ब्रज की शूरसैनी शाखा के यदुवंशियों के प्राचीन जादोंकुल करौली राजवंश का ऐतिहासिक अवलोकन--

ब्रज की शूरसैनी शाखा के यदुवंशियों के प्राचीन जादों राजवंश करौली का ऐतिहासिक अवलोकन---

करौली का जादों राजवंश अपने को पौराणिक यादववंशी तथा मथुरा की शूरसैनी शाखा से निकला हुआ मानता है ।आधुनिक करौली का कुछ क्षेत्र मत्स्य प्रदेश तथा कुछ हिस्सा शूरसेन राज्य में था ।शूरसेन राज्य की राजधानी मथुरा नगरी थी।
यदुवंशियों का राज्य  जो पहले प्रयाग में था , वह श्री कृष्ण के समय में ब्रज प्रदेश (मथुरा  ) में रहा।यदुकुल में श्री कृष्ण के दादा  महाराज शूरसेन के वंशज ही शूरसैनी शाखा के यादव कहलाये तथा इस यदुवंश में पैदा हुए कीर्तवीर्य अर्जुन के पुत्र शूरसेन के नाम पर मथुरा और उसके आस -पास के प्रदेश का नाम शूरसेन प्रदेश पड़ा जो श्री कृष्ण के दादा शूरसेन से कई पीढ़ी पहले हुए थे ।कुछ इतिहासकार इस प्रदेश का नाम  श्री कृष्ण के दादा शूरसेन के नाम पर पड़ा बताते है जो सत्य प्रतीत नहीं होता  है ।श्रीकृष्ण जी पहले ब्रजभूमि में राजकरते थे । श्री कृष्ण ने मगध के राजा जरासंध के अधिक विरोध  एवं आक्रमणों के कारण यादवों की राजधानी मथुरा के स्थान पर द्वारिका बना ली ।पर बाद में श्री कृष्ण की कूटनीति द्वारा जरासन्ध को भीमसेन के द्वारा मरवा दिया गया तब यादव मथुरा में स्वतन्त्र हो गए।
करौली का जादों राजवंश श्री कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ के वंशज ---

श्रीकृष्ण के बाद यादवों की एक शाखा (श्री कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ जी की शाखा )ने पुनः बृज देश में (मथुरा ) अपना राज्य स्थापित कर लिया  था । अर्जुन ने बज्र को द्वारिका से लाकर पुनः मथुरा का शासक बनाया था ।इनके वंशज ही कालान्तर में बयाना ,तिमनगढ़ एवं करौली के शासक हुए ।इन यादवों का राज्य ब्रज प्रदेश में , सिकन्दर  के आक्रमण के में भी होना पाया जाता है ।समय -समय पर  विदेशी आक्रमणकारियों  जैसे  शक , मौर्य ,गुप्त तथा सीथियनों आदि ने यादवों  का यह राज्य दबाया लेकिन मौका पाते ही यादव फिर स्वतंत्र बन जाते थे ।मध्य-काल में भी इस प्रदेश के यदुवंशी राजपूतों ने गजनी ( काबुल )  के तुर्कों एवं मुस्लिम शासकों से भी लम्बा संघर्ष किया ।इसी यादव शाखा के वंशजों ने कालान्तर में बयाना ,तिमनगढ़ एवं करौली राज्य की स्थापना की थी।यही करौली की राजगद्दी यदुवंशियों यानी भगवान श्री कृष्ण के वंशज माने जाने वाले राजपूतों में आदि (पाटवी ) या मुख्य समझी जाती है।
करौली की ख्यातों में लिखा है कि विक्रम सं0 936 (ई0 सन 879 ) में यादव महाराजा इच्छापाल मथुरा का राजा था।उसके ब्रह्मपाल एवं विनयपाल नामक दो पुत्र थे ।इच्छापाल के बाद ब्रहमपाल मथुरा का शासक हुआ और विनयपाल के वंशज "बनाफर " यादव कहलाये ।ब्रहमपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जयेंद्र पाल (इन्द्रपाल ) विक्रम संवत1123 (ई0 सन 966) में गद्दी पर बैठा ।इसका देहान्त संवत  1049 कार्तिक सुदी 11 को हुआ ।इसके 11 पुत्र थे जिनमें ज्येष्ठ विजयपाल थे ।

मथुरा से बयाना में  जादों राज्य की स्थापना --
मथुरा का यादव राजा विजयपाल ई0 1040 में मथुरा छोड़कर पर्वी राजस्थान के इस पहाड़ी क्षेत्र में चला आया और उसने विजयमन्दिरगढ़ दुर्ग एवं अपनी यहां पर राजधानी की स्थापना करके राज्य करने लगा।कालान्तर में यह दुर्ग "बयाना दुर्ग "के नाम से विख्यात हुआ जो आजकल भरतपुर जनपद में विराजमान है ।
राजा विजयपाल के 18 पुत्र बताये जाते है जिनमें तहनपाल (तिमनपाल ,त्रिभुवनपाल ) ज्येष्ठ थे ।उन्होंने ई0 सन 1093 से 1159 ई0 तक लगभग 66 वर्ष शासन किया ।उन्होंने तिमनगढ़ (ताहनगढ़ ,त्रिभुवनगढ़ ,त्रिभुवनगिर )नामक दुर्ग की स्थापना 11 वीं सदी में की थी ।इस दुर्ग को राजस्थान का खजुराहो भी कहा जाता है ।यह बयाना से 22 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है जो प्रायः जंगलों एवं पहाड़ियों से आच्छादित क्षेत्र था ।तिमनपाल ने "परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से नवाजा भी गया था ऐसे प्रमाण मिलते है ।तिमनपाल के बाद दो शासक धर्मपाल एवं उसका पासवानिया भाई हरिया हरपाल आपस में लड़ते ही रहे और अधिक समय तक अपनी सत्ता को नियंत्रित नहीं कर सके ।अंत में धर्मपाल के पुत्र कुँवरपाल ने हरिपाल को मारकर बयाना एवं तिमनगढ़ पर अपना अधिकार कर लिया ।उसके शासनकाल में शहाबुद्दीन गौरी एवं उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1196ई0 में बयाना पर आक्रमण किया तथा बयाना को हस्तगत करने के बाद तिमनगढ़ पर भी आधिपत्य कर लिया ।गौरी ने बहाउद्दीन तुगरिल को तिमनगढ़ का गवर्नर बनाया ।उस काल में यह नगर शैव धर्म का प्रमुख स्थान था ।दुर्ग एवं राजधानी यवनों के आधिपत्य में आजाने पर राजा कुँवरपाल चम्बलों के बीहड़ जंगलों में चला गया ।जादों परिवार इधर -उधर विस्थापित हो गए ।कुँवरपाल का कोई भी उत्तराधिकारी उस समय यह दुर्ग एवं अपना खोया हुआ पैतृक राज्य पुनः प्राप्त नहीं कर सके ।इस कारण सन 1196 ई0 से 1327ई0 तक का इस वंश का तिथिक्रम संदिग्ध है तथा उपलब्ध भी नहीं है ।
मध्यकाल में इस क्षेत्र पर यवनों का आधिपत्य रहा जिससे भारी अशांति ,अत्याचार एवं हिंसा का माहौल रहा । कुँवरपाल के भाई-बन्ध यदुवंशी  गोकुलदेव के पुत्र अर्जुनपाल ने ई0 1327 में मण्डरायल के दुराचारी शासक मियां माखन को युद्ध में परास्त करके अपने पूर्वजों के राज्य को पुनः प्राप्त करना शुरू कर दिया ।अर्जुनपाल ने मंडरायल के आस-पास के क्षेत्र में पाए जाने वाले मीणों एवं पंवार राजपूतों को युद्ध में हराकर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया और सरमथुरा में 24 गांव वसाए।
अर्जुनपाल ने ई0 1348 में कल्याणपुरी नामक नगर वसाया तथा कल्याण जी का मंदिर बनवाया ।यही कल्याणपुरी कालान्तर में करौली के नाम से विख्यात हुआ।यह नगर भद्रावती नदी के किनारे स्थित होने के कारण भद्रावती नाम से भी जाना जाने लगा ।अर्जुनपाल जी ने कल्याणपुरी के पक्के फर्श का बाजार ,मन्दिर ,कुएं ,तालाब आदि का निर्माण कराया तथा नगर के चारों ओर परकोटा बनवाया ।यह नगर उस समय कुल क्षेत्र 9 वर्ग किलोमीटर में स्थापित किया था ।

राजा अर्जुनपाल के उत्तराधिकारी शासक ---

अर्जुनपाल के बाद विक्रमादित्य ,अभयचन्द , पृथ्वीपाल ,उदयचंद ,रुद्रप्रताप ,चन्द्रसेन ,गोपालदास ,द्वारिकदास ,मुकुन्ददास ,तथा जगमाल नाम के शासक हुए ।

अर्जुनपाल के उत्तराधिकारी लगभग साधारण शासक थे ।वे पारिवारिक झगड़ों में उलझ गए और इस लिए वे अपने शत्रुओं का सामना करने में दुर्वल हो गए ।पृथ्वीपाल के शासनकाल में अफगानों ने तवनगढ़ पर 15 वीं सदी के प्रथम 25 वर्षों में अधिकार कर लिया ।यद्धपि उसने ग्वालियर के शासक का आक्रमण विफल कर दिया किन्तु वह मीणाओं का दमन न कर सका जो दुर्जेय बन गए थे  ।

महाराज चन्द्रसेन एवं उनका पौत्र राजा गोपालदास --

यादव (आधुनिक जादों )शाखा का 15 वां वंशज महाराज चन्द्रपाल एक धर्मपरायण शासक थे ।वह मालवा के महमूद खल्जी के आक्रमण का सामना न कर सके जो उनके राज्य में घुस आया और 1454ई0 में उसकी राजधानी लूटी।विजयी सुल्तान अपने पुत्र फिदवी खां को करौली सौंप कर अपनी राजधानी लौट गया ।तिमनगढ़ से निकाले जाने पर चन्द्रसेन उंटगढ़ में सन्यासी जीवन व्यतीत करने लगा ।ऐसा प्रतीत होता है कि वह तथा उसके उत्तराधिकारी अपने सुरक्षित स्थान के निकट थोड़े प्रदेश पर तब तक अधिकार बनाये रहे जब तक अकबर के समय उसके एक उत्तराधिकारी गोपालदास ने उसके क्षेत्र का कुछ भाग प्राप्त कर लिया  ।गोपालदास अकबर के समय में मुगल सल्तनत के मनसबदार थे। उन्होंने उस क्षेत्र के मीना आदि जनजातियों को दमन किया और उसने मासलपुर , झीरी और बहादुरपुर (भद्रपुर) पर अधिकार किया तथा वजन दुर्ग बनवाये ।ई0 1599 में गोपालदास ने अकबर के लिए दौलताबाद ला दुर्ग जीत कर सम्राट अकबर को खुश  किया जिससे अकबर ने उसे 2 हजारी मनसब और  नगाड़ा निशान का सम्मान दिया ।मासलपुर के 84 गांव भी गोपालदास ने अपने अधीन कर लिए थे ।जब राजा गोपालदास अकबर के दरबार में जाते थे उओ उनके आगे -आगे नगाड़ा बजता हुआ चलता था ।ई0 1566 में अकबर ने गोपालदास के हाथों आगरा के दुर्ग की नींव रखवाई थी।उन्होंने ही करौली के निकट बहादुरपुर का किला तथा करौली राजमहल में गोपाल मंदिर बनवाया ।इस मंदिर में ही दौलताबाद से लाई गई गोपाल जी की मूर्ति स्थापित की गई।यह मूर्ति आज भी मदनमोहन जी के मंदिर में दाई ओर के कक्ष में विराजमान है ।गोपाल दास ने मासलपुर तथा चम्बल के किनारे झीरी में महल एवं बाग लगवाए।  
धर्मपाल दूसरे ने करौली को संवत 1707 में अपनी राजधानी बनाया तथा यहां पर राजमहलों सहित अनेक निर्माण कार्य करवाये ।उसकी मृत्यु करौली के राजमहलों में हुई।धर्मपाल दूसरे की पूजा देवता के रूप में की जातीहै।उसके बाद रतनपाल ,कुँवरपाल दूसरे ,गोपाल सिंह हुये।

करौली के इतिहास में महाराजा गोपालदास जी के बाद सर्वाधिक प्रभावशाली महाराजा गोपालसिंह जी दुतीय ----  

  ‎सं0 1781 में करौली की गद्दी पर बैठे।राजगद्दी पर बैठने के समय ये नाबालिग थे ।इससे राज्य प्रबन्ध दो योग्य ब्राह्मणों खंडेराव ओर नवलसिंह के हाथ में था ।इन दोनों मंत्रियों ने मरहटों से मित्रता गाँठ करके करौली पर उनका धावा नहीं होने दिया।बड़े होने पर गोपालसिंह जी ने राज-काज अच्छी तरह चलाया ।ये बहुत ही बहादुर और हिम्मत वाले थे।जिस किसी ने वगावत की तुरंत उसे दंड दिया ओर राज्य के किलों को मजबूत बनाया ।

इनके समय करौली राज्य सबलगढ़ से लेकर सिकरवारड तक  फैल गया था जो ग्वालियर से 4 किमी दूर सिकरवार की पहाड़ी तक था।इन्होंने अपने समय में झिरी तथा सरमथुरा के मुक्तावतो को अपने पक्ष में कर लिया था। इस प्रकार सं0 1805 तक राज्य में शांति स्थापित करने के बाद करौली  के महलों को बढ़ाया तथा राजधानी के चारों ओर लाल पत्थर का पक्का शहरपनाह( परकोटा) निर्माण ,गोपालमन्दिर ,दीवानेआम ,त्रिपोलिया ,नक्कारखाना आदि बनवाया ।विक्रम संवत 1785 में करौली नरेश गोपाल सिंह दुतीय मदनमोहन जी की मूर्ति को जयपुर नरेश महाराजा सवाई जयसिंह से गोसाई सुबलदास के माध्यम से यहां लाये थे ।गोपालसिंह ने संवत 1805 में वर्तमान देवालय का निर्माण कराया ,जहां आज भी आठों झांकियों में पूजा एवं दर्शन होते है।यह मूर्ति ब्रजभूमि वृन्दावन जहां अभी भी इनका मन्दिर है , से मुस्लिम आक्रांताओं (औरंगजेव )से बचा कर जयपुर लाई गई थी।गोविन्द देव , और गोपीनाथजी के साथ इनकी पूजा होती थी । एक किवदंती के अनुसार मदनमोहन जी ने गोपाल सिंह को स्वप्न्न में करौली लाने के आदेश दिए ।जब करौली नरेश ने सपने की बात जयपुर नरेश को सुनाई तो स्वप्न की सच्चाई प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आखों पर पट्टी बांध तीनों मूर्तियों में से छांटने की शर्त रखी ।बन्द आखों से महाराजा गोपालसिंग ने मदनमोहन जी की मूर्ति को पकड़ लिया और उसे करौली ले आये ।मदनमोहन जी का मंदिर भी इन्होंने ही बनवाये थे ।बादशाह मुहम्मदशाह ने इनको "माही मरातिव"का रुतबा दिया ।इनके समय करौली नगर की काफी उन्नति हुई ।नगर में इनकी दर्शनीय छतरी बनी हुई है।ये राजपूताने की बड़ी -बड़ी कार्यवाहियों में उदयपुर ,जयपुर तथा जोधपुर के साथ शरीक रहे ।इनके राज्य में 697 गांव थे ।13 मार्च सं0 1814 को इनका देहावसान हो गया ।

‎महाराजा गोपाल सिंह जी के बाद क्रमशः महाराजा तुरसनपाल जी ,मानकपाल जी, हरीबक्स पाल जी , प्रतापपाल जी ,नरसिंह पाल जी ,भरतपालजी ,मदनपाल जी ,लक्ष्मनपाल जी ,जय सिंहपाल जी ,अर्जुनपाल जी दुतीय,महाराजा भंवरपाल देव बहादुर यदुकुल चन्द्र भाल ,महाराजाभौमपाल देव बहादुर यदुकुल चन्द्र भाल , महाराजा गणेशपाल देव बहादुर यदुकुल चन्द्र भाल करौली की गद्दी पर बैठे ।वर्तमान में पूर्व करौली के नरेश गणेशपाल जी के पोते  महाराजा श्री
  ‎कृष्ण चंद्र पाल देव बहादुर यदुकुल चन्द्र भाल  करौली के राज प्रसाद में रहते है ।इनके पुत्र युवराजकुमार विवस्वतपाल जी है।
करौली के यादव वंशी राजा भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ जी के वंशज है।अतः अपने नाम के आगे" सिंह "न लिख कर "पाल " लिखते है क्यों कि सिंह गाय को खा जाता है और पाल शब्द का अर्थ है पालक (पालने वाले ) ।ये राजा विष्णु धर्म के अनन्य भक्त थे ।रामजी के भक्त हनुमान जी की माता अंजना इनकी कुलदेवी है ।

संदर्भ--
1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा 
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी 
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी 
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली 
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास 
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं 
करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र 
14-यदुवंश -गंगा सिंह
15-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
16-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली ।
17-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा ।
18-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता ।
19-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग ।
20-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन ।
21-करौली पोथी ।
22-करौली ख्यात ।
23-ग्वालियर के तंवर -लेखक हरिहरप्रसाद द्विवेदी ।
24-जाटों का नवीन इतिहास -लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ।
25-जाटों का नया इतिहास -लेखक धर्मेंचन्द्र विद्यासंकर ।

लेखक -डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव-लाढोता ,सासनी 
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि मृदा विज्ञान 
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राज

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