सूने ब्रज में प्रकाश पुंज बनकर आए थे यदुकुल के पुनःसंस्थापक एवं ब्रज के पुनः निर्माता श्रीकृष्ण के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ जी –

सूने ब्रज में प्रकाश पुंज बनकर आए थे यदुकुल के पुनःसंस्थापक एवं ब्रज के पुनः निर्माता श्रीकृष्ण के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ जी –––––––
  मुक्ति कहै गोपाल सों मेरी मुक्ति बताय ।
ब्रज रज  उड़ि मस्तक लगै ,मुक्ति मुक्त है जाय ।।
ब्रज की पावन पवित्र रज में मुक्ति भी मुक्त हो जाती है ।ऐसी महिमामयी है ये धरा ।ब्रज वसुधा को जगत अधीश्वर  भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी लीलाओं से सरसाया ।"ब्रज "शब्द का अर्थ है व्याप्ति ।इस व्रद्ध वचन्  के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का नाम "ब्रज "पड़ा है ।सत्व ,रज ,तम इन तीनों गुणों से अतीत जो परमब्रह्म है ।वही व्यापक है ।इस लिए उसे "व्रज"कहते है । भगवान् श्री कृष्ण को नमन करते हुए अब मै उनके वंश यदुकुल के प्रवर्तक महाराज वज्रनाभ के इतिहास का वर्णन करने की कोसिस कर रहा हूँ
प्रयाग से मथुरा और मथुरा से द्वारिका में यदुवंशियों (पौराणिक यादव राजपूत )का पलायन ------सर्व प्रथम यदुवंशियों का राज्य प्रयाग में था ।इसके बाद यदुवंशियों का राज्य मथुरा हुआ जिसके राजा उग्रसेन थे ।जब भगवन कृष्ण ने अपने मामा कंस को मार डाला।तो इससे कंस के ससुर मगध नरेश जरासंध ने 17 बार मथुरा पर वि आक्रमण किये।इसके बाद श्री कृष्ण पर कालयवन ने भी चढ़ाई की ।यह देख श्री कृष्ण ने सोचा कि यदि इस समय पर कहीं फिर जरासंध चढ़ आया तो यादववंशी व्यर्थ मारे जाएंगे ।इससे वे अपने सभी यदुवंशी बंधुओं सहित मय परिवारों के द्वारिका (गुजरात )चले गये ।वहां समुद्र से 12 योजन भूमि माँगी और उसमे द्वारिकापुरी का निर्माण करवाया ।
कैसे हुआ यदुकुल पतन ––––जब दुर्वासा आदि ऋषियों के शाप से जामवंतीनंदन शाम्ब के पेट से जो मूसल निकला उसको पीस कर समुद्र में फेंक दिया गया।उसका एरक बन गया।उसे एक मछली निगल गई। उसे एक व्याध ने पकड़ा और और उसके पेट से शिकारी को एक तीर के आकार का टुकड़ा मिला। इससे व्याध ने एक अच्छा सा तीर बना लिया।इसके बाद व्याध ने द्वारिका में उत्पात मचाया।इधर श्रीकृष्ण जी ने उद्धव को समझा कर बद्रिकाश्रम नामक वन में भेज दिया।द्वारिका के सारे निवासियों ने आकर श्रीकृष्ण से गुहार  की कि नगर में उत्पात बढ़ गए है।भगबान तो सबकुछ जानते थे।अब यदुकुल के नाश होने का समय आगया है।सभी यादव द्वारिका के पास वाले प्रभास क्षेत्र तीर्थ पर जमा हुए।कृष्ण के आदेश से सभी यादवों ने उस जगह स्नान और दान कर्म संपन्न किय और मनोरंजन के लिए मधपान की सभा लगी।उस वारुणी या मैरेयक नामक मदिरा का पान करके सभी यादव प्रभास क्षेत्र में आपस में लड़ने लगे।यधपि श्रीकृष्ण जी ने उन्हें बहुत रोका  समझाया पर वे नही माने।तब श्री कृष्ण ने क्रोध कर एरक की गटर तोड़ी।इससे वे तीर लोहे के मूसल में बदल गए जिसने बाद में उछल उछल कर यदुवंशियों का संहार कर दिया।एक वृक्षके  नीचे बलदेव जी ने अपने नर रूप  आवरण को उतार फेंका अर्थात्  शेषनाग के रूप में निकले और  जा कर  समुद्र  में प्रवेश  कर गए।इस प्रकार समुद्र के जल मार्ग से शेषावतार बलदेव जी अपने नगर को चले गए।इस  प्रकार  बलदेव जी का अपने लोकमे जाना देख कर भगबान श्रीकृष्ण ने अपने सारथी दारुक  को बुलाया और कहा कि हे दारुक  तुम द्वारिका  में हमारे माता -पिता से कहना  की बलदेबऔर यादव कुल का  नाश हो गया हैऔर मै भी अब योग विद्या के बल  पर अपनी मानव देह को त्याग दूंगा।हाँ यह अवश्य कहना  क़ि अर्जुन तुम्हारे पास आएगा उसके साथ  सभी यदुवंशी अपने परिवार वालों के साथ द्वारिका से बाहर चले जाय । मेरे घर पर  (द्वारिका नगरी ) नहीं रहने पर द्वारिका पूरी  को समुद्र लील  जाएगा।इस लिए आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा और करे  तथा अर्जुन के यंहा से लौटते  ही फिर कोई भी यादव  द्वारिका में नही रहे।ज सब लोग  अपनी अपनी धन ,संपत्ति ,कुटुम्ब और मेरे माता -पिता को लेकर अर्जुन के संरक्षण में इंद्रप्रस्थ चले जाय।दारुक तुम मेरी तरफ से अर्जुनसे कहना कि वह अपने सम्यानुसार  तुम मेरे परिवार के लोगों  की रक्षा करे।हमारे पीछे वज्र  यदुवंश का राजा होगा।सारे समाचार कहलवाने को श्रीकृष्ण  ने अपने सारथी दारुक को अच्छी तरह समझाकर  द्वारिकापुरी भेजा।इसके बादउन्होंने  अपनी नर देह  के त्याग का  विचार किया।माधव का   जैत्रम नामक रथ  अपने सैवयादि   अश्वों सहित  समुद्र में प्रवेश  कर अपने  घर  स्वर्ग को गया।इसके बाद सारे  अस्त्र जेसे सारंग धनुष ,नन्दक नामक खरग  ,गदा  सुदर्शन चक्र   पाञ्चजन्य  शंख    और  टीर्काश  सभी आयुध  श्री कृष्ण  जी की  प्रदक्षिणा कर आकाश मार्ग को   चले गए।  दारुक ने यदुवंशियो के नाश का समाचार  द्वारिका में  उग्रसेन एव् सभी बचे हुये यादवों को बताया।  श्री  कृष्ण जी अपने एक पांव पर  दूसरा रख कर  योगमुद्रा में बैठे  और ब्रहम् में  अपना   ध्यान    लीन  किया ही था कि  तभी  एक ज़रा नाम व्याध शिकारी आया और उसने भगबान के पांव तीर मारा जो सीधा  भगवान् श्री कृष्ण की पगतालि में जाकर लगा।भगबान एक सूंदर  विमान में बैठ कर स्वर्ग को चले गए। भगवान् श्री कृष्ण के न रहने पर समुद्र ने एक मात्र श्री कृष्ण जी के निवास स्थान को छोड़ कर एक ही क्षण में सारी द्वारिका डुबोदी ।इस दुखद समाचार को सुन कर यादवराज उग्रसेन और वसुदेव आदि सभी वयो व्रद्ध  यदुवंशी भगवान् श्री कृष्ण के वियोग को सहन नही कर सके और सभी ने अपने प्राण त्याग दिए । रोहिणी  , देवकी तथा सभी पटरानियों ने अग्नी में प्रवेश कर प्राण त्याग दिए।इसके बाद अर्जुन ने सभी मृत यादवों का दाहसंस्कार करके सोलह हजार एक सौ ललनाओं   के साथ   अनिरुद्ध के पुत्र वज्र  को लेकर इंद्रप्रस्थ  आये और सभी यादवों को पंचनद जिसको पंजाव कहते है में वसया ।
भगवान् श्री कृष्ण के तिरोधान के बाद ब्रजभूमि सूनी हो गयी थी ।जगत अधीश्वर कृष्ण की सभी लीला स्थलियां लुप्त होगयी ।तब उनके प्रपौत्र वज्रनाभ जी ब्रज में प्रकाश पुंज बनकर आये । वज्रनाभ को इंद्रप्रस्थ से लाकर मथुरा का राजा बनाया।वज्र की माता विद्भ्रराज रुक्मी की पौत्री थी जिनका नामरोचना  या सुभद्रा था।अनुरुद्ध जी की माता का नाम रुकंवती या  शुभांगी था जो रुक्मणी के भाई रुक्म की पुत्री थी।  वज्रनाभ जी ने माधव की लीलाओं से ब्रज चौरासी कोस को चमक दिया ।लीला स्थलियों पर समृति चिन्ह बन वा कर ब्रज को सजाने संवारने की पहल सर्व प्रथम वज्रनाभ जी ने ही की थी ।महाराज वज्रनाभ के पुत्रप्रतिवाहु  हुए उनके पुत्रसुवाहु। हुए  सुवाहऊ क  शांतसेन्।    शांतसेन्   से  शत्सन   हुए।वज्रनाभ ने शांडिल जी के आशीर्वाद से गोवर्धन( दीर्घपुर  ),  मथुरा ,  महावन , गोकुल    (नंदीग्राम  ) और वरसाना आदि छावनी बनाये।और उद्धव जी के उपदेशानुसार बहुत से गांव बसाये।उस समय मथुरा की आर्थिक दशा बहुत खराब थी।जरासंध ने सब कुछ  नष्ट कर दिया था।राजा परीक्षत ने इंद्रप्रस्थ से मथुरा में बहुत से बड़े बड़े सेठ लोग भेजे।इस प्रकार राजा परीक्षत की    मदद ओर महर्षि शांडिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने उन सभी स्थानों की खोज की जहाँ भगबान  ने अपने प्रेमी गोप गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलाएं की थीं।लीला स्थलों का ठीक  ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहां की लीला के अनुसार उस  स्थान का नामकरण किया।भगबान के लीला विग्रहों की स्थापना की तथा उन उन स्थानों पर अनेकों गांव वसाए।स्थान स्थान पर भगबान  श्री कृष्ण के नाम से कुण्ड   ओर कूए    व् वगीचे लगवाये।शिव आदि देवताओ की स्थापना की। गोविन्द , हरिदेव आदि नामो से भगवधि गृह स्थापित किये।इन सब शुभ कर्मों के द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सबओर एक मात्र श्री माधव भक्ति     का  प्रचार किया।इस प्रकार वजनाभ्  जी को ही मथुरा का पुनः संस्थापक के साथ -साथ यदुकुल पुनः प्रवर्तक भी माना जाता है ।इनसे ही समस्त यदुवंश का विस्तार हुआ माना जाता है।वज्रनाभ जी की ही बजह से ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा आरम्भ हुई।उन्होंने ही ब्रज में 4 प्रसिद्ध देव प्रतिमा स्थापित की।मथुरा में केशव देव ,वृंदावन में गोविन्ददेव ,गोवर्धन में हरि देव ,बलदेव में दाऊजी स्थापित किये थे ।
      भारतीय साहित्य एवं संस्कृति शोध् कर्ता डा0 अशोक वुश्वामित्र कौशिक के अनुसार वज्रनाभ जी का जन्म चैत शुक्ल प्रतिपदा युधिष्ठर संवत 27 को द्वारिका में हुआ और 10 वर्ष की आयु में ही संवत 38 को दिन के मध्यकाल में वह इंद्रप्रस्थ के सिंहासन पर विराजमान हुए थे ।जन्मतिथि के दिन ही वज्रनाभ जी का राज्याभिषेक हुआ था ।इस लिए वज्रनाभ जी को ही यदुकुलक पुनः संस्थापक एवं ब्रज का पुननिर्माता माना जाता है।ब्रज में ही यदुवंशियों के गाँव करहला में वज्रनाभ जी की समाधि है ।लगभग 2 वर्ष पूर्व मथुरा के छाता क्षेत्र के रन वारी गांव में यदुवंशी राजपूतों के द्वारा वज्रनाभ जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कराई गई है और प्रत्येक वर्ष उनकी जयंती भी समाज के द्वारा मनायी जाती है जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र है ।

भारत में मुसलमानों के आने के पहले यदुवंशियों का राज्य काठियावाड़ 'कच्छ ,राजपूताना ,मथुरा के आस पास का भाग (जो अब भरतपुर ,करौली ,धौलपुर ,गुणगांव ,आगरा और ग्वालियर  कहलाता है )तक फैला हुआ था ।यहां तक कि दक्षिण में भी इसके राज्य होने के प्रमाण प्राचीन शिलालेखों व् ताम्रपत्रों से मिलते है ।दक्षिण का सेउन प्रदेश जो नासिक से दौलताबाद (निजाम राज्य )तक का भू -भाग है ,वह भी किसी समय यादवों के अधिकार में था ।दक्षिण में द्वार समुद्र ,जो मैसूर राज्य के अंतर्गत है तथा विजयनगर (दक्षिण )यदुवंशी राजवंश के अधिकार में थे ।इनका प्रभुत्व सिंधु नदी के दक्षिणी भाग में तथा पंजाब में भी रहा था ।
     राजपूताने में करौली का वर्तमान राजवंश अपने को यादववंशी तथा मथुराकी शुरसेनी शाखा से निकला हुआ मानता है ।यदुवंशियों का राज्य जो पहले प्रयाग में था ,वह श्री कृष्ण के समय में ब्रज प्रदेश (मथुरा )में रहा ,ऐसा महाभारत व् भागवत से ज्ञात होता है ।श्री कृष्ण के दादा शूरसेन के पीछे मथुरा और उसके आस पास के प्रदेश का नाम "शूरसेन"पड़ा ।यहां की भाषा भी शुरसेनी नाम से प्रसिद्ध हुई ।श्री कृष्ण जी ने तो मगध नरेश जरासंध व् कालयवन के विरोध के कारण अपनी राजधानी मथुरा से हटा कर द्वारिका बना ली ।जब श्री कृष्ण जी की कूटनीति के कारण जरासंध व् कालयवन मारे गये तब यादवों ने फिर अपना सिर उंच्चा किया और मथुरा से स्वतंत्र हो गये कहने का अर्थ ये है कि पुनः मथुरा पर कब्ज़ा कर लिया ।इन यदुवंशि राजपूतों का राज्य ब्रजप्रदेश में ,सिकंदर के आक्रमण के समय में भी होना पाया जाता है ।समय समय पर शक ,मौर्य 'गुप्त और सीथियनों आदि ने यादव राजपूतों का राज्य दबाया लेकिन मौका पाते ही यदुवंशी फिर स्वतंत्र हो जाते थे । 
मथुरा से महमूद गजनवी के  आक्रमण के पूर्व पलायन ----- जब महमूद गजनवी ने सन् 1018 ई0 के आस पास मथुरा पर आक्रमण किया था उस समय महावन का यदुवंशी राजा कुलचंद था ।उसने गजनवी के साथ भयंकर युद्ध किया किन्तु अंत में हार का सामना करना पड़ा ।करौली यादव राजवंश का मूल पुरुष राजा बिजयपाल मथुरा के इसी यादव राजवंश से था ।जो बज्र नाभ जी के  ही इस यदु वंश  में  इनके  85 पीढ़ी बाद  मथुरा के राजा बने । वह  गजनवी के आक्रमणों के कारण पूर्व में ही अपनी राजधानी मथुरा से हटाकर पास की मानी पहाड़ी पर लेगये क्यों कि ये स्थान पर्वत श्रेणियों से घिरा रहने के कारण आक्रमणों से सुरक्षित था।उस समय मैदानों की राजधानियाँ सुरक्षित नहीं समझी जाती क्यों कि गजनी (कावुल )की तरफ से मुगलों के हमले होने शुरू हो गये थे। राजा बिजयपाल ने वहां एक किला "विजय मंदिर गढ़ "सन् 1040 में बनवाकर अपनी राजधानी स्थापित की ।यही किला बाद में बयानाके गढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।बिजयपाल को भगवान् श्री कृष्ण के 88 वीं पीढ़ी में होना बतलाया जाता है ।
कई बार हुआ बयाना एवं तिमनगढ़ से यदुवंशियों ( यादव राजपूतों  ) का बिभिन्न क्षेत्रों में पलायन----- 
प्रथम पलायन राजा बिजयपाल के बाद ---बयाना के राजा बिजयपाल का समय स0 1150 (ई0 सन् 1093के आस पास रहा होगा।उनकी मुठभेड़ गजनी के मुसलमानों से बयाना में हुई थी जिसमें उनकी मृत्यु होगयी थी ।उस समय बयाना पर मुगलों का अधिकार हो जाने के कारण काफी यादव राजपूत उत्तर की ओर पलायन कर गये । जिनमे मुख्य पलायन उस समय एटा जिले के जलेसर क्षेत्र और मध्य प्रदेश के होसंगावाद के शिवनी मालवा क्षेत्र 'एवं गोंडवाना के अन्य क्षेत्रों में हुआ जिसके प्रमाण जगाओं और ताम्र पत्रों से मिल चुके है ।
  सन् 1196 में पुनः बयाना और तीमन गढ़ से यदुवंशियों का पलायन ---राजा बिजयपाल के बाद उनके बड़े पुत्र तिमन पाल ने तिमन गढ़ का किला बनबाया।इनके राज्य में वर्तमान अलवर 'राज्य का आधा हिस्सा ,भरतपुर 'धौलपुर व् करौली के राज्य तथा गुणगाँव व् मथुरा से लेकर आगरा व् ग्वालियर के कुछ भाग भी सम्लित थे ।सन् 1158 के आस पास इन्होंने पुनः बयाना पर कब्ज़ा कर लिया था।बाद में इनके वंशधर कुंवरपाल को सन् 1196 में मुहम्मद गौरी से हारकर बयाना और तिमनगढ़ छोड़ने पड़े थे और बयाना व् तिमनगढ़ पर पुनः मुगलों (मुहम्मद गौरी एवं उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ) का अधिकार होगया था । इस लिए महाराजा कुंवरपाल नेअपने साथियों सहित अपने मामा के घर रीवां के अन्धेरा कटोला नामक गांव में जाकर निवास किया ।सन् 1196 से सन् 1327 तक इस क्षेत्र पर मुगलों का अधिकार रहा।मुगलों के अत्याचार भरे शासन के कारण बयाना और तिमन गढ़ के काफी यादव राजपूत उत्तर -पश्चिम की ओर पलायन कर गये ।इनमे कुछ तिजारा व् सरहत् (उत्तरी अलवर )में जा रहे ।बाद में उनमें से कुछ ने मुस्लिम धर्म अपना लिया और मेव तथा खान जादा कहलाने लगे जो आजकल अलवर व् मेवात क्षेत्र में पाये जाते है ।इसी समय बहुत से यदुवंशी राजपूत पुनः मथुरा के बिभिन्न भागों में जैसे महावन ,छाता ,वरसाना ,शेरगढ़ आदि क्षेत्र ,भरतपुर के कामा और डींग के क्षेत्र , आगरा जिले में  शमसाबाद ,फतेहाबाद ,किरावली ,अछनेरा व् मथुरा तथा भरतपुर सीमा के फरह क्षेत्र ,  बुलहंदशहर के जेवर क्षेत्र के जादौन राजपूत जो अपने को अब।छौंकर राजपूत कहते है वे भी इसी समय तिमनगढ़ व् बयाना क्षेत्र से अहरदेओ या द्रोपाल यदुवंशी राजपूत सरदार केवंशज है जिनको जेवर के ब्राह्मणों ने मेवातीओं से लड़ने के लिए जेवर में बसाया था ।उन्होंने जेवर को मेवातीओं से मुक्त कराया था ।जिनके लगभग 30 गांव है । इसके अलावा भी अलीगढ ,बुलहंदशहर ,इटावा ,भदावर क्षेत्र और हाथरस के पोर्च और वागर यदुवंशी राजपूत जो हसायन ,गिडोरा ,मेंडू ,दरियापुर में पाये जाते है उनका भी पलायन तिमनगढ़ से इसी समय पृथ्वीपाल यदुवंशी और उनके बंशज इस क्षेत्र में आये ।
  मध्यप्रदेश के भिंड ,मुरैना ,गुना ,विदिसा ,अशोकनगर ,मालवा ,हौसंगावाद ,रायसेन में जाकर बसे ।
    कुछ यदुवंशी तिमनगढ़ से राजस्थान के चित्तौड़ ,उदयपुर ,भीलवाड़ा ,पाली ,कोटा ,बारां जिलों में भी कुछ ठिकानो में जा बसे है ।
करौली राज्य की स्थापना -----   राजा कुंवरपाल के वंशज अर्जुनपाल जी ने सन् 1327ई0 के लगभग मंडरायल के शासक मिया मक्खन को मार के उस क्षेत्र पर अधिकार किया और सरमथुरा के 24 गांवों को बसाया और धीरे  धीरे अपने पूर्वजों के राज्य पर पुनः अधिकार किया ।सन्1348ई0 में इन्होंने कल्याणजी का मंदिर बनवाकर कल्याणपुरी नगर बसाया जो अब करौली कहलाता है ।यही इस राज्य की राजधानी बना  । 
यदुवंशी (पौराणिक यादव ) राजपूतों की अन्य शाखा व् उपशाखायें ------- जब अर्जुन ने यदुवंशियों को द्वारिका से पचनंद (पंजाब )में बसाया था तो उन्होंने अपने आप को अपने पूर्वजों के नाम से अलग अलग शाखाओं में विभाजित कर लिया जिनमें मुख्यरूप से शूरसेन ,बनाफर ,काबा ,जाडेजा ,भाटी ,हाल ,छौंकर ,जस्सा ,उनड़ ,केलण ,रावलोत , चुडासमा ,सरबैया ,रायजादा ,पाहू ,पुंगलिया ,जैसवार ,पोर्च ,बरगला ,जादव ,जसावत ,बरेसरी ,आदि आते है। जय राजपूताना।। डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव - लढोता , सासनी, जिला हाथरस, उत्तरप्रदेश।

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