दास्ताने यदुवंशी राज्य करौली--

दास्ताने यदुवंशी राज्य करौली -----

राजस्थान में जैसलमेर के अलावा यदुवंशी क्षत्रियों का दूसरा राज्य था करौली। करौली के यदुवंश का मूल पुरुष विजयपाल था,जिसने सन 1040 में अपने राज्य की राजधानी मथुरा से हटाकर विजय-मंदिर गढ़ ( बयाना) में स्थापित की। सन् 1196 में शहाबुद्दीन गोरी ने विजयपाल के वंशज कंवरपाल से बयाना और तबनगढ़ छीन लिये फलस्वरूप कंवरपाल रीवा की ओर चला गया। इस कंवरपाल के वंशज अर्जुनपाल ने लगभग 150 वर्ष बाद अपने पूर्वजों के इलाके पर पुनः अधिकार किया । उसने सन् 1348 में करौली की नींव रखी और उसे अपनी राजधानी बनाया ।

मुगलों की अधीनता

मुगल सम्राट् अकबर के समय करौली के महाराजा गोपालदास ( प्रथम ) ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। गोपालदास ने मुगलों की ओर से लड़ते हुए दौलताबाद के युद्ध में बड़ी वीरता दिखाई जिससे प्रसन्न होकर अकबर ने उसे दो हजारी मनसब और नक्कारा प्रदान किया । गोपालदास ने अपने राज्यकाल में मासलपुर के इलाके को अधिकार में कर अपने राज्य का विस्तार किया। उसने बहादुरपुर के मीणों उपद्रव को दबाने में सफलता प्राप्त की। वह सन् १५८६ में मर गया ।

गोपालदास (प्रथम) के १३५ वर्ष बाद इसी नाम से गोपालसिंह   करौली का एक शासक हुआ जिसका नाम उल्लेखनीय है । वह सन् १७२४ में गद्दी पर बैठा। उसने मुक्तावत और सरमथुरा के यादवों को अपने लघीन कर लिया। उसने ग्वालियर के निकट सिकरवार की पहाड़ी तक अपने राज्य का विस्तार किया। उनने राजधानी के चारों ओर लाल पत्थर का परकोटा बनवाया । उसने अपनी बहन की शादी जयपुर के सवाई जयसिंह से कर अपनी स्थिति मजबूत की। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने उसे 'माही मरातिव' प्रदान किया। उसके राज्यकाल में राजस्थान के विभिन्न राज्यों में मराठों के घावे और लूटपाट शुरू हो गई थी। परंतु उसने मराठों को समय-समय पर घोड़ा-बहुत खिराज देकर उनके घावों से राज्य की जनता की रक्षा की। वह १३ मार्च, १७५७ को निःसंतान मर गया ।

गोपालदास सिंह के स्थान पर तुरसमपाल गद्दी पर बैठा। उसके राज्य काल में शिकरवार खांप के बड़गूजरों ने विद्रोह कर करौली पर अधिकार कर लिया। परंतु तुरसमपाल ने कुवारी नदी के किनारे नापरी गांव पर हुई लड़ाई में सिकरवारों को हरा कर पुनः करौली पर अधिकार जमा लिया ।

मराठों के आक्रमण

तुरसमपाल के स्थान पर उसका ज्येष्ठ पुत्र मानकपाल सन् १७७२ में करौली का स्वामी वना ।इसके राज्यकाल में रोडजी सिंधिया ने करोली पर आक्रमण किया पर मानकपाल ने उसे परास्त कर दिया। रोडजी स्वयं युद्ध में मारा गया। परंतु कुछ समय बाद मराठों ने राज्य पर फिर आक्रमण किया और सबलगढ़  पर अधिकार कर लिया। मानकपाल का अधिकतर समय गृह कलह में ही बीता। उसकी अपने बड़े लड़के अमोलकपाल से सदा अनवन रही। इस गृह कलह के बीच ही पिता एवं पुत्र दोनों ही सन् १८०४ में चल बसे

अंग्रेजों से संधि

मानकपाल के स्थान पर उसका छोटा पुत्र हरवक्षपाल गद्दी पर बैठा । सन् १८१२ में मराठों ने करोली पर आक्रमण किया। मानकपाल द्वारा २५ हजार रुपये वार्षिक खिराज देने का वादा करने पर दोनों के बीच संधि हुई कुछ समय बाद हरवक्षपाल को खिराज के एवज में मांसलपुर व अन्य गांव मराठों को सौंपने पड़े ।मराठों से तंग आकर हवक्षपाल ने 8 नवंबर १८१७ को एक अहदनामे द्वारा अंग्रेजों की मातहती स्वीकार कर ली। अंग्रेजों ने इस संधि के फलस्वरूप मराठों से मासलपुर वापस महाराजा को दिला दिया। सन् १८२५ में उक्त संधि के बावजूद हरवक्षपाल ने अंग्रेजों के विरुद्ध भरतपुर के दुर्जनशाल को सहायता दी। इस पर अंग्रेज हरवक्षपाल से नाराज हो गए । परंतु उसके माफी मांग लेने से अंग्रेजों ने मामला वहीं समाप्त कर दिया। वह सन् १८३२ में निःसंतान मर गया

हरबक्षपाल की मृत्यु पर हाड़ौती ठिकाने का प्रतापपाल करौली की गद्दी पर बैठा । हरवक्षपाल की विधवा रानी ने प्रतापपाल का विरोध किया। पर अंग्रेजों ने प्रतापपाल को करौली का राजा स्वीकार कर लिया। हरवक्षपाल की पत्नी और मां करौली छोड़कर भरतपुर चले गए। राज्य के सरदारों में दो दल हो गए। एक राजा के पक्ष में और दूसरा राजमाता के पक्ष में । अंग्रेजों ने इस झगड़े को सुलझाने के कई प्रयत्न किए पर कोई नतीजा नहीं निकला प्रतापपाल इस गृह कलह के बीच सन् १६४६ में मर गया ।

प्रतापपाल के कोई पुत्र नहीं था । अतः उसके स्थान पर हाड़ौती के नरसिंह पाल को गद्दी पर बैठाया गया। उस समय वह नाबालिग था । अतः अंग्रेज सरकार ने एक अंग्रेज अधिकारी को राज्य का व्यवस्थापक नियुक्त किया। उसने कड़ाई के साथ राज्य में न्याय और व्यवस्था कायम की। नरसिंहपाल वालिग होने के पूर्व ही सन् १८५२ में मर गया ।

उत्तराधिकारी का प्रश्न

नरसिंहपाल की मृत्यु के साथ ही साथ राज्य में एक राजनीतिक संकट खड़ा हो गया । नरसिंहपाल ने अपने जीते-जी एक निकट कुटुंबी भरतपाल को गोद ले लिया था परंतु अंग्रेजी गवर्नर-जनरल डलहौजी ने देशी राज्यों में गोद की प्रथा को समाप्त कर दिया था। अतः डलहोजी ने करौली को अंग्रेजी राज्य में मिलाने का निर्णय दिया । परंतु गवर्नर जनरल की परिषद् के दो प्रभावशाली सदस्यों ने डलहोजी के निर्णय का विरोध किया। मामला लंदन तक गया जिसने करोली राज्य के गोद लेने का हक स्वीकार कर लिया। इसी बीच करौली के राज्य के लिए महाराजा के एक अन्य कुटुंबी मदनपाल ने दावा किया। इस पर गवर्नर-जनरल ने भरतपुर, धौलपुर, अलवर और जयपुर के महाराजाओं से सम्मति ली। उन्होंने सर्व सम्मति से मदन पाल को करौली की गद्दी का हकदार ठहराया। फलतः मदनलाल १४ मार्च १८५४ को करोली की गद्दी पर बैठाया गया। सारे देश में करौली के प्रश्न को लेकर लगा तार तीन साल तक बड़ी चर्चा रही। स्वयं करोली राज्य में अंग्रेजों की नीति के विरुद्ध आंदोलन हुआ

करौली और गदर

सन् १८५७ के गदर में कोटा राज्य की सेना ने कोटा महाराव को कैद कर लिया था। महाराव ने करौली महाराजा से सहायता की प्रार्थना की। महाराजा ने मलूकपाल के नेतृत्व में एक हजार सेना भेजकर महाराव को वागियों के हाथ से छुड़ाया। बाद में अंग्रेज सेना भी कोटा पहुंच गई। दोनों सेनाओं ने मिलकर विद्रो हियों का सफाया कर दिया। मदनपाल की इस सहायता से प्रसन्न होकर अंग्रेजों ने छोटी-सी रियासत के मालिक मदनपाल को जी० सी० एस० आई० की उपाधि दी। उसकी तोपों की सलामी १५ से १७ कर दी एवं राज्य में बकाया ऋण माफ कर दिया मदनपाल सन् १८६९ में मर गया ।

अंग्रेजों का दखल

मदनपाल के कोई पुत्र नहीं था । अतः उसके स्थान पर उसका भतीजा लक्ष्मण पाल गद्दी पर बैठा। पर वह एक माह बाद ही चल बसा। उसके स्थान पर हाड़ोती का जयपालसिंह गोद आया । वह भी केवल ६ वर्ष राज्य कर नवंबर, १८७५ में मर गया । जयपालसिंह के कोई पुत्र नहीं होने से हाड़ोती के अर्जुनपाल को करौली को गद्दी पर बैठाया गया । उसके समय में कुप्रबंध के कारण राज्य का शासन प्रबंध उसके हाथ से छीनकर एक अंग्रेज अधिकारी को सौंप दिया गया। महाराजा दिसंबर १८८६ में निःसंतान मर गया । अर्जुनपाल के स्थान पर उसका भतीजा भँवरपाल गद्दी पर बैठा। उसने ४९ वर्ष राज्य किया। वह शेर के शिकार का बड़ा शौकीन था । उसने ३०० शेर मारे। पर इसके राज्यकाल में राज्य पर कर्जा बहुत अधिक हो गया । अतः करौली का शासन प्रबंध सन् १९०६ से १६१७ तक अंग्रेजों के हाथ में रहा। वह अगस्त, १९२७ में मर गया।

भंवरपाल के स्थान पर उसका भाई भोमपाल गद्दी पर बैठा। उसके राज्य काल में कु० मदनसिंह ने बेगार प्रथा, खेती की रक्षा के लिए सुअर मारने की स्वतंत्रता एवं उर्दू के बजाय हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए आंदोलन किया। उसने अपनी पत्नी के साथ भूख हड़ताल शुरू की। राज्य ने उसकी मांगें स्वीकार कर लीं। मदन सिंह अगस्त, १९२७ में राज्य में हैजे से पीड़ित हरिजन लोगों की सेवा करते हुए खुद भी हैजे का शिकार हो गया और मर गया। यद्यपि करौली राज्य में कभी कोई संगठित राजनीतिक आंदोलन नहीं चला तथापि समय-समय पर व्यक्तिगत रूप से कई कार्यकर्ताओं ने कष्ट झेलकर राज्य में सामाजिक और राजनीतिक चेतना पैदा करने का प्रयत्न किया । इन व्यक्तियों में मुंशी त्रिलोकचंद माथुर, ठाकुर ओंकार सिंह, कल्याणप्रसाद गुप्ता, कृष्णप्रसाद भटनागर, भंवरलाल कवि और चिरंजीलाल शर्मा आदि मुख्य थे।

मुंशी त्रिलोकचंद माथुर ने सन् १९३८ में करौली राज्य सेवक संघ की स्थापना की । माथुर संघ को अपनी प्रवृत्तियों का आधार बनाकर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में उतरा। सितंबर, १९३८ में माथुर ने स्थानीय कांग्रेस की स्थापना की। उन निदों प्रांतीय कांग्रेस कमेटी अजमेर में अखाड़ेबाजी चल रही थी माथुर ने स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ताओं को इन झगड़ों से अलग रखा। अप्रैल, १९३६ में माथुर ने प्रजा मंडल की स्थापना की। उसी माह प्रजामंडल की एक बैठक हुई, जिसमें राज्य में शासन सुधार करने, सहकारी समितियां स्थापित करने, किसानों को अपनी जमीन पर मौरूसी हक देने एवं बेगार प्रथा समाप्त करने आदि विषयों पर प्रस्ताव स्वीकार किये गये ।" माथुर ने ३० नवंबर, ३९३६ को पूर्वी राजपूताना के राज्यों का एक राजनीतिक सम्मेलन मथुरा में किया जिसका वह संयोजक था। जुलाई, १९४० में माथुर प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव भी बन गया था। इसके बाद उसका स्वास्थ्य निरंतर खराव होता गया और वह कुछ समय बाद मर गया ।

१९४२ की अगस्त क्रांति में कल्याणप्रसाद गुप्ता को भारत-रक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया और उसे ३ माह बाद जेल से रिहा किया गया। उस वर्ष करौली के कई नवयुवकों ने भूमिगत रहकर कार्य किया। रत्नाकर भारती और उसके साथियों ने तो जयपुर के मानप्रकाश सिनेमाघर में बम विस्फोट करने का प्रयत्न किया पर उन्हें सफलता नहीं मिली। कुछ दिन बाद यह मंडली पकड़ी गई। पर जुर्म साबित नहीं होने से उन्हें छोड़ दिया गया। प्रजामंडल की गतिविधियों ने १९४६ में जोर पकड़ा, जब चिरंजीलाल शर्मा अखिल भारतीय चर्खा संघ का कार्य अस्थायी रूप से छोड़कर पुनः करौली आया । शर्मा ने प्रजामंडल पत्रिका भी निकाली। वह दो वर्ष तक लगातार प्रजामंडल का अध्यक्ष रहा। इसी बीच महाराजा भोमपाल का देहांत हो गया । उसके स्थान पर उसका पुत्र गणेशपाल गद्दी पर बैठा।

करौली का विलय

१५ अगस्त, १९४७ को देश आजाद हुआ और इसके साथ उसका विभाजन भी। केंद्र में पं० नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनी। सरदार वल्लभभाई पटेल गृह एवं रियासती विभाग के मंत्री बने । करौली महाराजा गणेशपाल विना किसी हील वाले के तुरंत भारतीय संघ में शामिल हो गया। पटेल की दूरदर्शिता की बदौलत देशी राज्यों का या तो एकीकरण कर दिया गया अथवा उन्हें पड़ोसी प्रांतों में मिला दिया गया। इसी नीति के फलस्वरूप अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली को मिलाकर १८ मार्च १९४८ में मत्स्य संघ का निर्माण किया गया। यह इस संघ का १५ मई १९४६ को राजस्थान में विलय कर दिया गया। विलय के समय करोली राज्य का क्षेत्रफल ३४७५ वर्ग किलोमीटर, बावादी १,७०,००० और वार्षिक लगभग १० लाख थी।

संदर्भ

1 कवि जदुनाथ वृत विलास , ओझा निबन्ध संग्रह पृष्ठ  1-5 ।
2-डा0  दशरथ शर्मा, राजस्थान थ्रू द एजेज , पृष्ठ 561 ।

3-डॉ० ओझा , ओझा निबन्ध संग्रह , भाग- 3 ,पृष्ठ 1-2 "कुंवरपाल कुमारपाल का अपभ्रंश नाम है "।

4-करौली राज्य की ख्यात (टंकित  प्रति ), पृष्ठ  5 ।

5-डॉ० दशरथ शर्मा, राजस्थान थ्रू  द एजेज,  पृष्ठ  143 ।

6-दामोदर लाल गर्ग, करौली इतिहास के झरोखे से , पृष्ठ  30-31

7-गहलोत, राजपूताने का इतिहास भाग  प्रथम , पृष्ठ  579 ।
8-दामोदर लाल गर्ग, करौली इतिहास के झरोखे से करौली से ,पृष्ठ 35-36 ।

9-डॉ० के.सी. जैन, ऐन्शियन्ट सिटीज एण्ड टाउन्स ऑफ राजस्थान, पृष्ठ 57।
10- गोपीनाथ शर्मा, राजस्थान का इतिहास 1978.पृष्ठ  104।
11-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
12-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
13-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा 
14-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
15-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी 
16-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
17-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी 
18-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली 
19-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
20-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास 
21-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं 
करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
22-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
23-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र 
24-यदुवंश -गंगा सिंह
25-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
26-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली
27-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा
28-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता
29-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग
30-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन
31-बयाना-ऐ कांसेप्ट ऑफ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी -डा0 राजीव बरगोती
32-प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह
33-आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60--कनिंघम
34-रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.--कनिंघम
35-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.
36--राजस्थान का जैन साहित्य 1977 
37-जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक 
38-,राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा 
39-हिस्ट्री ऑफ जैनिज़्म -कैलाश चन्द जैन ।
40-ताहनगढ़ फोर्ट :एक ऐतिहासिक  सर्वेक्षण -डा0 विनोदकुमार सिंह 
41-तवारीख -ए -करौली -मुंशी अली बेग 
42-करौली ख्यात एवं पोथी अप्रकाशित ।

लेखक--– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन  
गांव-लाढोता, सासनी 
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश 
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001




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