनकर उनके मन में भी राज्य स्थापित करने की उत्कंठा पैदा हो गयी ।अर्जुनदेव ने मंडरायल के किलेदार मखन शाह के यहां एक सिपाही की नौकरी करली । धीरे -धीरे इन्होंने आस -पास के राजपूतों से सम्पर्क स्थापित कर लिया । कुछ समय बाद अर्जुनदेव की नीयत में मंडरायल दुर्ग हस्तगत करने की जिज्ञासा हुई , जिसके लिए इन्होंने किले के आदमियों को लालच देकर अपनी ओर मिलाने का कार्य शुरू कर दिया । यहां तक कि मंडरायल के दुर्ग रक्षक अधिकांश सेना को भी अपनी तरफ कर लिया ।एक मौका पाकर इन्होंने मखन शाह को धोखे से मार डाला और उनकी सेना ने तुर्क सेना को मार कर भगा दिया ।मंडरायल किले पर सन 1327 में इनका अधिकार हो गया।शीघ्र ही पाये हुए धन से छोटी सी सेना स्थापित करली ।इन्होंने स्वयं का मंडरायल क्षेत्र पर आधिपत्य घोषित कर दिया ।इस प्रकार इनके राज्य में सबलगढ़ तक का क्षेत्र भी आ गया ।बादशाही सेना को भी इन्होंने अपने पक्ष में बाद में कर लिया ।सेना में खूब पुरस्कार बांटे ।शीघ्र ही सहायक किले के रूप में नीदर गांव में एक कले गढ़ी का निर्माण करवाया।
अर्जुनपाल ने मंडरायल के आस-पास के क्षेत्र में पाए जाने वाले मीणों एवं पंवार राजपूतों को युद्ध में हराकर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया और सरमथुरा के पास 24 गांव सैनिक दृष्टि से बसाये गए ।अन्य स्थानों से राजपूत और यादव लोग आकर पुनः इक्कठे होने लगे।अपनी सेना को शिक्षित करने और नवीन हथियारों से सुसज्जित करने का प्रबन्ध किया ।आस -पास के शाही इलाकों पर इन्होंने छापे मारना शुरू कर दिया ।ग्वालियर के राजा से इन्होंने मित्रता करली।मुहम्मद तुगलक ने अपनी राजधानी उस समय दिल्ली से परिवर्तित कर दी थी जिससे वह इस तरफ ध्यान नहीं दे सका था। अर्जुनदेव जी ने मचा मीणाओं का दमन करके उनके क्षेत्र पर भी अपना अधिकार कर लिया।इसी समय अवसर का लाभ उठाते हुए तिमनगढ़ का किला जो इनके पूर्वजों ने बनवाया था ।सामरिक एवं सीमा की दृष्टि से दुर्ग बहुत महत्वपूर्ण था ।एक तुर्क सुवेदर वहां का रक्षक था उसे मार भगाया और तिमनगढ़ पर भी अधिकार कर लिया। सुवेदार विजयमन्दिरगढ़ की ओर भाग गया। अर्जुनपाल जी ने भरतपुर के यदुवंशी सिनसिनवार जाट शासक और आस -पास के यादव भाटी राजपूतों को ब्याने के सुवेदारों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए उत्प्रेरित किया ।तिमनगढ़ का किला अर्जुनपाल जी ने अपने पुत्र विक्रमादित्य की देख -रेख में रखा ।राजकुमार विक्रमादित्य ने गढ़ मंडोरा के छोटे किले को भी अपने कब्जे में कर लिया ।
उधर मुहम्मद तुगलक विद्रोह को दमन करने में लगा हुआ था ।चारों तरफ विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी थी । सन 1345 ई 0 में स्थानीय अधिकारियों के दुष्ट व्यवहार के कारण देवगिरि की जनता ने विद्रोह कर दिया ।अमीरान -ई-शाह का भी महत्वपूर्ण विद्रोह उसी समय में हुआ था जो मुहम्मद तुगलक के लिए बड़ा सिर दर्द था।इसको दवाने में मुहम्मद तुगलक का प्रिय मालवा का सुवेदार अजीज मारा गया।गुजरात में भी अमीरों ने विद्रोह का भंडा खड़ा कर दिया।ऐसी परिस्थिति में मुहम्मद तुगलक राजपूताने की ओर विशेष ध्यान नहीं दे पाया।महाराज अर्जुनदेव ने अवसर का लाभ उठाया और अपने पूर्वजों की खोई हुई भूमि पर पुनः कब्जा कर लिया।वह राज्य सीमा विस्तार के साथ ही उसकी रक्षा के लिए भी सचेष्ट रहे।सीमाओं पर उन्होंने सैनिक शिविर स्थापित किये और वहां पर अपने विस्वासपात्र सैनिकों को रखा गया।राज्य भर में गुप्तचर रखे गये जो राज्य पर होने वाले आक्रमणों की सूचना देते रहें ।राज्य विस्तार करने के उपरान्त उन्होंने उसके प्रबन्ध की ओर भी ध्यान दिया।मंडरायल उनके राज्य में एक कोने में स्थित थी , अतः वहां एक मध्यवर्ती स्थान व्यवस्था की वजह से चाहते थे ।इसके लिए उन्होंने भद्रावती नदी की उपात्का को चुना।वहां पर इन्होंने कल्याण जी मन्दिर बनवाया जो बोद्धय कालीन स्थापत्य कला का है ।
इन्ही कल्याणदेव जी के नाम से अर्जुनपाल ने ई0 1348 में एक कल्याणपुरी नामक नगर वसाया ।यही कल्याणपुरी कालान्तर में करौली के नाम से विख्यात हुआ।यह नगर भद्रावती नदी के किनारे स्थित होने के कारण भद्रावती नाम से भी जाना जाने लगा ।अर्जुनपाल जी ने कल्याणपुरी के पक्के फर्श का बाजार ,मन्दिर ,कुएं ,तालाब आदि का निर्माण कराया तथा नगर के चारों ओर परकोटा बनवाया ।यह नगर उस समय कुल क्षेत्र 9 वर्ग किलोमीटर में स्थापित किया था ।
अर्जुनपाल जी ने गम्भीर नदी या पंचनदी के ऊपर पहाड़ी पर वीरवास गांव के निकट अंजनी माता का मन्दिर बनवाया जिसे आजकल करौली के जादों राजपूत अपनी कुलदेवी मानते है ।मंडरायल से कल्याणपुरी तक का जंगली रास्ता साफ कराया।दूसरी गढ़ी मौजा गेरई में बनवायी जिसकी कुछ इमारत बाकी रही ।संवत 1405 सन 1348 ई0 में बग़ीचा ,पक्का कुआं और एक परकोटा बनवाया जिसके निशाल महलात और बगीची में दो पेड़ खिरनी और आम के भीतर रावल के मौजूद है तथा परकोटा जो फूटा है वह लखरों और हलबाइयों की बगल में है आज भी इस दरवाजे को फूटा दरवाजे के नाम से पहचाना जाता है ।
उंटगिर उस समय साकुले ( लोधे ) राजपूतों के कब्जे में था ।जो तुगरिल सुल्तान की आज्ञा से उसे हड़पे हुए थे ।अर्जुनदेव ने उनको आधीनता स्वीकार करने को कहा परन्तु वह नहीं माने , अतः युद्ध करके किले उंटगिर को हस्तगत कर लिया ।परन्तु ये उसको सुरक्षित नहीं रख सके ।दुर्ग पुनः उनके हाथों से निकल गया।इस प्रकार अर्जुनपाल की राज्य सीमाएं उत्तर -पश्चिम में बयाना तक जा पहुंची थी ।पूर्व में धवलगिरी (धौलपुर ) के पहाड़ों तक इनका राज्य था।दक्षिण में चम्बल पार तक ग्वालियर की सीमाओं को छूता हुआ।दक्षिण -पश्चिम में चम्बल के साथ -साथ उंटगिर तक इनकी राज्य सीमाएं फैली हुई थीं ।विजयगढ़ दुर्ग (बयाना दुर्ग ) को हस्तगत करने की इनकी प्रबल इच्छा थी जो पूर्ण नहीं हो सकी ।
ई0 सन 1351 में मुहम्मद तुगलक की मृत्यु हो गयी।दिल्ली के तख्त पर उसका चचेरा भाई फिरोज तुगलक आसीन हुआ जो एक सिथिल व दुर्बल सुल्तान था ।उसको भी राजपूताने की ओर देखने का साहस नहीं हुआ।तत्कालीन इतिहास को देखने पर पता चलता है कि उस समय रणथम्भोर , अजमेर , जालौर , जैसलमेर , भटनेर , चित्तोड़ , ,आबू और बयाना स्वतंत्र थे ।बयाना का विजयमन्दिरगढ़ उस समय जाटों के अधिकार में चला गया था ।अतः अर्जुनदेव ने किसी हिन्दू अधिपति से उलझना उस समय ठीक नहीं समझा , दूसरे भरतपुर के जाट सिनसिनवार राजा बयाना के यादव वंश से ही सम्बंधित थे जिनको वे अपने भाई-बन्ध ही मानते थे तथा आज तक करौली राजपरिवार भरतपुर राजपरिवार को भाई ही मानते है।
इनके राजकाल में नये -नये गांव बसाये गये और किसानों को खेती के अच्छे साधन प्रदान किये गए।प्रजा में अमन -चैन था।कोई भी महत्वपूर्ण यवन आक्रमण इनके शासनकाल में नहीं हुआ।दिल्ली सल्तनत के अधीन त्रस्त हिन्दू भी भाग कर राजपूताने में आकर शरण लेने लगे।अर्जुनदेव ने भी ऐसे लोगों को आश्रय दिया ।प्रजा की भलाई के लिए तालाब, कुएं और बावडियों का निर्माण कराया ।
राजा अर्जुनपाल की मृत्यु सन 1361ई0 संवत 1418 में हुई ।अर्जुनपाल जी ने चार शादियां की 1-महारानी पंवार जी , 2-चौहान जी ,3-राठौड़ जी तथा 4-सोलंकी जी ।इन चार रानियों से अर्जुनदेव के दो पुत्र थे , विक्रमादित्य और टोडरमल ।टोडरमल की संतति नहीं चली।विक्रमाजीत अपने पिता अर्जुनदेव की मृत्यु के बाद सम्वत 1418 ,सन 1361ई0 में गद्दी पर बैठे ।इनका राज्यभिषेक तिमनगढ़ में हुआ।इन्होंने अपने पिता द्वारा विजित भू-भाग को सुरक्षित रखा और कोई नया भू-भाग नहीं जीता और नहीं अपना कोई भाग खोया ।इन्होंने अपनी राजधानी को तिमनगढ़ ही रखा और वहीं से राज्य किया ।इनके फलस्वरूप करौली और मंडरायल की ओर से मीणाओं ने बड़े उपद्रव किये क्यों कि वे राजधानी से दूर थे , अतः उनपर भली प्रकार से नियंत्रण करना सरल नहीं था।इन्होंने अपने दो विवाह(रानी चौहान जी एवं हाड़ी जी) किए ।इनके पांच पुत्र पैदा हुए थे।मीणाओं के उपद्रवों को समय -समय पर इन्होंने दबाया ।इनका शासनकाल शान्ति पूर्ण रहा।फ़िरोजतुग़लक का भी बुढापा था ।उसने भी कोई आक्रमण नहीं किया।विक्रमाजीत जी का संवत 1439, सन 1381 ई0 में देहान्त हो गया ।इनके पांच पुत्र हुए जिनका विवरण इस प्रकार है।
1-अभयचन्द्र
2-अजयचन्द
3-मदनचन्द
4-होरकचन्द
5-त्रिपाल जी
महाराजकुमार अभयचन्द्र को छोड़कर चारों अन्य भाई लाऔलाद (लावारिस ) गुजर गये ।अभयचन्द्र जी महाराज विक्रमाजीत के देहावसान के बाद सम्वत 1439 ,सन 1382 ई0 में गद्दी पर आसीन हुए तथा यथावत शासन करते रहे ।इन्होंने कोई नई उपलब्धि अर्जित नहीं की ।अभयचन्द्र जी की दो रानियों (महारानी बडगुजरनी एवं पंवार जी ) से पांच पुत्र पैदा हुए ।
1-पृथ्वीराज -इन्होंने तिमनगढ़ में राज्य किया ।ग्वालियर तक राज्य की सरहद बनाई ।बाद में वहां से देवगिरि उंटगिर आये।
2-औजूजी-ये मौजा सरमथुरा में गद्दी नशीन हुए ।जगा के अनुसार गांव सरेड रहे ,जिनके वंशज सरेरिया या सेडिया जादों कहलाये ।
3-सोजूजी -बिजैपुर परगना सबलगढ़ के अधिकारी रहे जिसे महाराजा ने ईनाम में दिया ।इनके वंशज दादू के जादों कहलाये जो आज भी वहीं रहते है।जगा के अनुसार ये गांव पचवारो रहे थे ।इनके वंशज (दायु के ) दूदावत जादों कहलाये ।
4-रायताश /रायनालश -ये लाऔलाद गये।
5-भावसिंह -इन्होंने मासलपुर परगने में भावली गांव को आवाद किया ।इनके वंशज चौड़िया जादों कहलाये जो गांव भावली , गोगुरदा तथा कसारा में मौजूद है ।
1-पृथ्वीराज --इनका संवत 1460 में राज्यभिषेक तिमनगढ़ दुर्ग में ही हुआ।यह बहुत बहादुर योद्धा थे।उस समय दिल्ली सल्तनत खण्ड -खण्ड हो चुकी थी ।तैमूर के भयानक आक्रमणों ने उसे ध्वस्त कर दिया।सन 1401 में पुनः नसरुद्दीन महमूद ने मल्लू इकबाल की सहायता से पुनः प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न किया जो असफल रहा।1405 में इकबाल को खिज्रखां ने मार डाला ।1413 ई0 में स्वयं महमूद भी अपने साथ ग्यासुद्दीन तुगलक द्वारा स्थापित तुगलक वंश को लेकर इस संसार से कुच कर गया । महाराजा पृथ्वीराज ने फौज का अच्छा जमावड़ा कर रखा था ।इन्होंने अपनी बहादुरी की अनेक मिसाल कायम कर रखी थी ।
महाराजा पृथ्वीराज के समय ग्वालियर एक स्वतंत्र राज्य था ।अलवर तथा भरतपुर कभी बयाना के सूबेदार शम्स खां के अधीन हो जाते थे , कभी तवनगढ़ के यादवों के तेलंगाना में एक स्वतंत्र हिन्दू राजा था ।खानदेश ,और दक्षिण के विजयनगर स्वतंत्र थे ।इस प्रकार देश की राजनीति डांवाडोल थी ।पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी तिमनगढ़ को ही चुना ।यहां से उन्होंने मेवात का एक बड़ा भाग शम्स खां से छीन लिया और अपने राज्य में मिला लिया।करौली के आस -पास होने वाले मीणाओं के आक्रमण का इन्होंने बड़े कौशल से दमन किया ।इनको अपने जीवनकाल में दो युद्ध करने पड़े।
1-ग्वालियर के राजा मान सिंह से युद्ध---
ग्वालियर के राजा मान सिंह तंवर ने उनके राज्य के अंतर्गत सबलगढ़ क्षेत्र का इलाका जो चम्बल पार था अपने राज्य में मिला लिया ।इस घटना से इनको बहुत दुख हुआ और एक भारी यादव सेना लेकर ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी ।युद्ध में इन्होंने कूटनीति का आश्रय लिया ।यादव वाहिनीयों ने ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार कर लिया ।ग्वालियर का राजा कालपी की तरफ भाग गया ।कुछ समय तक ग्वालियर का राज्य इनके अधीन रहा ।परन्तु वे वहां का लगान वसूल नहीं कर सके ।मानसिंह के पुत्र ने प्रार्थना कर पृथ्वीराज से अपना राज्य वापस ले लिया और मित्रता करली ।पृथ्वीराज ने उसका राज्य वापिस लौटा दिया और युद्ध के हरजाने के फलस्वरूप काफी धन उससे बसूल किया और सबलगढ़ का क्षेत्र भी पुनः अपने अधिकार में कर लिया ।चम्बल के आस -पास एवं धवलगिरी की श्रंखलाओं में यादवों का प्रबल प्रभाव था ।
2अफगानों से युद्ध --
इनके शासनकाल में एक और युद्ध अफगानी सुवेदारों शमन और मेवात के बहादुर नादिर के साथ हुआ।ये दोनों मिलकर तिमनगढ़ के दुर्ग पर चढ़ आये ।तिमनगढ़ दुर्ग भेद दिया गया था ।दो महीने तक युद्ध चलता रहा ।नहीं तो अफगान ही किले तक पहुंच सके और न यादव भी अफगानों को कोई हानि पहुंचा सके ।इस का कारण दुर्ग की विशेष स्थिति है ।दुर्ग के उत्तर पूर्व एवं दक्षिण में पर्वत मालाएं है जो दुर्ग को घेरने वाले शत्रुओं के विनाश में अवरोधन का कार्य करती थी ।तोप आदि की मार से वे सुरक्षित रहते थे ।युद्ध चलते -चलते बरसात का समय आ गया ।तुर्कों को परेशान होना पड़ा ।दुर्ग के उत्तर-पश्चिम में बीना नदी में बाढ़ आ गयी।अतः अवसर पाकर यवन पूर्व की ओर इक्कठे होने लगे। अवसर पाकर यादवों ने सागर नामक झील जो दुर्ग के नीचे है तोड़ दी , जिससे अफगान सेना को बहुत हानि उठानी पड़ी ।रसद की कमी आ गयी ।हजारों यवन बह गए।युद्ध सामग्री पूर्णतः बह गयी ।तदोपरांत यादवों का प्रबल आक्रमण हुआ अतः पराजित होकर यवन अफगान भाग गए और विजयश्री पृथ्वीराज के पक्ष में रही ।कुछ समय बयाना भी इनके अधिकार में रहा परन्तु वह फिर शम्स खां ने हस्तगत कर लिया ।
पृथ्वीराज ने अपने शासनकाल में प्रजा की भलाई के लिए समुचित ध्यान दिया ।लूट -खसोट करने वाले मीणाओं और अन्य लोगों को इन्होंने कठोर दण्ड दिए।सिलोती के उपद्रवी गोहजे राजपूतों को शान्त किया ।युद्ध में मारे गए राजपूतों को सहायता प्रदान की गई।इनकी मृत्यु सन 1423 ई0 विक्रम संवत 1480 के लगभग हुई ।
पृथ्वीराज जी ने 6 विवाह किए थे ।कच्छवाही , चौहान जी ,राठौड़ जी , भदौरन जी , चौहान जी इन छह रानियों से तरह पुत्र पैदा हुए ।1-उदयचन्द , 2-राव लक्ष्मण सैन ,3-हमीर सैन , 4-हारगदेव या यारकदेव , 5-खड्गसैन ,6-जमनमान ( जमोनीभान ), 7-मानिकचन्द , 8-कुम्भकरण , 9-अचरजदास (अतवलदास ) , 10-भीलनदेव ( भालनदो ) ,11-अचलदेव (आचड़दो ) ,12-धाकड़देव (धाकड़दो ) , 13-गोमकरण ।इनमे उदयचन्द मुख्य थे ।इनके भाई लक्ष्मण सैन (लक्ष्मी सैन ) राव हुए ।
1- उदयचन्द --महाराजा पृथ्वीराज के पुत्र उदयचन्द की संतान (राजावत ) पकौड़ियां जादों कहलाये।अपने पिता की मृत्यु के तिमनगढ़ की गद्दी पर सन 1424 ई0 में विराजे ।दिल्ली पर उस समय मुबारक शाह का शासन था जो कि एक दुर्बल सैयद वंश का सुल्तान था ।राजपुताना पूर्ण रूपेण स्वतंत्र था ।उदयचन्द ने कोई नई भूमि विजय नहीं की।इनके राज्य पर कोई आक्रमण नहीं हुआ।इनके राज्यकाल का समय सन1423 से 1435 ई0 तक माना जाता है। इनके 4 विवाह कच्छवाही जी, पंवार जी, चौहान जी रानियों से हुए इनसे चार पुत्र पैदा हुए थे , (अ)---प्रताप बहादुर या प्रतापसैन या प्रतापरुद्र।
(ब )--सरवयान (सहणवाण )-ये गांव कटोटा विराजे ।जिनके वंशज कटोटिया जादों कहलाये।इनकी औलाद मैरबातोलिय जादों भी कहलाते है जो आगरा जिले में आवाद हैं ।
(स)--राव देवसैन - ये गांव रामगढ़ रहे(मौज कुलौली) जिनके वंशज रामपुरिया जादों कहलाये ।ये रामपुर एवं खेड़ला गांव में आवाद है ।ये गांव चम्बल क्षेत्र मध्यप्रदेश में है।
(द,)-सेहरभान / मसाहाल जी -ये लाऔलाद गये ।
2-लक्ष्मण सैन -- ये गांव लखमीपुर , चमरौला , महोली रहे ।इनके वंशज खीचड़े जादों हुए जो महोली में है ।
3-हमीरसैन -- ये गांव चैनपुर , मुराडा विराजे ।जिनके वंशज मोरिया जादों कहलाये ।
4-यारकदेव--इनके वंशज खेरिया जादों कहलाये।
5-भीलनदेव -- ये गांव चिनोरिया रहे जिनके वंशज चिनोटिया जादों कहलाये ।ये शंकरपुर में रहते है ।
6-कुम्भकरण --ये गांव सेमरदा विराजे ।जिनके वंशज बाबावत या मालावत जादों कहलाये ।
7-मानिकचन्द --ये गांव मदनपुर रहे।जिनके वंशज मेहरिया जादों कहलाये।इनको मैमुदर भी कहते है ।
8-आचड़देव --ये गांव दहमोली रहे।जिनके वंशज पौनिया एवं लोमा जादों कहलाये।ये आजकल देमोली में आवाद है।
9-जामोनी भान --लाऔलाद रहे।
10-खड़गसैन -लाऔलाद रहे ।
11-धाकड़देव--ये गांव घुराकर ,नंदवाना रहे।जिनके वंशज कुरैया जादों कहलाये।
12-भायचन्द --ला औलाद रहे।
13-सिकन्दर -ला औलाद रहे।
राजा प्रतापरुद्र ---महाराजा उदयचंद के बड़े पुत्र प्रतापरुद्र या प्रतापसैन जी विक्रम संवत 1492 से 1505 तक हिजरी सन 842 में गद्दी पर बैठे ।ये राजसिंहासन तिमनगढ़ से उंटगिर ले गए ।इनका राज्यभिषेक विक्रम संवत 1435 में हुआ।उस समय मुहम्मदशाह देहली तख्त पर विराजमान था।जागीर में बयाना सिद्धपाल यादव को दे दिया।प्रतापरुद्र से तिमनगढ़ भी ले लिया।प्रतापरुद्र का अधिकार केवल उंटगिरी पर ही था।उसने करौली तथा उंटगिर पर भी कब्जा रखा।देवगढ़ यानी देवगिरि भी इनके कब्जे में रहा।इसी उधेड़ बुन में किसी ने सुल्तान का ध्यान इधर नहीं आया।आस -पास के सुवेदार ही लड़ते रहे।अहमद खां नाम के मुसलमान ने बयाना पर कब्जा ले लिया ।इनका देहान्त सन 1450, विक्रम संवत 1505 के लगभग हो गया ।इनके तीन विवाह (पंवार जी , सिसोदिया जी , बड़गुजर जी )हुए ।तीन पुत्र हुए।
1-चन्द्रसेन-- महाराजा प्रतापरुद्र के देहांत के बाद इनका राज्यभिषेक देवगिरि में संवत 1506 ई0 1499 सन हिजरी 856 में हुआ।ये धर्मात्मा गोपाल जी का भजन करते थे ।
2-सुन्दरसहाय--ये रामठरा विराजे ।इनके वंशज सहाय के जादों कहलाये।
3-रतीभान-- ये गांव करसाई रहे ।इनके वंशज उचइया , गणेशिया जादों कहलाते है।इनके अब भी वंशज करौली में छीपीयों के मांठ के पास है ।
संदर्भ--
1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली -जिला करौली
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं
करौली )स्टेट्स -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
14-यदुवंश -गंगा सिंह
15-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
16-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली ।
17-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा ।
18-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता ।
19-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग ।
20-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन ।
21-करौली पोथी ।
22-करौली ख्यात ।
23-ग्वालियर के तंवर -लेखक हरिहरप्रसाद द्विवेदी ।
24-जाटों का नवीन इतिहास -लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ।
25-जाटों का नया इतिहास -लेखक धर्मेंचन्द्र विद्यासंकर ।
26- मुंशी अकबर अली बेग कृत तवारीख -ए-करौली ।
लेखक -डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लाढोता ,सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि मृदा विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राज
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