श्रीपथा (बयाना ) थी यदुवंशी सूरसेन शासकों की प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी--

 श्रीपथा (बयाना )  यदुवंशी  सूरसेन शासकों की एक प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी--

इस पौराणिक नगर को इस देश का दूसरा कुरुक्षेत्र कह सकते हैं। जहाँ आरम्भ से ही खूनी खेलों की आँधियाँ चलती  रही , जिसके कारण यहाँ की ज्यादातर भूमि हड्डियों  के ढेरों  को अपने गर्भ में समेटे हुए है। भागवत और विष्णुपुराणों के अनुसार यह क्षेत्र पौराणिक काल में राक्षसराज वाणासुर  की राजधानी के रूप में ख्याति प्राप्त रहा। उस समय इसका नाम शोणितपुर था।

इस बाणासुर की लड़की ऊषा का विवाह श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध से हुआ। उसी की सहेली  बाणासुर के मंत्री कुम्भाड की लड़की चित्रलेखा ने यहाँ पर ऊषा मंदिर बनवाया जिसका अनेकों बार हुआ परिवर्तित रूप आज प्राचीन बयाना के अन्दर स्थित है। सूर्य उपासना हेतु बनाई मीनार  ( ऊषामीनार) भी इसी देवालय के निकट है जिसे इतिहासी पृष्ठों में मुस्लिम निर्माण घोषित किया हुआ है। श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर को यहाँ से खदेड़ दिये जाने के बाद इस नगर को श्रीपथ , श्रीप्रस्थ तथा श्रीपुर जैसे पावन नामों से सम्बोधित किया गया। कुछ ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं  जिनमें इस नगर को शान्तिपुरा के नाम से पुकारा गया।

प्राचीनकाल में यह नगर चतुर्दिक प्राचीरों से सुरक्षित रहा जिसमें प्रवेश हेतु चार दरवाजे  भी थे जिनमें से एक दरवाजा आज भी अपनी सुदृढ़ता के साथ तहसील परिसर के पास सड़क  मार्ग पर अवस्थित है जिसे स्थानीय लोग अज्ञानता के कारण जहांगीर दरवाजे के नाम से पुकारते हैं। । यह नगर कभी धनाढ्य वस्ती  के साथ देवमंदिरों की बस्ती  रही, साथ ही यहाँ के असंख्य बाग शहर को प्राकृतिक सुखद वातावरण से दीर्घायुवान बनाये हुए रहे। विदेशी आक्रांताओं के इस  क्षेत्र में आने के साथ ही यहाँ का वैभव नष्ट  होता गया , अन्त  में मुस्लिम नगरी में परिवर्तित कर दिया  गया। उषा  मंदिर में सम्राट महीपाल के समय का सेन वंश के राजा लक्षमण सेन की धर्मपत्नी  का एक शिलालेख लगा हुआ है जिस पर निर्माण काल 956 ई. अंकित है । बयाना पर महाराजा विजयपाल यदुवंशी से पूर्व अनेकों जातियों का वर्चस्व रहा।
यदु वंश में महाराजा विजयपाल बड़े पराक्रमी , धीर ,वीर एवं गंभीर शासक हुए हैं ।इनकी प्रखर तलवार का सामना करने वाला उस समय कोई राजा नहीं था।जिनके नाम से नल नामक कवि ने विजयपाल रासो ग्रन्थ की रचना की जिसके 42 छन्द पाए जाते हैं।इन छन्दों की भाषा प्राचीन है ।नल सिंह कवि /भाट के वंशज अब भी साधन नामक गाँव में विद्यमान हैं जो अछनेरा के पास आगरा जनपद में आता है।इनके विषय में कहा जाता है कि इन्होंने गुजरात ,तेलगुदेशम ,भूटान ,तथा नेपाल के राज्यों को भी अपने राज्य में सम्मलित कर लिया था।विजयपाल बड़े ही प्रतापी राजा थे।विजयपाल रासो के अनुसार उस ग्रन्थ में महाराजा विजयपाल द्वारा लड़े गये 31 युद्धों का वर्णन अंकित है ।  ऐसी किवदन्ति है कि जब नल कवि ने उक्त रासो बना कर महाराजा को सुनाया  गया  तो उसे सुन कर महाराजा विजयपाल ने कवि नल को पुरस्कार स्वरूप तीन लाख की वार्षिक आय का हिण्डौन परगना तथा काफी धन ,गहने ,आभूषण आदि दिए।

1 महराजा  विजयपाल विक्रम संवत  1057 /सन 1000 ई0  में पुष्कर स्नान को गये उस समय पृथ्वी राज चौहान के पिता सोमेश्वर चौहान का राज्य तारागढ़ में था। विजयपाल का सोमेश्वर चौहान के द्वारा आदर-सरकार नहीं करने के कार विजयपाल के फौजी लवाजगे के (सैनिकों की टुकडी) द्वारा युद्ध की घोषणा कर दी और सोमेश्वर को हटाकर तारा आधिपत्य किया।

यदुवंशी व सूरसेन के राज्य में पूर्व भरतपुर राज्य और मथुरा जिला सम्मिलित थे । अनुश्रुतियों से ज्ञात जैतपाल (जयेन्द्र पाल ) ग्यारहवीं सदी के पूर्व अर्धभाग में रखा जा सकता है। उसका उत्तराधिकारी 1044 ई. के बयाना अभिलेख में उल्लेखित विजयपाल था । उसका उत्तराधिकारी तहनपाल था जिसके पश्चात् क्रमशः धर्मपाल, कुंवरपाल और अजयपाल (1150 ई.) हुए। अजयपाल का उत्तराधिकारी हरिपाल था। हरिपाल का उत्तराधिकारी सहनपालदेव (1192 ई०) हुआ। सहनपाल का उत्तराधिकारी कुंवरपाल ज्ञात होता है । कुंवरपाल के पश्चात् अनंगपाल गद्दी पर बैठा। अनंगपाल के पश्चात् क्रमशः पृथ्वीपाल , राज्यपाल और त्रिलोकपाल उत्तराधिकारी हुए। अंतिम को तेरहवीं सदी में रखा जा सकता है ।

यदुवंशी सूरसेन शासक जैन धर्म के अनुयायी थे ---

सूरसेन छठी से बारहवीं सदी ई. तक उस क्षेत्र में राज्य करते थे जिसमें भरतपुर जिला और मथुरा जिला सम्मिलित थे। जैन धर्म इस समय यहां पर बहुत फला-फूला। कुछ सूरसेन राजाओं ने इस धर्म को स्वीकार किया, और इसको प्रोत्साहन दिया। यहां अनेक जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा होने का पता चलता है। जैन आचार्यों ने यहां की यात्राएँ कीं और इनमें से कुछ ने इसको अपना निवास भी बनाया।
शोध से यह ज्ञात होता है कि महावन के यदुवंशी शासक अजयपाल देवा (ई0 1150) तथा बयाना -तिमनगढ़ के यादव शासक कुंवरपाल (ई0 सन 1196) भी जैन धर्म के अनुयायी थे।ताहनगढ़ दुर्ग में विद्यमान जैन मूर्तियां इस तथ्य की पुष्टि भी करती हैं।
प्राचीन समय में जैन धर्म मथुरा में प्रचलित था, इसका अस्तित्व इस युग में भी रहा। यहां पर जैन धर्म का सबसे प्राचीन चिह्न दसवीं सदी में मिलता है। प्रद्युम्नसूरि मेवाड़ के राजा अल्लट का समकालीन था, और उसका सपादलक्ष और त्रिभुवनगिरि की राजसभाओं में सम्मान होता था (1)। प्रद्युम्नसूरि के शिष्य अभयदेव सूरि द्वारा घनेश्वर सूरि को दीक्षित किया गया। त्रिभुवनगिरि का कर्दमभूपति धनेश्वर सूरि के समान प्रसिद्ध था । कर्दम उसका नाम था या उपाधि इसकी जानकारी नहीं है। उसने राजगच्छ की स्थापना की। वह मालवा के मुंज राजा का समकालीन कहा जाता है जिसकी मृत्यु 997 ई. में हुई (2)। इस कर्दमभूपति की पहचान 1155 ई. के अनंगपाल देव के ठाकरड़ा (डूंगरपुर) अभिलेख में उल्लेखित राजा पृथ्वीपाल देव उपनाम भत्रिपिट्ट से की जा सकती है(3)। इस अभिलेख में चार राजाओं के नाम हैं जैसे पृथ्वीपाल देव उपनाम भर्त्रिपट्ट, उसका पुत्र त्रिभुवनपाल देव, उसका पुत्र विजयपाल और उसका पुत्र सूरपाल देव जिस वंश के वे थे, उसका उल्लेख नहीं है किन्तु वे सूरसेन राजा जान पड़ते हैं। बयाना की जिन मूर्ति के 994 ई. के अभिलेख में उल्लेखित है कि वे बागड संघ के उपदेशों से तीन भाई सिंहक, यशोराज और नोन्नक द्वारा निर्मित करवाई गईं(4)। 994 ई. का जैन मूर्ति का पाद पीठ का अभिलेख और बिना मस्तक की महावीर की जैन मूर्ति का 1004 ई. का अभिलेख कटरा से प्राप्त हुए हैं(5)।
जैन धर्म का ऐतिहासिक महत्त्व
दिगम्बर जैन कवि दुर्गदेव ने कुंभनगर के शान्तिनाथ के रमणीय मन्दिर में 1032 ई. में रिष्टसमुच्चय को पूरा किया जब लक्ष्मीनिवास राज्य करता था (6)। कुंभनगर की पहचान भरतपुर के समीप कामा से की जा सकती है। जहां तक राजा लक्ष्मीनिवास का प्रश्न है, उसकी पहचान वि.सं. 1012 के बयाना के अभिलेख (7) में उल्लेखित चित्रलेखा के पुत्र लक्ष्मणराज से की जा सकती है। बयाना के 1043 ई. के अभिलेख में श्वेताम्बरों के काम्यक- गच्छ के जैन आचार्य विष्णसूरि और महेश्वर सूरि के नाम हैं, और यह अभिलेख विजयपाल राजा के राज्य में महेश्वर सूरि की मृत्यु का उल्लेख करता है (8)। विजयपाल ने दुर्ग को फिर से बनवाया और उसमें परिवर्धन किया तथा अपने नाम पर उसका नाम विजयगढ़ रखा। काम्यकगच्छ की उत्पत्ति भरतपुर जिले के कामा से हुई और वह इस क्षेत्र तक ही सीमित रहा। अभिलेख में श्रीपथा नगर के उल्लेख से ज्ञात होता है कि बयाना का प्राचीन संस्कृत नाम श्रीपथा था। 1136 ई. के जैन अभिलेख की मूर्तियां बयाना तहसील के नरोली से प्राप्त हुई हैं (9) ।इन मूर्तियों से सिद्ध होता है कि इन सबका प्रतिष्ठा समारोह एक समय पर हुआ था।

बयाना का अंतिम सूरसेन राजा कुमारपाल था जो 1154 ई. में राजगद्दी पर बैठा। साधु जिनदत्त सूरि ने उसको उपदेश दिया। शांतिनाथ के मन्दिर पर स्वर्ण कलश जैन और ध्वज रखने का समारोह जिनदत्त सूरि द्वारा आनन्द से मनाया गया (10)।जिनपति सूरि के दो शिष्य जिनपाल गणि और धर्मशील गणि इस स्थान के यशोभद्राचार्य के पास अध्ययन किया करते थे। जिनपति सूरि से सूचना प्राप्त करने पर त्रिभुवनगिरि के साथ यात्रा को गये, और अन्य संघ के साथ अपने आचार्य से 1188 ई. में मिले (11) वादिदेव सूरि ने, जो बारहवीं सदी के उत्तर अर्धभाग में रहता था, त्रिभुवनगिरि के दुर्ग में किसी योग्य विद्वान् को हराया (12)। एक उपकेशगच्छ का मन्दिर भी वहां था (13) ।इन तथ्यों से ज्ञात होता है कि सूरसेनों के समय इस क्षेत्र में जैन धर्म की उन्नति हो रही थी।

संदर्भ--

1. पीटरसन्स रिपोर्ट्स 3. पृ. 158-162.

2. जैन साहित्यों का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 197-98

3. ए. रि. रा. म्यू.अ., 1915-16, पृ. 3.

4. प्रो.रि.अ.स. के. स. 1909-10. पृ. 52.

5. ए. रि. रा. म्यू.अ. 1909-10, सं. 1. 2.

6.सि. जै. सिं., जिल्द 21 (इंट्रोडक्शन).

7. एपि. इंडि XXII, पृ. 120.

8. इंडि. एंटी XXII, पृ. 57.

9. प्रो.रि.आ.स. वे.स. 1920-21, पृ. 116.

10.खरतरगच्छ बृहद् गुरूवावली, पृ. 19.

11. वही, पृ. 34.

12.भारतीय विद्या, जिल्द 2. पार्ट 1, पृ. 62.

13.वही.

लेखक--– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लाढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001

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